डॉ. श्रीरंग गोडबोले
कौन थे वे लोग जिन्होंने ख़िलाफत आंदोलन का नेतृत्व किया? इस्लाम और अखिल-इस्लामवाद का पाठ वे कहाँ से पढ़े थे? उनके अलग-अलग रास्तों ने उन्हें एक सामान्य लक्ष्य तक कैसे पहुंचाया? प्रथम विश्व युद्ध से लेकर खिलाफत आंदोलन (1919-24) तक की घटनाओं को समझने के लिए इसके प्रमुख प्रवर्तकों की पृष्ठभूमि जानना महत्वपूर्ण है.
अलीगढ़ आंदोलन
अंग्रेजों का मानना था कि 1857 का विद्रोह मुस्लिमों द्वारा प्रायोजित था. भारत के मुस्लिम इस्लामी शासन के पतन और इसके साथ होने वाले विशेषाधिकारों की हानि जैसे आघातों से उबर नहीं पाए थे. उनकी दृष्टि में हिन्दू उनके अधीनस्थ होने के कारण मित्रता रखने के योग्य नहीं थे. इस गहन अवसाद से मुस्लिम एकजुटता की आवश्यकता पैदा हुई और इस तरह अलीगढ़ आंदोलन का जन्म हुआ. इसके संस्थापक सर सैय्यद अहमद खान (1817-98) थे, जिन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के एक निष्ठावान सेवक के रूप में 1857 के विद्रोह के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया. वह 1878 से 1883 तक गवर्नर-जनरल की विधान परिषद के सदस्य रहे थे. सैय्यद के अनुसार मुस्लिम सशक्तीकरण अंग्रेजों के प्रति निष्ठा, शिक्षा के प्रति समर्पण और राजनीति से अलग रहने की भावना में निहित था. लाहौर में मोहमेडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस में दिए गए संबोधन में उन्होंने 1875 में स्थापित मोहमेडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के उद्देश्य का वर्णन किया. उनके अनुसार “हमारे लिए इस्लाम का अभ्यास करना आवश्यक है. हमारे युवाओं को अंग्रेजी शिक्षा के साथ-साथ मजहब और उसके इतिहास की शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए. उन्हें इस्लामी भाईचारे का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए जो हमारे विश्वास का सबसे महत्वपूर्ण और अंतरंग हिस्सा है. विघटनकारी प्रवृत्तियों का प्रतिकार करने के लिए अरबी या फारसी में से एक से परिचित होना आवश्यक है. समूह में एक साथ रहने, एक साथ भोजन करने और एक साथ अध्ययन करने से छात्रों के बीच भाईचारे की भावना को बढ़ाया जा सकता है. और अगर यह नहीं किया जा सका तो हम न तो प्रगति कर सकते हैं और न ही समृद्धि पा सकते हैं और न ही एक समुदाय के रूप में जीवित रह सकते हैं ”(सर सैयद अहमद खान एंड मुस्लिम नेशनलिज्म इन इंडिया, शरीफ अल मुजाहिद, इस्लामिक स्टडीज, खंड 38, क्रमांक 1, 1999, पृ.90).
सन 1867 में सैय्यद अहमद ने बनारस के आयुक्त शेक्सपियर से वार्तालाप में पहली बार हिंदुओं और मुसलमानों को “दो राष्ट्र” के रूप में वर्णित किया (अल मुजाहिद, उक्त, पृ.92). 1883 में दिए गए एक भाषण में, सैय्यद ने कहा “अब मान लीजिए कि अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा… तो भारत का शासक कौन होगा? क्या इन परिस्थितियों में यह संभव है कि मुस्लिम और हिन्दू जो कि दो राष्ट्र हैं एक ही सिंहासन पर बैठे हों और सत्ता में बराबर बने रहें? निश्चित रूप से नहीं. यह आवश्यक है कि उनमें से एक दूसरे पर विजय प्राप्त करे और उसे नीचे गिराए”(मेकिंग ऑफ पाकिस्तान, रिचर्ड साइमंड्स, फेबर, 1950, पृष्ठ 31). अंग्रेजों के प्रति वफादारी की अलीगढ़ नीति को 1906 में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के संस्थापक सिद्धांतों में शामिल किया गया था.
