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अमृत महोत्सव – सशस्त्र क्रान्ति के नायक लहूजी साल्वे

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भारत में यदि दासता की अंधकार अवधि संसार में सबसे अधिक रही है तो स्वाधीनता के लिये भारतीय जनों का संघर्ष और बलिदान भी सर्वाधिक रहा है. लगभग बारह सौ साल के संघर्ष में लाखों बलिदान हुए, ऐसे ही एक बलिदानी वीर हैं लहूजी साल्वे.

उनका संघर्ष सत्ता के लिये या सत्ता में भागीदरी के लिये नहीं था. उन्होंने राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिये अपना जीवन समर्पित किया. उनके आदर्श छत्रपति शिवाजी महाराज थे, उन्हीं के संघर्ष की प्रेरणा लेकर आगे बढ़े. लहूजी के संघर्ष का उल्लेख लोकमान्य तिलक जी ने भी किया है.

लहूजी का जन्म 14 नवम्बर, 1794 को महाराष्ट्र के एक स्वराज्यनिष्ठ परिवार में हुआ. उनके पूर्वजों ने छत्रपति शिवाजी महाराज के हिन्दु पदपादशाही स्थापना अभियान में सहभागिता की थी. अतःएव लहूजी को बचपन से ही परिवार के संस्कार में स्वराष्ट्र का संदेश मिला. उनके पिता राघोजी और माता विठाबाई का जीवन भी संस्कृति के लिये समर्पित रहा. परिवार महाराष्ट्र के पुणे जिला अंतर्गत पुरन्दर किले की तलहटी में बसे पेठ गाँव के निवासी था. उनके पूर्वजों ने इसी किले की सुरक्षा में अपने प्राणों का बलिदान दिया था. परिस्थितियां बदलीं, मराठा साम्राज्य का पतन हुआ और अंग्रेजों का शोषण आरंभ हो गया. स्वदेशी के लिये कुछ लोग अपने प्राण बचाने या लोभ लालच में अंग्रेजों के साथ हो गए, परिणाम शोषण का एक दौर आरंभ हुआ. जिससे गावों में भुखमरी जैसी स्थिति भी उत्पन्न हो गयी.

इस परिवार के सामने तीन मार्ग थे, एक अंग्रेजों का दासत्व स्वीकार कर अपने ही लोगों का शोषण करने के अभियान में सम्मिलित हो जाना, दूसरा चुपचाप सब सहना और तीसरा संघर्ष के लिये लोगों को जाग्रत करना, इस परिवार ने तीसरा मार्ग अपनाया. उन्होंने एक टोली बनाई और शिवाजी महाराज के संघर्ष और शौर्य के गीत बनाकर गाँव-गाँव सुनाना आरंभ किये. शिवाजी के शौर्य पराक्रम और वीरता प्रसंगों से समाज में चेतना जागी, नौजवान संघर्ष के लिये आगे आने लगे. इनमें लहूजी भी एक थे. उन्होंने किशोरवय में ही स्वराज्य के लिए संघर्ष करने का संकल्प लिया. उनके संकल्प को पिता राघोजी ने आगे बढ़ाया और लहूजी को अस्त्र-शस्त्र संचालन सिखाना आरंभ कर दिया, लहूजी शीघ्र ही तलवार और परंपरागत पट्टा चलाने के साथ बंदूक चलाना भी सीगए. उन्होंने पुणे क्षेत्र में अंग्रेजों द्वारा मराठों को दी गयीं प्रताड़ना का विवरण भी सुना था. वह 1817 की बातें थीं, जब अंग्रेजों और मराठों का अंतिम युद्ध हुआ था. मराठों की पराजय के बाद अंग्रेजों ने तत्कालीन पेशवा सहित हजारों लोगों को यातनाएं दी थीं, इनमें लहूजी के पूर्वज भी थे.

इन विवरणों को सुनकर लहूजी का संकल्प और दृढ़ हुआ, उन्होंने सह्याद्रि की पहाड़ियों में बसे गाँवों के युवकों को एकत्र कर उनकी एक मजबूत सेना बनायी. अस्त्र-शस्त्र एकत्र किये और अंग्रेज छावनियों पर धावा बोलना शुरू कर दिया. 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष में सह्याद्रि क्षेत्र में सबसे अधिक संघर्ष लहू जी साल्वे की टोली ने किया, क्रांति की असफलता के बाद लहूजी अज्ञातवास में चले गये और अज्ञातवास के दौरान ही उन्होंने 17 फरवरी, 1881 को संसार से विदा ली.

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