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मतांतरित समूहों पर बाबा कार्तिक उरांव – मतांतरण करने वाले लोगों को अनुसूचित जनजाति के अधिकार नहीं मिलने चाहिए

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भारत के 8 करोड़ से अधिक का जनजाति समाज (जनगणना के अनुसार तो जनसंख्या 10 करोड़ है, परंतु संभवतः 2 करोड़ लोग तो धर्मांतरित हैं) आज भी शिक्षा एवं सामाजिक सम्पर्क के अभाव में संविधान प्रदत्त सभी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है.

परिणामस्वरूप अपने देश की महान प्राचीन जनजातियां जिन्होंने आजादी की लड़ाई में भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया, गांधी जी के रामराज्य के सुख एवं सामाजिक सम्मान से आज भी वंचित हैं.

संविधान सभा द्वारा इच्छित आरक्षण एवं सुविधाओं का जनजाति समाज को लाभ न मिल पाने का प्रमुख कारण है “जनजाति से अलग होने वाले धर्मान्तरित व्यक्तियों द्वारा उन सुविधाओं का अत्यधिक लाभ उठाना.”

जनजाति समाज के वे लोग जो धर्मांन्तरित होकर इसाई या मुस्लिम बन गए हैं, वे ही इसका तकरीबन पूरा लाभ ले रहे हैं और 80% से अधिक मूल जनजाति जनसंख्या आज भी वंचित-शोषित की तरह दो जून की दाल-रोटी और सम्मानपूर्ण जीवन के लिए संघर्षरत है.

भारत में अनेक परिवर्तन देखा है और परिवर्तन का कार्य तो जारी ही है, किन्तु जनजातियों के जीवन में परिवर्तन नहीं हुआ. परिवर्तन इतना ही हुआ कि जो उनके पास था, वह भी खोया और पाया कुछ नहीं.

मैं इसका दोष किसी को देना नहीं चाहता, किन्तु जनजाति समाज खुद इसके लिए जिम्मेदार है. सरकार को मैं इतना ही कह सकता हूं कि उन्होंने न्याय नहीं किया, किन्तु न्याय तो किसी को दिया नहीं जाता. वह तो लिया जाता है. हमने लिया ही नहीं.

हर जनजाति इसे अच्छी तरह जान ले कि उनके कल्याण के लिये उसे स्वयं संघर्ष करना पड़ेगा. यह बात सही है कि किसी भी समाज का निर्माण देश के विधेयक से नहीं हो सकता.

जनजातियों ने सदा से ही कांग्रेस का विरोध किया. कांग्रेस ने जनजातियों के लिये क्या किया और ईसाईयों के लिए क्या किया – “बीस वर्ष की काली रात” इसकी साक्षी है. मैं स्वयं एक कांग्रेसी हूं और यह मान कर चलता हूँ कि जिस कांग्रेस पार्टी में किसी समाज को बर्बाद करने की क्षमता है, उसी पार्टी के दिमाग से उस लड़खड़ाते जनजाति समाज का निर्माण भी हो सकता है.

याद रहे कि नागालैंड के 44.33% निरिह जनजाति और मेघालय के 55.87% असहाय जनजाति, अपनी संस्कृति-सभ्यता, परम्परा और धर्म को ज्यादा दिनों निभा सकेंगे. धर्मनिर्पेक्षता तो है, लेकिन जनजातियों के लिये नहीं.

इतिहास के पन्ने बताएंगे कि अंग्रेज राज्य के 150 वर्षों में ईसाई मिशनरियों से इतना धर्म परिवर्तन नहीं हुआ, जितना आजादी मिलने पर गत 23 वर्षों में हुआ. 1947 ई. में मणिपुर में 7% जनजाति ईसाई थे, लेकिन यह संख्या आज बढ़कर 70% हो गयी. आजादी अगर मिली है तो ईसाई मिशनरियों को.

भारत के अन्य भागों में धर्म परिवर्तन के कार्य में काफी प्रगति हुई है. उनका दावा है कि संविधान की धारा 15(1) के अनुसार धर्म, कुटुम्ब, भाषा, जाति, लिंग, उत्पति के स्थान या इनमें से किसी के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिये. लेकिन भेदभाव तो इनके आधार पर नहीं है. संविधान में तो ईसाई लोगों के लिये अनुसूचित जनजाति की सूची में कोई स्थान ही नहीं है.

गृह मंत्रालय की एक विज्ञप्ति के आधार पर धर्म, कुटुम्ब, जाति के सम्बन्ध में भी भेदभाव किये जा सकते हैं, लेकिन वह केवल अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिये. (गृह मंत्रालय की विज्ञप्ति संख्या 42/21/89 एन.जी.एस. नई दिल्ली, दिनांक 13, 1950 पढ़ें.)

संविधान की 15 (1) धारा की आड़ में तो केवल धर्म परिवर्तन ही हो रहा है. लेकिन धर्मनिर्पेक्षता तो धार्मिक विषय को लेकर साम्प्रदायिक तनाव को बन्द करने लिये बनायी गयी है. मैं पाठकों का ध्यान रोमन कैथोलिक मिशन की पत्रिका ‘ट्रिबून’ जून 1970 की उन पंक्तियों की ओर खींचना चाहता हूँ, जिसमें उन्होंने अपनी नियत की खुलेआम चर्चा की है. उन्होंने कहा है कि अनुसूचित जनजाति की सूची में न रहने देने से उनके धर्म प्रकाशन एवं प्रसारण में बाधा होगी. क्या अनुसूचित करण धर्म प्रचार के लिये हुआ है?

मूल बात यही है कि यदि कोई जनजाति व्यक्ति ईसाई या इस्लाम में धर्मान्तरित होता है तो उसे अनुसूचित जनजाति के लिए अयोग्य ठहराया जाना चाहिए.

अंत में हम भारत की जनता को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि भारत के जनजाति किसी भी दृष्टिकोण से कम आजादी प्रिय एवं देशभक्त नहीं हैं. हम किसी के प्रति अन्याय नहीं चाहते हैं और न किसी का हक छीनना चाहतें हैं. हम तो केवल न्याय चाहते हैं. संविधान में दिये गये हक का पूरा हिस्सा हमें चाहिये.

अगर सरकार चाहे तो ईसाई भाइयों को भी पिछड़े ईसाई के रूप में पूरी सहायता दे, लेकिन हमारे नाम की सुविधाएं उन को न मिलें. हमें एक शानदार नागरिक की तरह जीवित रहने के लिये एक मात्र साधन है कि जिस तरह अनुसूचित जातियों को अपनी संस्कृति, सभ्यता, परम्परा और धर्म को बचाने के लिये ऐसा प्रबन्ध है कि जो हिन्दू और सिक्ख धर्म को छोड़ कर किसी अन्य धर्म को ग्रहण कर लेता है, उसे अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं समझा जाता है. जनजातियों के लिये भी इसी प्रकार के संशोधन से उनका भला बन सकता है.

साभार – बीस वर्ष की काली रात, 1970 (पुस्तक)

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