राष्ट्रीय स्वयंसेवक का काम ऐसे समर्पित लोगों के बल पर खड़ा है, जिन्होंने गृहस्थ होते हुए भी अपने जीवन में संघ कार्य को सदा प्राथमिकता दी. ऐसे ही एक यशस्वी अधिवक्ता थे श्री उत्तमचन्द इसराणी. श्री इसराणी का जन्म 10 नवम्बर, 1923 को सिन्ध प्रान्त में सक्खर जिले की लाड़काणा तहसील में स्थित गाँव ‘मियाँ जो गोठ’ (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था. बालपन में ही वे संघ के स्वयंसेवक बन गये थे.
उन दिनों सिन्ध में मुस्लिम गतिविधियाँ जोरों पर थीं. पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाते हुये मजहबी गुंडे रात भर हिन्दू बस्तियों में घूमते थे. ऐसे में हिन्दू समाज का विश्वास केवल संघ पर ही था. शाखा पर सैकड़ों स्वयंसेवक आते थे. शायद ही कोई हिन्दू युवक ऐसा हो, जो उन दिनों शाखा न गया हो.
पर इसके बाद भी देश का विभाजन हो गया. कांग्रेसी नेताओं की सत्ता लिप्सा ने सिन्ध, पंजाब और बंगाल के करोड़ों हिन्दुओं को अपना घर, खेत, कारोबार और वह मिट्टी छोड़ने पर मजबूर कर दिया, जिसमें वे खेल कर बड़े हुए थे. लाखों हिन्दुओं को अपनी प्राणाहुति भी देनी पड़ी.
श्री इसराणी अपने परिवार सहित मध्य प्रदेश के भोपाल में आकर बस गये. भोपाल में उन्होंने अपना परिवार चलाने के लिये वकालत प्रारम्भ कर दी. इसी के साथ वे संघ कार्य में भी सक्रिय हो गये. बहुत वर्षों तक सिन्धी कालोनी वाला उनका मकान ही संघ का प्रान्तीय कार्यालय बना रहा. इस प्रकार उत्तमचन्द जी और भोपाल का संघ कार्य परस्पर एकरूप हो गये.
प्रारम्भ में उन्हें संघ के भोपाल विभाग कार्यवाह का दायित्व दिया गया. इसके बाद प्रान्त कार्यवाह और फिर प्रान्त संघचालक की जिम्मेदारी उन्हें दी गयी. जब मध्य भारत, महाकौशल और छत्तीसगढ़ प्रान्तों को मिलाकर एक क्षेत्र की रचना की गयी, तो उन्हें क्षेत्र संघचालक का काम दिया गया.
1975 में जब देश में आपातकाल लगा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, तो इसराणी जी पूरे समय जेल में रहे. वह अत्यन्त कठिन समय था. वकालत बन्द होने से घर की आय रुक गयी, फिर भी एक स्थितप्रज्ञ सन्त की भाँति उन्होंने धैर्य रखा और जेल में बन्द सभी साथियों को भी साहसपूर्वक इस परिस्थिति का सामना करने का सम्बल प्रदान किया.
इसराणी जी को पूर्ण विश्वास था कि सत्य की जय होगी और यह स्थिति बदलेगी, चूँकि संघ ने कभी कोई गलत काम नहीं किया. 1977 में आपातकाल की समाप्ति और प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद वे फिर संघ कार्य में सक्रिय हो गये. जब उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा, तो उन्होंने वरिष्ठ अधिकारियों से आग्रह कर दायित्व से मुक्ति ले ली. इसके बाद भी ‘अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाते जो सम्भव हुआ, काम करते रहे.
एक बार जबलपुर प्रवास में उन्हें भीषण हृदयाघात हुआ. उसके बाद उन्हें भोपाल लाकर अस्पताल में भर्ती कराया गया; पर इसके बाद उनकी स्थिति में सुधार नहीं हो सका और 5 दिसम्बर, 2007 को उनका शरीरान्त हुआ.
माननीय सुदर्शन जी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा, ‘‘उत्तमचन्द जी ने राष्ट्र के हित में सर्वांग यशस्वी जीवन कैसे बिताया जा सकता है, इसका अनुकरणीय उदाहरण हमारे सम्मुख रखा है. यशस्वी गृहस्थ, यशस्वी अधिवक्ता, यशस्वी सामाजिक कार्यकर्ता, यशस्वी स्वयंसेवक, यशस्वी कार्यवाह और यशस्वी संघचालक जैसी भूमिकाओं को विभिन्न स्तरों पर निभाते हुए दैनन्दिन शाखा जाने के अपने आग्रह में उन्होंने कभी कमी नहीं आने दी.’’