छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के 350 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में जनपथ (नई दिल्ली) स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) में एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया है. आईजीएनसीए की दर्शनम् कला दीर्घा में आयोजित प्रदर्शनी का शुभारंभ विजयादशमी (12 अक्तूबर) को हुआ, जो 30 अक्तूबर तक चलेगी. पुणे के कोर हैरिटेज और आईजीएनसीए के संयुक्त तत्वाधान में शिवाजी महाराज के अस्त्र-शस्त्रों की प्रदर्शनी का आयोजन किया गया है.
कोर हैरिटेज एक गैर-लाभकारी संगठन है, जो भारतीय इतिहास, संस्कृति व विरासत के संरक्षण के लिए प्राच्य शोध और शैक्षिक केंद्र के रूप में कार्य करता है. यह संग्रहालय, सांस्कृतिक विरासत व संरक्षण के क्षेत्र में प्रदर्शनियों, कार्यशालाओं व विभिन्न अन्य माध्यमों से प्रयोगात्मक शिक्षा के जरिये इतिहास की शिक्षा प्रदान करता है. संस्था के प्रमुख राकेश राव एक म्यूजियोलॉजिस्ट (संग्रहालय विज्ञानी), टैक्सीडर्मिस्ट, वरिष्ठ वस्तु संरक्षक और शोधकर्ता हैं.
प्रदर्शनी में शिवाजी के महत्वपूर्ण अस्त्र-शस्त्र जैसे- वाघ नख, बिछुआ, तीर-धनुष, धोप, तलवार, सिक्का कटियार (कटार), कवच और मज्जल लॉक वाली बंदूक जैसे ऐतिहासिक हथियार प्रदर्शित किए गए हैं.
शिवाजी के वाघ-नख से जुड़ा एक रोचक प्रकरण हमने सुना ही होगा. प्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने लिखा है कि बीजापुर की आदिलशाही सल्तनत के सेनापति अफजल खां ने शिवाजी को देखते ही गले लगाया. जैसे ही शिवाजी उसके गले लगे, अफजल खां ने उनकी गर्दन को अपनी बांहों में जकड़ लिया और कटार से उन पर हमला किया. लेकिन शिवाजी ने फुर्ती से अफजल की कमर को जकड़ लिया और उसके पेट में अपना बघनखा यानी वाघ-नख भोंक दिया, जिसे वे उंगलियों में पहनते थे. अफजल खां के मरने के बाद सेना बदहवास हो गई और मराठा सैनिकों ने संख्या में कम होने के बावजूद उन्हें बुरी तरह पराजित किया. शत्रु सेना को आत्मसमर्पण करना पड़ा. शिवाजी कालीन (1600-1674 ई.) अस्त्र-शस्त्रों की प्रदर्शनी मराठों के युद्ध कौशल, युद्ध तकनीक और रणनीतिक सूझ-बूझ का जीवंत चित्र पेश करती है.
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शिवाजी महाराज और मराठों ने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया. उनकी युद्ध तकनीकें और छापामार (गणिमी कावा) युद्ध कला उनके हथियारों की क्षमता और उपयुक्तता पर भी निर्भर करती थीं. शिवाजी ने अपने छापामार युद्ध में हल्के और उपयोगी हथियारों का विशेष रूप से प्रयुक्त किया. युद्ध में मराठों ने न केवल अपने पारंपरिक अस्त्र-शस्त्र प्रयोग किए, बल्कि आवश्यकता के अनुसार इस्लामी और यूरोपीय हथियारों का उपयोग भी सुधार के साथ किया. मराठा सैनिक तीर-धनुष जैसे पारंपरिक अस्त्र का प्रयोग दूर से हमला करने के लिए करते थे. ‘उंबरखिंड’ का युद्ध 3 फरवरी, 1661 को महाराष्ट्र के खोपोली शहर के पास सह्याद्रि पर्वत शृंखला में हुआ था. औरंगजेब के आदेश पर शायस्ता खान ने करतलब खान और राय बागन को राजगढ़ किले पर हमले के लिए भेजा था. शिवाजी की 4,000-5,000 सेना ने उंबरखिंड की पहाड़ियों के जंगल में छापामार युद्ध में तीर-धनुष का प्रयोग कर मुगलों के 35,000 सैनिकों को खदेड़ दिया.
प्रदर्शनी के मुख्य आकर्षण में ‘धोप’ (एक सीधी घुड़सवार तलवार) है, जिसे छत्रपति शिवाजी ने हंबीरराव मोहिते को भेंट किया था. अपने विशिष्ट शिल्प कौशल के लिए जानी जाने वाली इस तलवार को सोने से जड़ा गया है. वहीं, गुर्ज का प्रयोग ढाल और कवच को भेद कर शत्रु को शारीरिक रूप से गंभीर नुकसान पहुंचाने में समर्थ था. कहा जाता है कि इसे शिवाजी महाराज ने अपने सेनापति को उपहार में दिया था. ‘मज्जल लॉक वाली बंदूक‘ को हाथी दांत और सोने-चांदी से सजाया गया है, जबकि ‘सिक्का कटियार’ में सोने का विस्तृत काम है. इसमें एक बुलेटप्रूफ ढाल भी है, जो गोली से रक्षा करती थी. इसमें अभी भी एक बुलेट फंसी हुई है. ये दुर्लभ शस्त्रास्त्र हैं, क्योंकि इनमें से कुछ तो राष्ट्रीय संग्रहालय के शस्त्रागार में भी नहीं दिखते.
इस संग्रह में महिला योद्धाओं और बाल वीरों के लिए डिजाइन कवच, छोटी बंदूकें और तलवारें भी हैं, जो आत्मरक्षा के लिए बनाए जाते थे. इसके अलावा, प्रदर्शनी में बकरी और भेड़ के बालों से बना एक अनूठा शिरस्त्राण (हेडगियर) गुगी भी है, जिसे वैज्ञानिक रूप से गेहूं के आटे से मजबूत किया जाता था. यह तलवार के वार से सिर और गर्दन की रक्षा करता था. यहां तक कि फसल काटने वाली दरांती और खेत से पशुओं को भगाने वाली रस्सी से बने हथियार भी मराठों ने ही पहली बार प्रयोग किये थे. इस रस्सी का उपयोग वे शत्रुओं पर दूर से पत्थर बरसाने के लिए गुलेल की तरह करते थे.