यूं तो भारत में देववाणी संस्कृत के गर्भ से जन्मी सभी भाषाएं राष्ट्रभाषाएं हैं, फिर भी सबसे अधिक बोली और समझी जाने के कारण हिन्दी को भारत की सम्पर्क भाषा कहा जाता है. भारत की एकता में हिन्दी के इस महत्व को अहिन्दी भाषी प्रान्तों में भी अनेक मनीषियों ने पहचाना और विरोध के बावजूद इसकी सेवा, शिक्षण व संवर्धन में अपना जीवन खपा दिया.
ऐसे ही एक मनीषी रहे श्री विद्याधर गुरुजी. उनका जन्म ग्राम गुरमिठकल (गुलबर्गा, कर्नाटक) में 30 सितम्बर, 1914 को एक मडिवाल (धोबी) परिवार में हुआ था. यद्यपि आर्थिक स्थिति सुधरने से इनके पिता एवं चाचा अनाज का व्यापार करने लगे थे; पर परिवार की महिलाएं दूसरों के कपड़े ही धोती थीं. अशिक्षित, लेकिन संस्कारवान परिवार में विद्याधर का बचपन बीता.
1931 में जब भगतसिंह को फांसी हुई, तो विद्याधर कक्षा सात में पढ़ते थे. उन्होंने अपने साथियों के साथ गांव में जुलूस निकाला. इस पर उन्हें पाठशाला से निकाल दिया गया. 1938 में जब आर्य समाज ने निजामशाही के विरुद्ध आन्दोलन किया, तो इन्होंने उसमें बढ़-चढ़ कर भाग लिया. इससे निजाम शासन ने इनके विरुद्ध वारण्ट जारी कर दिया. आर्य नेता श्री बंसीलाल ने इन्हें लाहौर जाकर पढ़ने को कहा. वहां दयानन्द उपदेशक महाविद्यालय, अनारकली से इन्होंने ‘सिद्धान्त शास्त्री’ की उपाधि प्राप्त की.
1942 में जब ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ हुआ, तो ये उसमें कूद पड़े. इस प्रकार वे निजाम और अंग्रेज दोनों की आंखों के कांटे बन गए; पर वे कभी झुके या दबे नहीं. स्वतन्त्रता के बाद हैदराबाद और कर्नाटक को जब निजामशाही से मुक्ति मिली, तो विद्याधर जी कांग्रेस से जुड़ गए और नगरपालिका के सदस्य बने. 1962 में श्री राजगोपालाचारी की स्वतन्त्र पार्टी की ओर से चुनाव जीतकर वे गुरमिठकल से ही विधान सभा में पहुँच गए.
उनकी इच्छा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद ही विवाह करने की थी; पर होसल्ली के ग्राम-प्रधान ने बताया कि उनके गांव में पिछड़े वर्ग की एक लड़की पढ़ना चाहती है. घर की निर्धनता को देखकर पादरी दबाव डाल रहे हैं कि ईसाई बनने पर वे उसकी पढ़ाई का खर्चा उठा लेंगे. विद्याधर जी ने वहां जाकर पुरुषों को समझाकर यज्ञोपवीत संस्कार कराया. जब कन्या के पिता ने परिवार की निर्धनता और उसके विवाह की चर्चा की, तो विद्याधर जी स्वयं तैयार हो गए. उन्होंने विवाह के बाद अपनी पत्नी की पढ़ाई का पूरा प्रबन्ध किया. पत्नी ने भी उनके सामाजिक कार्यों में सदा सहयोग दिया.
1937 में गान्धी जी ने उन्हें हिन्दी के लिए काम करने को कहा. विद्याधर जी ने यादगिरी में छह पाठशालाएं शुरू कर 8000 बीड़ी मजदूरों को हिन्दी सिखाई. तबसे उनके नाम के साथ ‘गुरुजी’ जुड़ गया. वे हिन्दी प्रचार सभा, हैदराबाद के 23 वर्ष तक अध्यक्ष रहे. विधानसभा और विधान परिषद में वे प्रायः हिन्दी में ही बोलते थे. 1962 में कर्नाटक के मुख्यमन्त्री रामकृष्ण हेगड़े ने उन्हें राज्यसभा में भेजने का प्रस्ताव किया; पर विद्याधर गुरुजी ने मना कर दिया. जुलाई 2017 में उनका निधन हो गया. उनकी इच्छा अनुसार देहदान की प्रक्रिया को पूरा किया गया.