नई दिल्ली. भारतीय कुश्ती को विश्व भर में सम्मान दिलाने वाले मास्टर चंदगीराम जी का जन्म 09 नवम्बर, 1937 को ग्राम सिसई, जिला हिसार, हरियाणा में हुआ था. मैट्रिक और फिर उसके बाद कला एवं शिल्प में डिप्लोमा लेने के बाद वे भारतीय थलसेना की जाट रेजिमेण्ट में एक सिपाही के रूप में भर्ती हो गये. कुछ समय वहां काम करने के बाद वे एक विद्यालय में कला अध्यापक बन गये. तब से ही उनके नाम के साथ मास्टर लिखा जाने लगा.
कुश्ती के प्रति चंदगीराम जी की रुचि बचपन से ही थी. हरियाणा के गांवों में सुबह और शाम को अखाड़ों में जाकर व्यायाम करने और कुश्ती लड़ने की परम्परा रही है. चंदगीराम जी को प्रसिद्धि तब मिली, जब वर्ष 1961 में अजमेर और वर्ष 1962 में जालंधर की कुश्ती प्रतियोगिता में राष्ट्रीय चैम्पियन बने. इसके बाद तो वे हर प्रतियोगिता को जीत कर ही वापस आये. कलाई पकड़ उनका प्रिय दांव था. इसमें प्रतिद्वन्दी की कलाई पकड़कर उसे चित किया जाता है. चंदगीराम ने हिन्द केसरी, भारत केसरी, भारत भीम, महाभारत केसरी, रुस्तम ए हिन्द जैसे कुश्ती के सभी पुरस्कार अपनी झोली में डाले. वर्ष 1970 में उनका नाम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ, जब वे बैंकाक एशियाई खेल में भाग लेने गये. वहां 100 किलो वर्ग में उनका सामना तत्कालीन विश्व चैम्पियन ईरान के अमवानी अबुइफाजी से हुआ. अमवानी डीलडौल में चंदगीराम से सवाया था, पर चंदगीराम ने अपने प्रिय दांव का प्रयोग कर उसकी कलाई पकड़ ली. अमवानी ने बहुत प्रयास किया, पर चंदगीराम ने कलाई नहीं छोड़ी. इससे वह हतोत्साहित हो गया और चंदगीराम ने मौका पाकर उसे धरती सुंघा दी. इस प्रकार उन्होंने स्वर्ण पदक जीत कर भारत का मस्तक ऊंचा किया.
इसके बाद चंदगीराम वर्ष 1972 के म्यूनिख ओलम्पिक में भी गये, पर वहां उन्हें ऐसी सफलता नहीं मिली. भारत सरकार ने वर्ष 1969 में उन्हें ‘अर्जुन पुरस्कार’ और वर्ष 1971 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया. इसके बाद चंदगीराम ने कुश्ती लड़ना तो छोड़ दिया, पर दिल्ली में यमुना तट पर अखाड़ा स्थापित कर वे नयी पीढ़ी को कुश्ती के लिए तैयार करने लगे. कुछ ही समय में यह अखाड़ा प्रसिद्ध हो गया. उनके अनेक शिष्यों ने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में पदक जीतकर अपने गुरू के सम्मान में वृद्धि की. अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में लड़कियों की कुश्ती प्रतियोगिता भी होती थी. पर, भारत का प्रतिनिधित्व वहां नहीं होता था. चंदगीराम ने इस दिशा में भी कुछ करने की ठानी, उनके इस विचार को अधिक समर्थन नहीं मिला. इस पर उन्होंने अपनी पुत्री सोनिका कालीरमन को ही कुश्ती सिखाकर एक श्रेष्ठ पहलवान बना दिया. उसने भी दोहा के एशियाई खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया. धीरे-धीरे अन्य लड़कियां भी कुश्ती में आगे आने लगीं. उन्होंने अपने पुत्र जगदीश कालीरमन को भी कुश्ती का अच्छा खिलाड़ी बनाया.
हरियाणा शासन ने कुश्ती एवं अन्य भारतीय खेलों को प्रोत्साहन देने के लिए चंदगीराम को खेल विभाग का सहसचिव नियुक्त किया. आगे चलकर उन्होंने ‘वीर घटोत्कच’ और ‘टार्जन’ नामक फिल्मों में भी काम किया. उन्होंने ‘भारतीय कुश्ती के दांवपेंच’ नामक एक पुस्तक भी लिखी. सिर पर सदा हरियाणवी पगड़ी पहनने वाले चंदगीराम जीवन भर कुश्ती को समर्पित रहे. वर्ष 1970 से पूर्व तक भारतीय कुश्ती की विश्व में कोई पहचान नहीं थी. पर चंदगीराम ने इस कमी को पूरा किया. 29 जून, 2010 को अपने अखाड़े में ही हृदयगति रुकने से इस महान खिलाड़ी का देहांत हुआ.