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19 जून / जन्मदिवस – आत्मविलोपी व्यक्तित्व : श्रीपति शास्त्री जी

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नई दिल्ली. संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता, इतिहास के प्राध्यापक तथा राजनीति, समाजशास्त्र, साहित्य आदि विषयों के गहन अध्येता श्रीपति सुब्रमण्यम शास्त्री जी का जन्म 19 जून, 1935 को कर्नाटक राज्य के चित्रदुर्ग जिले के हरिहर ग्राम में हुआ था. बालपन में ही वे स्वयंसेवक बने तथा अपने संकल्प के अनुसार अविवाहित रहकर अंतिम सांस तक संघ कार्य करते रहे.

वर्ष 1956 में वे मैसूर नगर कार्यवाह बने. उस दौरान उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय से इतिहास में स्वर्ण पदक लेकर एमए किया और ‘संवैधानिक इतिहास’ विषय पर पीएचडी करने पुणे आ गये. इसी बीच उन्होंने संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण भी पूर्ण किया. वर्ष 1961 में वे पुणे के वाडिया महाविद्यालय में अध्यापक तथा फिर पुणे विश्वविद्यालय में इतिहास के विभागाध्यक्ष बने. यहां उन्हें सायं शाखाओं का काम दिया गया. वे अपनी साइकिल पर दिन-रात घूमने लगे. छात्रावासों तथा वहां के जलपान गृहों को उन्होंने अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया. वे प्राध्यापक होते हुए भी छात्रों में मित्र की तरह घुलमिल जाते थे.

शास्त्री जी के भाषण बहुत तर्कपूर्ण होते थे. सैकड़ों संदर्भ व तथ्य उन्हें याद थे. पुणे एक समय समाजवादियों का गढ़ था. उनका ‘साधना’ नामक पत्र प्रायः संघ पर झूठे आरोप लगाता था. शास्त्री जी हर बार उसका तर्कपूर्ण उत्तर देते थे. इससे उनका मनोबल टूट गया और उन्होंने यह मिथ्याचार बंद कर दिया. दूसरी ओर शास्त्री जी की बैठकें बड़ी रोचक और हास्यपूर्ण होती थीं. बैठक के बाद भी कार्यकर्ता घंटों उनके साथ बैठकर गप्प लड़ाते थे. वे संघ के काम में बौद्धिकता से अधिक महत्व श्रद्धा और विनम्रता को देते थे.

महाराष्ट्र में काफी समय तक संघ को ब्राह्मणों का संगठन माना जाता था. हिन्दू समाज का निर्धन व निर्बल वर्ग इस कारण संघ से दूर ही रहता था. अतः तात्या बापट व दामु अण्णा दाते के साथ ‘पतित पावन’ संस्था बनाकर वे इन वर्गों में पहुंचे. संघ में व्यस्त रहते हुए भी वे विद्यालय में पूरी तैयारी से पढ़ाते थे. इसलिए उन्हें ‘अर्जेंट प्रोफेसर’ कहा जाता था. उनकी रोचक शैली के कारण कक्षा में अन्य विद्यालयों के छात्र भी आकर बैठ जाते थे.

उनके प्रयास से कुछ ही वर्ष में पुणे में नये, जुझारू तथा युवा कार्यकर्ताओं की टोली खड़ी हो गयी. शास्त्री जी ने उनके हाथ में संघ का पूरा काम सौंप दिया. तब तक उन पर भी प्रांत, क्षेत्र तथा फिर अखिल भारतीय सहबौद्धिक प्रमुख, सह संपर्क प्रमुख आदि दायित्व आ गये. इस नाते उनका प्रवास देश और विदेशों में भी होने लगा. वे कन्नड़, तमिल, हिन्दी और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे. पुणे आकर उन्होंने मराठी भी सीख ली. कुछ समय बाद उन्हें मराठी में बोलते सुनकर किसी को नहीं लगता था कि वे मूलतः महाराष्ट्र के नहीं हैं.

उनकी विद्वत्ता की धाक संघ के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी थी. इसलिए सब तरह के लोग उनसे परामर्श के लिए आते थे. वर्ष 1983 में पुणे में एक ईसाई संस्था ‘सेमिनरी’ ने उन्हें ‘ईसाइयों का भारत में स्थान’ विषय पर व्याख्यान के लिए बुलाया. उनका वह स्पष्ट भाषण बहुचर्चित और प्रकाशित भी हुआ.

शास्त्री जी ने महाराष्ट्र की ‘जन कल्याण समिति’ को भी व्यवस्थित किया. लातूर के भूकंप के बाद इसके सेवा और पुनर्वास कार्य की दुनिया भर में प्रशंसा हुई. डॉ. हेडगेवार जन्मशती पर महाराष्ट्र में प्रवास कर उन्होंने धन संग्रह कराया. श्रीगुरुजी की जन्मशती पर उन्होंने अनेक व्याख्यानमालाओं का आयोजन किया. इस भागदौड़ से वे अनेक रोगों से घिर गये, जिसमें मधुमेह प्रमुख था. इस पर भी वे लगातार काम में लगे रहे. कार्यकर्ताओं के दुख-सुख को निजी दुख-सुख मानने वाले, सदा दूसरों को आगे रखने वाले आत्मविलोपी व्यक्तित्व के धनी श्रीपति शास्त्री जी का 27 फरवरी, 2010 को हृदयाघात से पुणे में ही देहांत हुआ.

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