परन्तु ऐसा नहीं है कि सारे मुस्लिम सर सैय्यद के ब्रिटिश समर्थक रवैये को स्वीकार करते थे. इन असहमत मुस्लिमों में अलीगढ़ के उनके साथी भी शामिल थे. 1888 में देवबंदियों ने उनके खिलाफ फतवा जारी किया. अलीगढ़ कॉलेज में एक पूर्व शिक्षक, शिबली नुमानी ने मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी की स्थापना की जिसे 1894 से लखनऊ के नदवात-उल-उलेमा (विद्वानों की सभा) के रूप में जाना जाने लगा. 1911 में बंगाल के विभाजन को रद्द करने और साथ ही असम और पूर्वी बंगाल के मुस्लिम बाहुल्य प्रांत को समाप्त करने से अंग्रेजों के प्रति मुस्लिम वफादारी अब उनके प्रति नाराजगी में बदल गई.
बाल्कन युद्धों की शृंखला (1911-13) जिसने ओटोमन तुर्कों को उनके यूरोप के उपनिवेशों से वंचित कर दिया और इसके साथ ही अलीगढ़ कॉलेज को विश्वविद्यालय बनाने के मुस्लिमों के प्रस्ताव को अंग्रेज सरकार द्वारा नकारे जाने ने अलीगढ़ को ब्रिटिश-विरोधी केंद्र में बदल दिया. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि मुस्लिमों में ब्रिटिश-विरोधी भावना इसलिए पैदा हो गई क्योंकि अखिल-इस्लामी और भारतीय मुस्लिम हितों पर संकट दिखाई देने लगा.
अली बंधुओं, शौकत अली (1873-1938) और मुहम्मद अली जौहर (1878-1931) जो खिलाफत आंदोलन में एक प्रमुख भूमिका निभाने वाले थे, मोहमेडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज, अलीगढ़ के पूर्व छात्र थे और बाद में इसके ट्रस्टी भी बने. साथ ही ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के संस्थापक-सदस्य भी थे. मुहम्मद अली ने अंग्रेजी साप्ताहिक कॉमरेड (1911) और उर्दू अखबार हमदर्द (1913) शुरू किया, वहीं शौकत अली ने अंजुमन-ए-ख़ुद्दाम-ए-काबा (1913) की स्थापना में मदद की. आगा खान(1877-1957) जो इस्माइली खोजा संप्रदाय के मजहबी प्रमुख और अलीगढ़ कॉलेज के सबसे उदार संरक्षक थे, साथ ही 1906-13 के दौरान ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के संस्थापक-अध्यक्ष भी थे. हालांकि वे खिलाफत आंदोलन के समर्थक थे पर उन्होंने असहयोग आंदोलन का विरोध किया. अलीगढ़ के पूर्व छात्र मौलाना हसरत मोहानी (1878-1951) जो उर्दू साप्ताहिक उर्दू-ए-मुअल्ला के संस्थापक-संपादक थे और 1921 में मुस्लिम लीग के अध्यक्ष और खिलाफत आंदोलन के नेता भी बने.
दार अल–उलूम
देवबंदी मदरसे दार अल-उलूम (ज्ञान का घर) की स्थापना 1867 में उत्तर-पश्चिम उत्तर प्रदेश के देवबंद कस्बे की एक मस्जिद में हुई थी जिसके संस्थापक शाह वलीउल्लाह द्वारा स्थापित दिल्ली मदरसा के तीन पूर्व छात्र- मौलाना मुहम्मद कासिम नानोतवी(1832-1880) मौलाना रशीद अहमद गंगोही(1826-1905) और मौलाना जुल्फिकार अली (1819-1904) थे.
