विजय मनोहर तिवारी
एक डाक टिकट जारी हुआ है. कागज के इस टुकड़े में एक चेहरा नुमाया है. वह किसी देहाती जैसा है. गांव का कोई छोटी जोत का किसान. जैसे खाट पर हुक्का गुड़गुड़ाते हुए दादाजी को किसी ने फोटो खींचने के लिए कैमरे के सामने बैठा लिया हो और वह हुक्का बगल में सरकाकर मुस्कराने की कोशिश कर रहे हों. मूंछों ने मुस्कान को ढक लिया है. निश्छल आंखों से पकी हुई उम्र के तजुर्बे झांक रहे हैं. इस आदरणीय बुजुर्गवार का परिचय है – ‘सबके मामाजी.’
माणिकचंद्र वाजपेयी को उनके इस असल नाम से कम और मामाजी के प्रिय संबोधन से ही ज्यादा लोग जानते आए हैं. वे आज की खबर नहीं हैं. उन्हें संसार से विदा हुए ही 15 साल हो गए. कौन किसे इतने दिन बाद याद रखता है? लेकिन मामाजी पूरे साल देश भर में याद किए गए. भोपाल के मिंटो हॉल में जारी डाक टिकट उनकी स्मरण श्रृंखला का पूर्णाहुति प्रसंग ही था.
उत्तरप्रदेश ने सिर्फ प्रधानमंत्रियों का परिवार ही नहीं दिया. वहां के एक गांव ने दो वाजपेयी भी पैदा किए थे. माणिकचंद्र वाजपेयी और अटलबिहारी वाजपेयी. उत्तरप्रदेश में आगरा जिले का बटेश्वर गांव. दोनों के बीच समानता यही है कि नियति ने उन्हें एक ही विचार कुल की ओर प्रेरित किया. माणिकचंद्र वाजपेयी 1919 में जन्मे थे. यानि देश के बटवारे के समय उनकी उम्र 28 साल रही होगी. वे कांग्रेस में गांधी-नेहरू के चरचराटे के उस दौर में एक ऐसे संगठन (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) से जुड़े, जिसका रास्ता कुछ ज्यादा ही टेढ़ा, ऊबड़खबाड़, कठिन और खतरों से भरा हुआ था. आजादी के बाद तो और भी ज्यादा.
वाजपेयी जी के कई रूप हैं. संघ के प्रचारक का रूप. अखबारों में संपादक की भूमिका. ग्वालियर से लेकर इंदौर तक अखबारी दुनिया में सक्रियता. प्रखर लेखनी तो उनकी पहचान थी ही. संघ ने ट्रैफिक राजनीति की तरफ मोड़ दिया तो परिचय में यह भी जुड़ गया कि नरसिंहराव दीक्षित के खिलाफ विधानसभा और राजमाता विजयाराजे सिंधिया के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ गए. सादा जीवन उच्च विचार की बात खद्दरधारी नेताओं के भाषणों में सबने सुनीं थीं, लेकिन माणिकचंद्र वाजपेयी संघ के उन लाखों स्वयंसेवकों में से थे, जिनके जीवन में सादगी जन्मजात थी, ओढ़ी हुई नहीं. तकरीरों में नहीं, उनके डीएनए में.
एक झोला. झोले में सूती धोती कुर्ता, डायरी, किताब, कलम, चश्मा. ताउम्र ट्रेनों के तीसरे दरजे के यात्री. शहरों में बसों और टेम्पो की धक्कमपेल में नजर आने वाले. वो कौन सा सपना था, जो उन्हें ऐसे जीवन की तरफ लेकर आया था? राष्ट्र की सेवा ही अगर उनका लक्ष्य थी तो वे कांग्रेस में क्यों नहीं गए? फिर तो यह उचित था कि बापू और नेहरू उन्हें आकर्षित करते और आजादी के बाद एक शानदार शेरवानी में लाल-सफेद गुलाब खोंसकर वे भी आगरा से चुनाव लड़कर पहले प्रधानमंत्री की कैबिनेट में एक मेधावी युवा चेहरा होते. अगर ऐसा होता तो कौन याद रखता और याद रखने लायक भी क्या होता. तब उनकी यादें आगरे तक सीमित सालाना जलसों में होतीं, जिसका कानपुर और लखनऊ वालों को भी पता नहीं होता. लेकिन आज उनके जन्म के सौ साल बाद कोई ऐरा-गैरा उनका नाम लेते हुए भी यह जानता है कि उसकी औकात नहीं है कि वह माणिकचंद्र वाजपेयी का नाम अपनी जुबान पर लाए!
मैं इतने में ही खुद को भाग्यशाली मानता हूं कि मेरा उनका नाता दर्शन मात्र का है. वे इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष रहे थे और उनके बरसों बाद मैं एक साधारण सदस्य, जिसे अपनी पत्रकारिता की शुरुआती कक्षाओं में ही उनके दीदार का मौका मिला था. वे उस दौर के संपादक थे, जिनके बारे में आज की डिजीटल पीढ़ी को यकीन ही न होगा. वे उन संपादकों में से नहीं थे, जो निष्पक्षता की चादर ओढ़कर अखबारों और अब चैनलों में चलते हैं. आप किससे निष्पक्ष हो सकते हैं? क्या आप राष्ट्र से निरपेक्ष हो सकते हैं? आपको एक नजरिया रखना ही होगा. बीच का कोई रास्ता होता नहीं है.
