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अमृत महोत्सव – स्वाधीनता संग्राम के अनाम योद्धा हरिगोपाल बल

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संकटों में देख माँ को पुत्र क्यों ना क्रुद्ध हो,

क्या अवस्था अर्थ रखती छिड़ चुका जब युद्ध हो.

बंगाल में ‘मास्टर दा’ के नाम से विख्यात सूर्यसेन ने देखा कि कांग्रेस के 43वें राष्ट्रीय अधिवेशन के अवसर पर सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में गणवेश पहने सात हजार स्वयंसेवक कैसे अनुशासित ढंग से पथ-संचलन (मार्च पास्ट) कर रहे थे. मास्टर दा अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ कुछ समय पहले क्रांति गतिविधियां त्याग काँग्रेस में आ चुके थे, पर सुभाष बाबू के सैन्य संचलन ने उन्हें ऐसा मोहा कि वे स्वयं एक वैसी सेना बनाने का निश्चय कर बैठे.

मास्टर दा द्वारा गठित इस ‘इंडियन रिपब्लिकन आर्मी’ के लिए नवयुवकों का चयन कठोर परीक्षा के बाद ही किया जाता था. उनका मानना था कि अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए अंग्रेज़ों से ही हथियार लूटे जाएं. चटगाँव की प्रसिद्ध शस्त्रागार की लूट इसी योजना का परिणाम थी. इस हेतु चुने गए पैंसठ बलवान एवं साहसी युवकों का नेतृत्वकर्ता था, लोकनाथ बल.

28 अप्रैल, 1930 को कार्य को पूरा करने की योजना थी. सभी को निजाम पलटन के प्रांगण में बुलाया गया था. सैनिक वेश में लोकनाथ सावधानी से, सबकी दृष्टि से बचते हुए वहाँ पहुँचा तो यह देखकर दंग रह गया कि उसके पीछे-पीछे उस का तेरह वर्ष का भाई हरिगोपाल भी आया है. यद्यपि वह जानता था कि यह बालक क्रांतिकारियों के कामों में बहुत रुचि रखता है. वह कोई भी अवसर नहीं खोता था, जहाँ उसकी कोई भूमिका हो सके. बड़ा हठीला और निर्भय, वह सदैव कोई बड़ा कारनामा कर अंग्रेज़ों को छकाना चाहता था. लेकिन वह अभी तेरह वर्ष का ही था, अतः छोटा कहकर लोकनाथ उसकी ओर ध्यान नहीं देते थे.

“यह कोई खेल का मैदान नहीं है. जाओ, तुरंत लौट जाओ यहाँ से.” लोकनाथ बड़ा भाई ही नहीं, दल का नायक भी था. उसने डपटा.

“जानता हूँ. मैं भी खेलने नहीं लड़ने ही आया हूँ आपके साथ. आप न ले जाना, चाहे तो मेरा सिर काट दीजिए”, हरि का अडिग उत्तर था. उसका हठ पूरा हुआ. शस्त्रागार की लूट सफल रही. आगामी योजना चटगाँव से अंग्रेज़ों का सफाया कर देने की थी.

उधर, चार दिन बाद ही दो हजार अंग्रेज़ी सैनिक चटगाँव पहुंच गए थे. मास्टर दा का दल पास ही जलालाबाद की पहाड़ी पर घिर गया था. छोटी-छोटी टुकड़ियों में दल के साहसी युवक शस्त्रागार एवं अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर तैयार थे. सूर्यसेन चुने हुए 50 सदस्यों के साथ पहाड़ी पर मोर्चा जमाए बैठे थे.

22 अप्रैल…. युद्ध छिड़ ही गया. नेतृत्व लोकनाथ के कंधों पर था. सूर्यसेन पीछे की पंक्ति में रहकर साहस दिला रहे थे. चमत्कार तो हरिगोपाल ने दिखाया. भूमि पर रेंगते हुए कोहनियों के बल चल कर वह अपने दल से बहुत आगे शत्रु दल के एकदम पास जा पहुंचा और एक बड़ी चट्टान की ओट से अंग्रेज़ों को चुन-चुन कर मारने लगा. वह गिन रहा था – एक मरा, दूसरा गया, तीसरा टपका, चौथा गिरा, पाँचवां भी और यह छटा. उसका साहस अतुलनीय था. घबराए अंग्रेज़ों ने उसे चारों ओर से घेर कर ऐसे मारा जैसे दुष्ट कौरवों ने अकेले अभिमन्यु को घेर कर वध किया था. महाभारत का वह प्रसंग जैसे नए परिवेश में पुनः प्रस्तुत था. अन्ततः शत्रु पर पहला और प्रभावी प्रहार कर उसने अपने दल में अपने औचित्य पर मुहर लगा दी थी. वह इस युद्ध का पहला बलिदानी बना.

लोकनाथ बहुत गर्वित भी था और अत्यधिक क्रोधित भी. उसकी उस अग्र पंक्ति की मारकाट से घबराकर अंग्रेज़ों ने पीछे की पंक्ति, जिसे सूर्यसेन सम्हाल रहे थे, पर धावा किया. मास्टर दा के साथ कई वीर बालक भी थे. तेरह वर्ष का निर्मल लाला, जिसने अकेले पाँच अंग्रेज़ों को मृत्यु के मार्ग पर भेज दिया और बलिदान होकर मानों उनके पीछे दौड़ पड़ा. सोलह-सत्रह वर्ष की आयु वर्ग के कई किशोर – त्रिपुर सेन, नरेश राय, मधुसूदन दत्त, प्रभासबल, अर्द्धेन्दु दस्तीदार आदि इसी दल के अमर बलिदानी बने.

रात हो चली तो क्रान्तिकारी लड़ते-लड़ते ही धीरे से वहाँ से ओझल हो गए. प्रातः अंग्रेज़ गिरे हुए शवों की गिनती कर रहे थे – ‘क्रान्तिकारी दस और अंग्रेज़ एक सौ साठ.’ मतलब, एक-एक वीर ने सोलह-सोलह के औसत से शत्रुओं को मार गिराया. इन्हीं दस शवों में तेरह से सत्रह वर्ष की आयु के बाल योद्धा शान से लेटे हुए थे, सदा के लिए, अपनी भारत माता की गोद में.

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