पश्चिमी शिक्षा की कुछ संगठनात्मक विशेषताओं को अपनाते हुए, उन्होंने पारंपरिक इस्लामी पाठ्यक्रम में सुधार करने और इस्लामी सामाजिक व्यवस्था के पुनर्निर्माण का लक्ष्य रखा. सरकारी संरक्षण पर निर्भर रहने के बजाय, उन्होंने मुस्लिमों के सभी वर्गों से वित्तीय सहायता की मांग की. अलीगढ़ वालों की तरह शुरू में वे नवगठित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से दूर रहे. फिर गंगोही ने एक फतवा जारी किया कि मुस्लिमों को अंग्रेजों से रियायतें प्राप्त करने के लिए हिंदुओं के साथ सहयोग करना ठीक था, बशर्ते ऐसी गतिविधि इस्लाम के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन न करती हों (द खिलाफत मूवमेंट: रिलीजियस सिम्बोलिज्म एंड पोलिटिकल मोबिलाइजेशन इन इंडिया, गेल मिनाल्ट, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1982, पृ. 24). अलीगढ़ कॉलेज की तरह, देवबंदियों के दिमाग में केवल मुस्लिम हित थे और यदि मुस्लिम हितों की पूर्ति करते तो हिंदुओं के साथ सहयोग भी उन्हें स्वीकार्य था.
तीनों संस्थापकों की मृत्यु के बाद, दार अल-उलूम देवबंद का दायित्व काफी हद तक मौलाना महमूद अल-हसन (1851-1920) पर आ गया, जो बाद में राजनीति में सक्रिय हो गए. 8 जून 1920 को केंद्रीय खिलाफत समिति द्वारा उन्हें ‘शेख़ अल-हिंद’ की उपाधि दी गई. पश्चिम में शिक्षित मुस्लिम युवकों को इस्लामी रंग ढंग देने के लिए मौलाना महमूद-अल हसन ने 1913 में दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद में एक कुरान स्कूल शुरू किया. नजारत अल-मआरिफ़ अल-क़ुरानियाह (कुरान के ज्ञान का वैभव) नाम का यह स्कूल दो साल तक चला. इसमें उनके पूर्व छात्र मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी (1872-1944) ने उनकी मदद की, जो एक धर्मपरिवर्तित सिख थे. यह एक रोचक तथ्य है कि आंतरिक प्रतिद्वंद्विता के चलते देवबंद मदरसे ने 1913 में इन्हीं उबैदुल्लाह सिंधी को काफिर घोषित करते हुए एक फतवा जारी किया था. नजारत अल-मआरिफ़ अल-कुरानियाह के संरक्षक अलीगढ़ के दो ट्रस्टी हकीम अजमल खान और डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी (1880-1936) थे, जिनका क्लिनिक नजारत के नजदीक ही स्थित था. हकीम अजमल खान (1865-1927) ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के संस्थापक सदस्य थे और 1919 में इसके अध्यक्ष भी बने. वे 1919-25 तक केंद्रीय खिलाफत समिति के उपाध्यक्ष रहे और 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने. डॉ. अंसारी दिल्ली में अजमल खान और अली भाइयों के साथ अत्यंत घनिष्ठ हो गए. 1912-13 में उन्होंने तुर्की में रेड क्रिसेंट मेडिकल मिशन का नेतृत्व किया. उसी वर्ष, वह ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के सदस्य बन गए. 1919 से वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति और केंद्रीय खिलाफत समिति दोनों के सदस्य के रूप में कार्य करते रहे. वह 1922 में खिलाफत सम्मेलन के अध्यक्ष भी बने. यह डॉ अंसारी ही थे जिन्होंने मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी को मुहम्मद अली और अबुल कलाम आज़ाद से परिचित कराया था जो उस समय एक पत्रकार थे (मिनाल्ट, उक्त, पृ.30). महमूद अल-हसन और सिंधी दोनों को रेशमी पत्र षड्यंत्र (1913-20) में अभियुक्त बनाया गया, जिसमें वे ओटोमन तुर्की, जर्मनी और अफगानिस्तान का गठबंधन बनाकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र क्रांति शुरू करने के प्रयास आरम्भ करने वाले थे.
