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पुस्तक समीक्षा – ‘राजस्थान की वनविहारी जनजातियां’

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जनजातियों का प्राचीन युग बहुत ही गौरवपूर्ण रहा है, परंतु अंग्रेजों के कथानक व शब्दों के कारण समाज में कई प्रकार के नकारात्मक दृष्टिकोण, नजरिये व विचार प्रसारित हुए हैं.

इनके कारण कई जगह समाज का तिरस्कार होता है और इतिहास में क्षात्र धर्म के धनी हमारे समाज को अकारण नीचा दिखाने की दृष्टि भी इस पारितंत्र द्वारा की गई

सन् 1980 के दशक में जब मीठालाल जी मेहता (IAS) उदयपुर में संभागीय आयुक्त थे, तब भील समाज के एक बड़े लेखक व महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन उदयपुर से 1994 में राणापूंजा सम्मान से सम्मानित रामचंद्र पलात ने एक पुस्तक लिखी ‘राजस्थान की वनविहारी जनजातियां’.

मीठालाल मेहता ने इसकी प्रस्तावना लिखी है. पुस्तक में एक क्रमबद्ध मौलिक शोध प्रबंध की तरह तथ्यों की प्रस्तुति की गई है, जिसका जून 1987 में पहला संस्करण आया. इसके प्रकाशक नीलकमल एंड संस व मुद्रक हिमांशु पब्लिकेशंस, उदयपुर थे.

वागड़ के डूंगरपुर जिले के भिंडा (झौंथरी, चौरासी) निवासी पलात के अनुसार दक्षिण राजस्थान के भील, भील मीणा और मीणा समाज के लिए प्रयुक्त आदिवासी शब्द विभेदकारी है, अभारतीय है और इसके (1931) पूर्व में प्रचलित भाव और शब्द ही भारतीय हैं.

उनके अनुसार जनजातियों का प्राचीन युग बहुत ही गौरवपूर्ण रहा है, परंतु अंग्रेजों के कथानक व शब्दों के कारण समाज में कई प्रकार के नकारात्मक दृष्टिकोण, नजरिये व विचार प्रसारित हुए हैं.

इनके कारण कई जगह समाज का तिरस्कार होता है और इतिहास में क्षात्र धर्म के धनी हमारे समाज को अकारण नीचा दिखाने की दृष्टि भी इस पारितंत्र द्वारा की गई.

लेखक के अनुसार दक्षिण राजस्थान की जनजातियां पृथ्वीराज चौहान के कुल की हैं. समाज की कुलदेवी आशापुरा माताजी नाडोल, पाली हैं. जिन्हें वर्तमान में विभिन्न रूपों में अलग-अलग भील गोत्र पूजते हैं.

यही है समाज का मूल गौरव. परंतु औपनिवेशिक प्रभाव वाले लेखकों और विद्वानों के कारण उक्त गलत धारणाओं को आगे बढ़ाया और स्वयं समाज को ही अपने गौरव से विस्मृत कर दिया है.

उनके अनुसार डॉ. धुर्वे का मत उचित है, जिसके अनुसार जनजाति पिछड़े हिन्दू हैं. इसमें मात्र आर्थिक पक्ष का उल्लेख पिछड़ेपन के रूप में किया गया है. परंतु मूलतः समाज सनातन संस्कृति, धर्म व समृद्ध परंपराओं को मानने वाला है.

यह विचार प्रमुखता से उल्लेख किया है कि भीली जायो, राणी जायो, भाई-भाई व मीणी जायो, राणी जायो, भाई भाई. यह विचार समर्थ व समरस हिन्दू समाज का सच्चा धरातल है.

“भील समाज के इस अग्रज, साधक, सत्यानंदी व मौलिक लेखक का कहना है कि भीलों के सभी गोत्रों की उत्पत्ति क्षात्र धर्मी कुल/समाज से हुई है. जिनका मूल कहीं ना कहीं अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान से है. जिनका बाहरी आक्रमण के कारण अरावली व विंध्याचल के वनों में निवास बढ़ा, विस्तारित व स्थाई हुआ. परंतु वे भारतीय अस्मिता-अस्तित्व हेतु सतत संघर्षरत रहे. लेखक अपने आपको चौहान वंशीय भील बताते हैं”.

इस शोधपरक पुस्तक के पृष्ठ 117-118 पर भील समाज के 23 गोत्रों के साथ ही उनकी कुलदेवी और कुल देवताओं का विवरण, इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि हमारे समाज की गोत्र व्यवस्था, #क्षात्र धर्मी स्वरूप, सनातन पूजा पद्धति और कुलदेवियों की अनवरत आस्था, हिन्दू समाज की हैं, जिनका मूल कहीं न कहीं भगवान शिव व आदिशक्ति से होकर आज भी गवरी, धामधूणी परंपरा और सत्संग के रूप में प्रचलित है.

मेरा आग्रह है कि सामयिक भ्रम निवारण हेतु यह तथ्यपरक, सत्यशोधक, धरातल मूलक एवं गौरव संस्थापक पुस्तक, हम सभी को पढ़नी चाहिए.

जय गुरु राम राम.

समीक्षा – डॉ. मन्ना लाल रावत

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