नई दिल्ली. भारत की उन्नति स्वदेशी उद्योगों के बल पर ही हो सकती है. इसलिए हमें विदेशों का मुंह देखने की बजाय स्वयं ही आगे आना होगा. संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने जब ये शब्द युवा वैज्ञानिक जगमोहन को कहे, तो उन्होंने तत्काल अमरीका की चमकदार नौकरी और वैभव को लात मारकर मातृभूमि की सेवा के लिए देश लौटने का निश्चय कर लिया. डॉ. जगमोहन गर्ग का जन्म गाजियाबाद में 22 अगस्त, 1933 को हुआ था. एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे जगमोहन जी बचपन से ही अति प्रतिभावान थे. प्रारम्भिक शिक्षा गाजियाबाद में पूर्ण कर उन्होंने बनारस से बीएससी की उपाधि विश्वविद्यालय में स्वर्ण पदक लेकर हासिल की.
इसके बाद वे उच्च शिक्षा के लिए अमरीका के परड्यू विश्वविद्यालय चले गए. वहां उन्होंने बीटेक तथा फिर एमई की डिग्री हासिल की. यहां भी वे विश्वविद्यालय में प्रथम रहे. स्वयं को जीवन भर छात्र समझने वाले जगमोहन जी ने फिर उसी विश्वविद्यालय में पढ़ाना शुरू कर दिया. वे पहले भारतीय थे, जिन्होंने वहां सर्वश्रेष्ठ शिक्षक का सम्मान प्राप्त किया. वर्ष 1966 में भारत आकर उन्होंने गाजियाबाद में उद्योग स्थापित किया. इसमें उच्च ताप सहने योग्य विशेष प्रकार का तार बनता था, जो पनडुब्बी, टैंक, रडार तथा हवाई और पानी के जहाजों में प्रयोग होता था. इसकी आवश्यकता रक्षा विभाग को पड़ती थी. वह सारी सामग्री विदेश से आयात करता था, पर अब उनकी विदेशों पर निर्भरता समाप्त हो गयी. जगमोहन जी द्वारा उत्पादित तार विदेशों से अच्छा और सस्ता भी पड़ता था. वे चाहते, तो उसे बहुत अधिक मूल्य पर बेच सकते थे, क्योंकि पूरे भारत में इस तार का केवल उनका ही उद्योग था, पर अनुचित लाभ उठाने का विचार कभी उनके मन में नहीं आया.
इस तार के लिए कच्चा माल विदेश से आता था. मुम्बई में सीमा शुल्क विभाग के लोग बिना रिश्वत लिये उसे छोड़ते नहीं थे. डॉ. जगमोहन जी ने निश्चय किया कि चाहे कितनी भी कठिनाई आए, पर वे रिश्वत नहीं देंगे. वे कई दिन तक मुम्बई में पड़े रहते और अपना माल छुड़ा कर ही मानते. कई बार के संघर्ष के बाद सीमा अधिकारी समझ गए कि इन तिलों से तेल नहीं निकलेगा, तो वे बिना रिश्वत लिए ही माल छोड़ने लगे. डॉ. जगमोहन जी बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाते थे. गाजियाबाद नगर कार्यवाह से लेकर क्षेत्र संघचालक तक के दायित्व उन्होंने निभाये. कुछ वर्ष तक वे अखिल भारतीय सम्पर्क प्रमुख भी रहे. वे अपने व्यवसाय के सिलसिले में प्रायः विदेश जाते थे. वहां वे विदेशस्थ स्वयंसेवकों और वैज्ञानिकों से मिलकर उन्हें भारत में काम करने को प्रेरित करते थे. जो लोग इसके लिए तैयार होते, उन्हें वे हर प्रकार से सहयोग करते थे.
सामाजिक कार्यों को जीवन में प्राथमिकता देने के कारण उन्होंने गृहस्थी नहीं बसाई. शहर में रहते हुए भी उन्हें ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा की चिन्ता रहती थी. उन्होंने इस बारे में शोध हेतु पिलखुवा के पास ‘ग्राम भारती’ प्रकल्प स्थापित किया. वे चाहते थे कि गांवों के बच्चे पढ़ने के बाद भी खेती, पशु पालन आदि से जुड़े रहें. पार्किन्सन रोग से पीड़ित होने के कारण उन्होंने उद्योग का सारा कार्य अपने छोटे भाई को सौंप दिया. 11 अक्तूबर, 2007 की रात्रि में संकल्प के धनी वैज्ञानिक डॉ. जगमोहन जी का देहान्त हुआ.
डा. जगमोहन जी पर यह लेख पढ़कर अत्यंत आनंद हुआ. पहले भी मैंने जगमोहन जी जैसे कार्यकर्ताओं पर लेख लिखने का अनुरोध किया है. 1969 में प्राथमिक शिक्षा वर्ग, पिलखुआ में पहली बार उनसे परिचय हुआ था. क्रमशः यह परिचय प्रगाढ़ होता गया. सचमुच उनका जीवन हम स्वयमसेवकों के लिए आदर्श और प्रेरणास्रोत रहा. दिवंगत आत्मा को मेरा प्रणाम.