मैं अक्सर सोचता हूं कि माणिकचंद्र वाजपेयी ने आजादी के पहले क्या सोचकर कांग्रेस में जाने की बजाय कांटों से भरा एक गुमनाम सा रास्ता चुना होगा? आखिर वे अपने आसपास क्या घटता हुआ देख रहे थे, जिसने उन्हें हिंदुत्व के विचार की तरफ आकर्षित किया? जहां रास्ता ही रास्ता था, मंजिल सिर्फ विचार में थी और रास्ते में कदम-कदम पर ठोकरें थीं, उलाहने थे, पाबंदियां थीं, तोहमतें थीं, जो उन्हें उम्र भर भोगनी थीं.
आजादी के साथ टूटा हुआ देश जिस रास्ते पर ले जाया गया, उसे जरूर माणिकचंद्र वाजपेयी ठिठक-ठिठककर देखते होंगे. नेहरू के करिश्माई नेतृत्व में आगे बढ़ते हुए भारत को देखकर देहाती बनक वाले जागृत ब्राह्मण को निस्संदेह अपने चुने हुए कांटों भरे रास्ते पर चलने का दोगुना उत्साह और ऊर्जा मिलती रही होगी. पाकिस्तान नक्शे पर आ चुका था और कश्मीर पाकिस्तान बनाए जाने की तरफ धकेला जा चुका था. नेहरू के आभामंडल में देश ही दब गया था. मनगढ़ंत दूषित इतिहास की रचना में मुगल महान थे और आखिर में नेहरू परदे पर अवतरित देवपुरुष थे. माणिकचंद्र वाजपेयी ने नेहरू की बेटी के आपातकाल में जब जिंदगी के कीमती साल जेल में काटे होंगे, तब तो पक्का यकीन आया होगा कि वे बिल्कुल सही रास्ते पर हैं.
आज दिल्ली में दो तिहाई बहुमत की सरकार जिस मजबूत नींव पर खड़ी है, उसकी नींव में पड़ी लाखों शिलाओं में से एक का नाम है माणिकचंद्र वाजपेयी. ऐसे अनगिनत माणिक होंगे, जिनके नाम भी किसी को नहीं पता. साल 2005 में जब माणिकचंद्र वाजपेयी ने देह छोड़ी, तब उनके ही गांव के एक दूसरे वजनदार वाजपेयी पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी मुंबई में थे. शिवराज सिंह चौहान ने उनकी आंखों से झर-झर आंसू गिरते हुए देखे. जो विकट परिस्थितियों में भी कभी विचलित नहीं हुए, ऐसे अटल बिहारी को माणिकचंद्र वाजपेयी के निधन की खबर ने रुला दिया था.
आखिर ऐसा क्या था उनमें? कप्तान सिंह सोलंकी दसवीं की परीक्षा में अव्वल नंबर पर आए तब माणिकचंद्र वाजपेयी भिंड में संघ का काम करते थे. दूर-दूर तक कोई परिचय नहीं था. लेकिन गांव के एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी को अब ग्वालियर जाकर पढ़ना चाहिए, इसका पूरा इंतजाम वे कर रहे थे. कप्तान सिंह सोलंकी जानते हैं और विनम्रता से मानते हैं कि अगर उस समय वह दिशा न मिली होती तो कप्तानी सिर्फ नाम में ही रह जाती.
श्रीधर पराडकर को वह किताब याद है, जो 7000 लोगों के साक्षात्कारों के आधार पर माणिकचंद्र वाजपेयी ने लिखी थी. ये वो लोग थे, जो देश का बटवारा होने पर सरहद पार से लुट-पिटकर भारत आए थे. ये उन लोगों की आपबीतियां थीं, जिन्हें आजादी के जश्न में डूबे देश ने हाशिए पर रख छोड़ा था और पृष्ठभूमि में गांधी-नेहरू के शानदार गीत बज रहे थे. देश के टुकड़े होने के 56 साल बाद इन कहानियों के पात्रों की जिंदगी में झांकते हुए जरूर माणिकचंद्र वाजपेयी ने उस घड़ी को प्रणाम किया होगा, जब संघ की छाया में आने का निर्णय उन्होंने लिया.
राजनीतिक ताकत जब दुष्ट बुद्धियों के हाथ होती है तो माणिकचंद्र वाजपेयी का नाम एक पुरस्कार पर भी बर्दाश्त नहीं करती. राष्ट्र को समर्पित सादगी की प्रतिमूर्ति सिर्फ इसलिए परहेज की पात्र हो जाती है क्योंकि वह एक विचारधारा विशेष के आदमी थे. हिंदुत्व के विचारकुल में होने मात्र से आदमी दुत्कारे जाने लायक हो गया. और यह मजाक तब हुआ जब देश की जनता एक सिरे से उन्हें दुत्कार चुकी है, जो आजादी की लड़ाई में अपने पुरखों के योगदान की खुरचन खरोंच-खरोंचकर सत्ता का मजा लूटते रहे थे.
उनकी जमातें आज भी घात लगाकर लोकतंत्र की शाखों पर बैठी गर्दनें घुमा रही हैं और हाल ही में जारी हुए एक डाक टिकट पर माणिकचंद्र वाजपेयी मुस्करा रहे हैं…..