नई दिल्ली. सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य सोलहवीं सदी के उन राष्ट्रीय महापुरुषों में से एक थे, जिनकी वीरता ने विदेशी आक्रांताओं और मुगल साम्राज्य के छक्के छुड़ा दिए. मात्र 29 दिनों के शासन काल में उन्होंने हिंदवी स्वराज की ओर अनेक कदम उठाये. 24 युद्धों में से 22 में सफ़ल रहे भारत माता के वीर सपूत का 07 अक्टूबर 1556 ई के दिन दिल्ली के पुराने किले में सम्राट विक्रमादित्य की उपाधि के साथ उनका राज्यारोहण हुआ.
अपने शौर्य से इतिहास की धारा मोड़ने वाले वीर हेमू का जन्म दो अक्तूबर, 1501 (विजयादशमी) को ग्राम मछेरी (अलवर, राजस्थान) में हुआ था. उनके पिता राय पूरणमल पहले पुरोहित थे, पर फिर वे रेवाड़ी (हरियाणा) आकर नमक और बारूद में प्रयुक्त होने वाले शोरे का व्यापार करने लगे. हेमू ने यहां आकर शस्त्र के साथ ही संस्कृत, हिन्दी, फारसी, अरबी तथा गणित की शिक्षा ली. इसके बाद वह आगरा आ गये और तत्कालीन अफगान सुल्तान सलीम शाह के राज्य में बाजार निरीक्षक की नौकरी करने लगे.
जब सलीम के बेटे फिरोजशाह को मारकर मुहम्मद आदिल सुल्तान बना, तो हेमू की उन्नति होती चली गयी और वह कोतवाल, सामन्त, सेनापति और फिर प्रधानमन्त्री बन गये. जब भरे दरबार में सिकन्दर खां लोहानी ने आदिलशाह को मारना चाहा, तो हेमू ने ही उसकी रक्षा की. इससे वह आदिलशाह के विश्वासपात्र हो गये. उन्होंने कई युद्धों में भाग लिया और सबमें विजयी हुए. इससे उनकी गणना भारत के श्रेष्ठ वीरों में होने लगी. उन्होंने इब्राहीम खां, मुहम्मद खां गोरिया, ताज कर्रानी, रुख खान नूरानी आदि अनेक विद्रोहियों को पराजित कर पंजाब से लेकर बिहार और बंगाल तक अपनी वीरता के झंडे गाड़ दिये. यद्यपि ये अभियान उन्होंने दूसरों के लिए ही किये थे, पर उनके मन में अपना स्वतन्त्र हिन्दू राज्य स्थापित करने की प्रबल इच्छा विद्यमान थी.
हुमायूं की मृत्यु के बाद घटनाक्रम तेजी से बदला. अतः हेमू ने आगरा पर धावा बोल दिया. वहां का मुगल सूबेदार इस्कंदर खान उजबेक तो उनका नाम सुनते ही मुख्य सेनापति तर्दीबेग के पास दिल्ली भाग गया. हेमू ने अब दिल्ली को निशाना बनाया. भयंकर मारकाट के बाद तर्दीबेग भी मैदान छोड़ गया. इस प्रकार हेमू की इच्छा पूरी हुई और वह सात अक्तूबर, 1556 को हेमचन्द्र विक्रमादित्य के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ़ हुए. उस समय कुछ अफगान और पठान सूबेदारों का समर्थन भी उन्हें प्राप्त था.
उस समय राजनीतिक दृष्टि से भारत विभक्त था. बंगाल, उड़ीसा और बिहार में आदिलशाह द्वारा नियुक्त सूबेदार राज्य कर रहे थे. राजस्थान की रियासतें आपस में लड़ने में ही व्यस्त थीं. गोंडवाना में रानी दुर्गावती, तो दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य प्रभावी था. उत्तर भारत के अधिकांश राज्य भी स्वतन्त्र थे. अकबर उस समय केवल नाममात्र का ही राजा था. ऐसे में दिल्ली और आगरा का शासक होने के नाते हेमू का प्रभाव काफी बढ़ गया. मुगल अब उसे ही अपना शत्रु क्रमांक एक मानने लगे. अकबर ने अपने संरक्षक बैरम खां के नेतृत्व में सम्पूर्ण मुगल शक्ति को हेमू के विरुद्ध एकत्र कर लिया.
पांच नवम्बर, 1556 को पानीपत के मैदान में दूसरा युद्ध हुआ. हेमू के डर से अकबर और बैरमखां युद्ध से दूर ही रहे. प्रारम्भ में हेमू ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिये, पर अचानक एक तीर उनकी आंख को वेधता हुआ मस्तिष्क में घुस गया. हेमू ने उसे खींचकर आंख पर साफा बांध लिया, पर अधिक खून निकलने से वह बेहोश होकर हौदे में गिर गये. यह सूचना पाकर बैरमखां ने अविलम्ब अकबर के हाथों उनकी हत्या करवा दी. उनका सिर काबुल भेज दिया गया और धड़ दिल्ली में किले के द्वार पर लटका दिया. इसके बाद दिल्ली में अकबर ने भयानक नरसंहार रचा और मृत सैनिकों तथा नागरिकों के सिर का टीला बनाया. हेमू के पुतले में बारूद भरकर उसका दहन किया गया. फिर अकबर ने हेमू की समस्त सम्पत्ति के साथ आगरा पर भी अधिकार कर लिया. इस युद्ध के दौरान दुर्घटनावश यदि उनकी और उनके हाथी की आँख में तीर न लगा होता तो मुगलिया सल्तनत और विदेशी आक्रांताओं का उसी समय समूल नाश हो गया होता.
इस प्रकार साधारण परिवार का होते हुए भी हेमचंद्र ने 22 युद्ध जीतकर ‘विक्रमादित्य’ उपाधि धारण की और दिल्ली में हिन्दू साम्राज्य स्थापित किया. कई इतिहासकारों ने उन्हें ‘मध्यकालीन भारत का नेपोलियन’, तो अत्यधिक घृणा के कारण मुगलों के चाटुकार इतिहासकारों ने उन्हें ‘हेमू बक्काल’ कहा है.