लोकेन्द्र सिंह
पत्रकारिता के आचार्य एवं भारतीय जनसंचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी की नयी पुस्तक ‘भारतबोध का नया समय’ शीर्षक से आई है. स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर उन्होंने पूर्ण मनोयोग से अपनी इस पुस्तक की रचना-योजना की है. वैसे तो प्रो. द्विवेदी सदैव ही आलेखों के चयन एवं संपादन से लेकर रूप-सज्जा तक सचेत रहते हैं क्योंकि उन्होंने काफी समय लोकप्रिय समाचार पत्रों के संपादक के रूप में बिताया है. परंतु अपनी इस पुस्तक को उन्होंने बहुत लाड-दुलार से तैयार किया है. पुस्तक में शामिल 34 चुनिंदा आलेखों के शीर्षक और ले-आउट एवं डिजाइन (रूप-सज्जा), आपको यह अहसास करा देंगे. संभवत: पुस्तक को आकर्षक रूप देने के पीछे लेखक का मंतव्य, ‘भारतबोध’ के विमर्श को प्रबुद्ध वर्ग के साथ ही युवा पीढ़ी के मध्य पहुँचाना रहा है. आकर्षक कलेवर आज की युवा पीढ़ी को अपनी ओर खींचता है. हालाँकि, पुस्तक के कथ्य और तथ्य की धार इतनी अधिक तीव्र है कि भारतबोध का विमर्श अपने गंतव्य तक पहुँच ही जाएगा. पहले संस्करण के प्रकाशन के साथ ही यह चर्चित पुस्तकों में शामिल हो चुकी है.
प्रो. संजय द्विवेदी की यह पुस्तक ऐसे समय में आई है, जब ‘भारतबोध’ की सर्वाधिक आवश्यकता है. नयी पीढ़ी के सामने ‘भारत की वास्तविक पहचान’ को प्रस्तुत किया जाना बहुत आवश्यक है. यदि वर्तमान समय में यह काम नहीं किया गया, तब फिर बहुत मुश्किल हो जाएगी. स्वतंत्रता के बाद से आयातित विचारधाराओं ने भारत की संतति को भारत के ‘स्वत्व’ से दूर करने के लिए अनथक प्रयास किए हैं. यह प्रयास अब भी जारी हैं. अलबत्ता अब तो भारत विरोधी ताकतें अधिक सक्रियता से नयी पीढ़ी को भ्रमित करने के उपक्रम कर रही हैं. प्रो. द्विवेदी ने अपनी इस पुस्तक के कुछ लेखों में इस ओर संकेत किया भी है. लेखक ने ‘कुछ कहना था इसलिए’ शीर्षक के अंतर्गत लिखे मनोगत में ही स्पष्ट कहा है कि “आज के भारत का संकट यह है कि उसे अपने पुरा-वैभव पर गर्व तो है, पर वह उसे जानता नहीं है. इसलिए भारत की नयी पीढ़ी को इस आत्मदैन्य से मुक्त करने की जरूरत है. यह आत्मदैन्य है, जिसने हमें पददलित और आत्मगौरव से हीन बना दिया है. सदियों से गुलामी के दौर में भारत के मन को तोड़ने की कोशिशें हुई हैं. उसे उसके इतिहासबोध, गौरवबोध को भुलाने और विदेशी विचारों में मुक्ति तलाशने की कोशिशें परवान चढ़ी हैं. आजादी के बाद भी हमारे बौद्धिक कहे जाने वाले संस्थान और लोग अपनी प्रेरणाएं कहीं और से लेते रहे और भारत के सत्व एवं तत्व को नकारते रहे. इस गौरवबोध को मिटाने की सचेतन कोशिशें आज भी जारी हैं”.
