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भारतवासी मूलनिवासी – बालासाहब देशपांडे ने दशकों पहले ही भांप ली थी साजिश, किया था आगाह

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भारत में 700 से अधिक जनजातियां निवास करती हैं, जिनकी जनसंख्या लगभग 10 करोड़ से अधिक है. अपने पारंपरिक ज्ञान के विशाल भंडार के साथ जनजातीय समुदाय सतत विकास का पथ प्रदर्शक रहा है. लेकिन दशकों से षड्यंत्रकारी शक्तियों की कुनितियों और स्वतंत्रता के पश्चात सरकारों के द्वारा अनदेखा किए जाने के कारण जनजाति समाज को अत्यधिक क्षति उठानी पड़ी है.

औपनिवेशिक शासन के दौरान ब्रिटिश ईसाइयों ने जनजाति समूहों को निशाना बनाकर प्रताड़ित किया. ब्रिटिश ईसाइयों ने जनजाति समाज को मुख्यधारा से तोड़ने के लिए पहले तो शिक्षा एवं सेवा के नाम पर मतांतरण का खेल खेला और उसके पश्चात कुछ जनजाति समूहों को सीधे अपराधी घोषित कर दिया.

इसके साथ-साथ ब्रिटिश ईसाइयों ने जनजाति समूहों के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिन्ह लगाना शुरू किया. जैसे पहले उन्हें अबोरिजनल कहा, फिर ट्राइबल कहा और फिर उन्हें आदिवासी कहने लगे. जनजाति समाज को हिन्दू समाज से पूर्णतः पृथक करने की योजना बनाई गई और ब्रिटिश ईसाई इस योजना को पूरा करने में लग गए.

दरअसल, 20वीं शताब्दी की शुरुआत में भी जनजाति समूहों के लिए वनवासी, गिरिवासी या आटविक जैसे शब्दों का उपयोग होता था. लेकिन ब्रिटिश ईसाइयों ने 1930 के दशक से आदिवासी शब्द पर जोर दिया और स्वतंत्रता के बाद भी षड्यंत्रकारी शक्तियों के माध्यम से इस शब्द को प्रचलन में रखा गया.

दरअसल, आदिवासी शब्द का अर्थ होता है कि किसी स्थान पर आदि काल से निवास करने वाला, ऐसे में यदि हम किसी एक वर्ग को आदिवासी कहते हैं तो दूसरा वर्ग स्वतः ही बाहरी हो जाता है. यही कारण था कि जब संविधान सभा में वनवासी समाज के लिए उपयुक्त नाम को लेकर बहस हो रही थी तो इस दौरान वनवासी, गिरिवासी, आदिवासी से लेकर तमाम शब्दों पर चर्चा हुई और परिणाम यह निकला कि इस वर्ग को अनुसूचित जनजाति कहा गया. इसके अलावा संविधान सभा में यह भी कहा गया कि भारत के सभी नागरिक भारत के मूलनिवासी हैं.

बाबासाहेब अंबेडकर से लेकर अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के संस्थापक वनयोगी बालासाहब देशपांडे ने भी इस मूलनिवासी वाली अवधारणा को नकारा है. बालासाहब देशपांडे ने तो कहा था कि भारत के सभी नागरिक यहां के मूलनिवासी हैं.

उनका कहना था कि भारतीय नागरिकों को ‘विजित’ और ‘विजेता’ के वर्गों में बांटना बंद किया जाना चाहिए, यही देश हित में होगा. 20 जुलाई, 1992 को बालासाहब देशपांडे जी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को पत्र लिखकर कहा था कि देश के भीतर और बाहर कुछ ऐसे तत्व एवं ताकतें हैं जो हमारी मातृभूमि को अस्थिर कर टुकड़े करने की योजना बना रहे हैं.

ये षड्यंत्रकारी शक्तियां दलितों, हरिजनों, जनजातियों, अल्पसंख्यकों या पीड़ितों का रहनुमा बनने का दिखावा कर रहे हैं. इसके अलावा ये लोग विदेशी शक्तियों के एजेंट हैं.

उन्होंने अपने पत्र में संयुक्त राष्ट्र द्वारा वैश्विक स्तर पर मूलनिवासी समूहों के लिए किए जा रहे प्रयासों पर भी अपनी बात रखी थी. उन्होंने कहा था कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए जा रहे गंभीर प्रयासों की आड़ में भारत में बैठे जयचंद एवं मीर जफर अत्यंत बेशर्मी से दुनिया के सामने यह प्रचारित कर रहे हैं कि इस देश की जनजातियां और दलित वर्ग ही यहां के मूलनिवासी हैं.

