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30 मई / बलिदान-दिवस – गुरु अर्जुनदेव

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हिन्दू धर्म और भारत की रक्षा के लिये यों तो अनेक वीरों एवं महान् आत्माओं ने अपने प्राण अर्पण किये हैं; पर उनमें भी सिख गुरुओं के बलिदान का उदाहरण मिलना कठिन है. पाँचवे गुरु श्री अर्जुनदेव जी ने जिस प्रकार आत्मार्पण किया, उससे हिन्दू समाज में अतीव जागृति का संचार हुआ.

सिख पन्थ का प्रादुर्भाव गुरु नानकदेव द्वारा हुआ. उनके बाद यह धारा गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास से होते चेथे गुरु रामदास जी तक पहुँची. रामदास जी के तीन पुत्र थे. एक बार उन्हें लाहौर से अपने चचेरे भाई सहारीमल के पुत्र के विवाह का निमन्त्रण मिला. रामदास जी ने अपने बड़े पुत्र पृथ्वीचन्द को इस विवाह में उनकी ओर से जाने को कहा; पर उसने यह सोचकर मना कर दिया कि कहीं इससे पिताजी का ध्यान मेरी ओर से कम न हो जाये. उसके मन में यह इच्छा भी थी कि पिताजी के बाद गुरु गद्दी मुझे ही मिलनी चाहिये.

इसके बाद गुरु रामदास जी ने दूसरे पुत्र महादेव को कहा; पर उसने भी यह कह कर मना कर दिया कि मेरा किसी से वास्ता नहीं है. इसके बाद रामदास जी ने अपने छोटे पुत्र अर्जुनदेव से उस विवाह में शामिल होने को कहा. पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर अर्जुनदेव जी तुरन्त लाहौर जाने को तैयार हो गये. पिताजी ने यह भी कहा कि जब तक मेरा सन्देश न मिले, तब तक तुम वहीं रहकर संगत को सतनाम का उपदेश देना.

अर्जुनदेव जी लाहौर जाकर विवाह में सम्मिलित हुये, इसके बाद उन्हें वहाँ रहते हुए लगभग दो वर्ष हो गये; पर पिताजी की ओर से कोई सन्देश नहीं मिला. अर्जुनदेव जी अपने पिताजी के दर्शन को व्याकुल थे. उन्होंने तीन पत्र पिताजी की सेवा में भेजे; पर पहले दो पत्र पृथ्वीचन्द के हाथ लग गये. उसने वे अपने पास रख लिये और पिताजी से इनकी चर्चा ही नहीं की. तीसरा पत्र भेजते समय अर्जुनदेव जी ने पत्रवाहक को समझाकर कहा कि यह पत्र पृथ्वीचन्द से नजर बचाकर सीधे गुरु जी को ही देना.

जब श्री गुरु रामदास जी को यह पत्र मिला, तो उनकी आँखें भीग गयीं. उन्हें पता लगा कि उनका पुत्र उनके विरह में कितना तड़प रहा है. उन्होंने तुरन्त सन्देश भेजकर अर्जुनदेव जी को बुला लिया. अमृतसर आते ही अर्जुनदेव जी ने पिता जी के चरणों में माथा टेका. उन्होंने उस समय यह शब्द कहे –

भागु होआ गुरि सन्त मिलाइया

प्रभु अविनासी घर महि पाइया..

इसे सुनकर गुरु रामदास जी अति प्रसन्न हुये. वे समझ गये कि सबसे छोटा पुत्र होने के बावजूद अर्जुनदेव में ही वे सब गुण हैं, जो गुरु गद्दी के लिये आवश्यक हैं. उन्होंने भाई बुड्ढा, भाई गुरदास जी आदि वरिष्ठ जनों से परामर्श कर भादों सुदी एक, विक्रमी सम्वत् 1638 को उन्हें गुरु गद्दी सौंप दी.

उन दिनों भारत में मुगल शासक अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे. वे पंजाब से होकर ही भारत में घुसते थे. इसलिये सिख गुरुओं को संघर्ष का मार्ग अपनाना पड़ा. गुरु अर्जुनदेव जी को एक अनावश्यक विवाद में फँसाकर बादशाह जहाँगीर ने लाहौर बुलाकर गिरफ्तार कर लिया.

इसके बाद उन्हें गरम तवे पर बैठाकर ऊपर से गरम रेत डाली गयी. इस प्रकार अत्यन्त कष्ट झेलते हुए उनका प्राणान्त हुआ.

बलिदानियों के शिरोमणि गुरु अर्जुनदेव जी का जन्म 15 अप्रैल 1556 को तथा बलिदान 30 मई, 1606 को हुआ.

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