पुस्तक के मुख्यत: दो खण्ड हैं – विमर्श और प्रेरक व्यक्तित्व. विमर्श में जहाँ ‘भारतबोध’ की भिन्न-भिन्न प्रकार से चर्चा है. भारत की संकल्पना पर विचार-विमर्श है. इसी खण्ड में पुस्तक का प्रतिनिधि आलेख ‘भारतबोध का नया समय’ सबसे पहले आया है. यह आलेख इस पूरी पुस्तक के विमर्श को एक आधार देता है. इस आलेख से शुरू होकर भारतबोध की सरिता विविध विषय क्षेत्रों के मैदानों, पहाड़ों और अरण्यों से होकर विशाल सागर में समाहित हो जाती है. वहीं, प्रेरक व्यक्तित्व में लोकमंगल के संचारकर्ता नारद, युवा शक्ति के प्रेरक स्वामी विवेकानंद, भारतबोध के प्रवक्ता माधवराव सप्रे, राजनीति के संत महात्मा गांधी, भारतीयता के प्रतीक पुरुष पंडित मदनमोहन मालवीय, मूकनायक डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर, कर्मवीर संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, अप्रतिम नायक स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदरराव सावरकर और भारत की अखंडता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले राजनेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के बहाने पाठकों के मन में ‘भारतबोध’ की संकल्पना को उतारने का प्रयास किया है. इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने अन्य निबंधों में भी भारतमाता की ऐसी अन्य विभूतियों का उल्लेख किया है, जिनका जीवन ‘भारतबोध’ को प्रकट करता है.
मीडिया से लेखक का गहरा नाता है. इसलिए उन्होंने अपने कुछ आलेखों में मीडिया की भूमिका एवं उसकी दशा और दिशा पर भी विस्तार से चर्चा की है. आज के समय में नयी पीढ़ी के सामने भारत की गौरवशाली परंपरा और उसकी सांस्कृतिक पहचान को प्रस्तुत करने में मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. कुछ हद तक मीडिया ने अपने ‘लोकमंगल के धर्म’ का पालन किया भी है. परंतु मीडिया के एक बड़े हिस्से पर उन ताकतों का प्रभुत्व है, जिन्हें भारत के स्वर्णिम पृष्ठ दिखाई नहीं देते हैं. या कहें कि उन्हें भारत की चमकती छवि चुभती है. ऐसा प्रतीत होता है कि इन ताकतों को भारत की बदनामी कराने में आनंद की अनुभूति होती है. पुस्तक का एक निबंध ‘चुनी हुई चुप्पियों का समय’ इस प्रकार की ताकतों- एक खास विचारधारा के पत्रकारों, लेखकों एवं तथाकथित बुद्धिजीवियों के गिरोह, के पाखण्ड को उजागर करता है. यह सब ताकतें उन घटनाओं पर चुप रहती हैं या फिर उन आवाजों को ही मजबूत करती हैं, जो भारत को खण्ड-खण्ड करना चाहती हैं. भारत विरोधी इन ताकतों को पहचानना भी ‘भारतबोध’ है.
भारत के प्रति भक्ति से भरे लोग वर्तमान समय में नये भारत निर्माण में अपना ‘गिलहरी योगदान’ देना चाहते हैं. परंतु प्रश्न यह है कि भारत निर्माण के लिए करना क्या है? इस प्रश्न का उत्तर तब मिलेगा, जब हम भारत को भली प्रकार समझेंगे. भारत को मानेंगे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह एवं भारतीयता के चिंतक डॉ. मनमोहन वैद्य अकसर कहते हैं – “भारत को समझने के लिए चार बिन्दुओं पर ध्यान देने की जरूरत है. सबसे पहले भारत को मानो, फिर भारत को जानो, उसके बाद भारत के बनो और सबसे आखिर में भारत को बनाओ”. भारत को समझने की यह एक प्रक्रिया है.
हम भारतमाता के यशस्वी पुत्रों के जीवन चरित्र का अध्ययन करें, तब स्पष्ट रूप से ध्यान आता है कि वे भारत निर्माण की भूमिका में इसी क्रम से आगे आए. उदाहरण के लिए यहाँ तीन नामों का उल्लेख करना चाहूँगा. अध्यात्म से स्वामी विवेकानंद, राजनीति से महात्मा गांधी और सामाजिक क्षेत्र से डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, ऐसे ही नाम हैं.
स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर ‘भारत के स्वत्व’ से परिचित कराने के लिए हो रहे अनेक प्रयासों में मीडिया के आचार्य प्रो. संजय द्विवेदी की यह पुस्तक भी एक महत्वपूर्ण प्रयास है. समसामयिक विमर्श पर टिप्पणियां करते हुए लेखक ने भारत के मूल तत्व की स्थापना करने का सचेतन प्रयास किया है. निश्चित ही नये समय में यह पुस्तक पाठकों के बीच अपना स्थान बनाएगी. साथ ही वर्तमान समय में चल रहे ‘भारतबोध’ के विमर्श को मजबूत करने में भी यह सफल होगी.