उन्होंने इस बात की ओर भी इंगित किया था कि ऐसे षड्यंत्रकारी लोग भारत के जनजाति एवं दलित वर्ग की तुलना अमेरिका और कनाडा के काले लोगों से करते हैं, और उनका कहना है कि बाकी लोग आक्रमणकारी लोगों की संताने हैं और उन्होंने मूलनिवासियों के साथ अन्याय किया है. ऐसे षड्यंत्रकारी समूह भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज को आक्रमणकारी और अत्याचारी साबित करना चाहते हैं.

बालासाहब ने स्पष्ट कहा था कि भारत में सभी मूलनिवासी हैं. इसके अलावा ईसाई जगत सम्पूर्ण एशियाई समाज में अपनी पैठ बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय साजिश रच रहा है और इसके लिए बड़े पैमाने पर मतांतरण का उपयोग किया जा रहा है.

इस बात का भी उल्लेख किया कि कैसे भारत, बर्मा और इंडोनेशिया में अधिकांश अलगाववादी आंदोलन ‘वर्ल्ड कॉउंसिल ऑफ चर्चेज़’ ने उकसाए हैं. इसके अलावा द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ईसाई जगत और खासकर कैथोलिक चर्च ने विभिन्न देशों में अनेक सम्मेलनों में गैर-ईसाई देशों, जिसमें मुख्यतः एशियाई देश थे, उन्हें ईसाई बनाने का निश्चय किया था.

उन्होंने 1992 में लिखे अपने पत्र में प्रधानमंत्री से निवेदन किया था कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन या यूएन वर्किंग ग्रुप ऑफ इंडिजिनस पॉपुलेशन के मंच पर स्पष्ट रूप से भारत का मत हो कि भारत के सभी नागरिक भारत के मूलनिवासी हैं.

इसी का परिणाम है कि वर्ष 2007 में जब भारत की ओर से अजय मल्होत्रा ने भारत का आधिकारिक मत रखा था, तब उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत में रहने वाले सभी नागरिक भारत के मूलनिवासी हैं. उनका पूर्ण कथन कुछ इस प्रकार है –

A). WGIP इस विषय पर सभी देशों की जटिल परिस्थितियों के कारण आम सहमति बनाने में असफल रहा है.

B). WGIP “इंडिजिनस अथवा मूलनिवासी समुदाय” को परिभाषित करने में असमर्थ रहा है.

C). इस घोषणापत्र का संदर्भ केवल उन राष्ट्रों के लिए है, जहाँ औपनिवेशिक अथवा आक्रमणकारी शक्तियों से संबंधित बहुसंख्यक जनसंख्या के साथ-साथ वहां की मूल (देशज/देशोतपन्न) अल्पसंख्यक जनता भी रहती है. जिसने अभी भी अपनी सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व राजनीतिक पहचान बना कर रखी है, अथवा वो भी इन देशों के अंदर ही किसी अलग भौगोलिक क्षेत्र में रहने को मजबूर हैं.

D). इस घोषणा पत्र के “अपने क्षेत्रीय अधिकारों की मान्यता/Right to self-determination/rule” जैसे उपबंधों का संबंध उन राष्ट्रों के लिए है, जो आज भी विदेशी शक्तियों के अधीन है, ना कि उन संप्रभु राष्ट्रों के जहां विभिन्न समुदाय प्रजातांत्रिक प्रतिनिधित्व के अनुसार शासित हैं. ऐसे उपबंध इन राष्ट्रों की भौगोलिक एकता (अखंडता) को कमजोर करते हैं.

E). इस घोषणा पत्र के अनुच्छेद 46 के तहत ये अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अंतर्गत किसी भी राष्ट्र के लिए कानूनी बाध्यता नहीं है, इसीलिए भारत इस घोषणा पत्र के समर्थन में मतदान कर रहा है.

उपरोक्त कथन के अनुसार यह पूर्ण रूप से स्पष्ट होता है कि भारत का आधिकारिक मत यही है कि भारत के सभी नागरिक भारत के मूलनिवासी हैं. लेकिन भारत विश्व के मूलनिवासियों के प्रति सहानुभूति रखता है और उनके संवर्धन के लिए सभी प्रयासों का समर्थन करता है. इसका अर्थ यह भी है कि भारत में रहने वाले वनवासी समाज से लेकर नगरीय समाज तक सभी नागरिक भारत के मूलनिवासी हैं.

यह स्पष्ट होता है कि 9 अगस्त को जिस तरह से भारत के विभिन्न क्षेत्रों में मूलनिवासी दिवस मनाने का कार्य किया जा रहा है और इसके अलावा जिस तरह से समाज के एक वर्ग को ‘आदिवासी’ बताने का षड्यंत्र रचा गया है, वह पूरी तरह से एक सुनियोजित साजिश है जिसमें भारत विरोधी शक्तियां शामिल हैं.

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