महमूद अल-हसन के एक अन्य देवबंदी सहयोगी मौलाना हुसैन अहमद मदनी (1879-1957) थे जिन्होंने मदीना और हिजाज़ का प्रवास किया और 1902 में ओटोमन नागरिकता हासिल कर ली. वह महमूद अल-हसन के अखिल-इस्लामी योजनाओं में सह-षड्यंत्रकर्ता थे और इसी कारण 1916 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. उसके बाद उन्हें 1917 से 1920 के दौरान अंग्रेजों द्वारा माल्टा में नजरबंद कर रखा गया. बाद में वह खिलाफत आंदोलन में शामिल हो गए. जामिया मिलिया इस्लामिया (राष्ट्रीय इस्लामी विश्वविद्यालय) की स्थापना 29 अक्टूबर 1920 को अलीगढ़ में महमूद अल-हसन, मुहम्मद अली जौहर, हकीम अजमल खान, एम. ए अंसारी द्वारा ब्रिटिश प्रभाव से मुक्त मुस्लिम विश्वविद्यालय शुरू करने के उद्देश्य से की गई.
फिरंगी महल
फिरंगी महल (फ्रैंक्स/यूरोपियों का महल) पुराने लखनऊ का क्षेत्र था जो औरंगजेब के समय से इस्लामी शिक्षा के प्रमुख केंद्र के रूप में विकसित हुआ. यहीं पर दर्स–ए-निजामिया (इसके संस्थापक मुल्ला निज़ामुद्दीन के नाम पर) का विकास हुआ जो भारत के मदरसों का बुनियादी इस्लामी पाठ्यक्रम था. मुल्ला निज़ामुद्दीन के वंशज मौलाना अब्दुल बारी (1879-1926) ने हिजाज़ जाने से पहले फिरंगी महल में अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की. हिजाज़ में उन्होंने हुसैन इब्न अली के साथ मित्रता विकसित की, जो बाद में मक्का के शरीफ और हिजाज़ के राजा बने. 1908 में भारत लौटने से पहले मौलाना बारी ने ऑटोमन साम्राज्य में बड़े पैमाने पर यात्रायें की. 1911 में उन्होंने रेड क्रिसेंट मेडिकल मिशन के लिए सक्रिय रूप से धन एकत्र किया और इस तरह पश्चिमी प्रभाव वाले अली बंधुओं और डॉ अंसारी के संपर्क में आए. 1912 में, वह एम. एच. किदवई के प्रभाव में आये. उन्होंने 1913 में अली भाइयों के साथ अंजुमन-ए-ख़ुद्दाम-ए-काबा की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बाद में अली-बंधु उनके शागिर्द बन गए. अंजुमन का उद्देश्य काबा और अन्य इस्लामी पवित्र स्थानों का सम्मान बनाए रखना और उन्हें गैर-मुस्लिम आक्रामकता से बचाना था. इसके प्रमुख सदस्यों में डॉ. अंसारी और हकीम अजमल खान भी शामिल थे.
1919 में जमीयत-उल- उलेमा -ए-हिंद (अनु. भारत के उलेमा का संघ) की स्थापना में मौलाना बारी ने प्रमुख भूमिका निभाई. वह केंद्रीय खिलाफत समिति के संस्थापक सदस्य थे. 1921 तक उन्हें हिंदुओं के साथ एकता पर सख्त आपत्ति थी क्योंकि वे इसे मुस्लिम समुदाय के लिए हानिकारक मानते थे (खिलाफत मूवमेंट इन इंडिया 1919-1924, मुहम्मद नईम कुरैशी, लंदन विश्वविद्यालय के लिए प्रस्तुत शोध प्रबंध, 1973, पृ.58). मौलाना बारी ने उलेमा और पश्चिमी मुस्लिम नेताओं के बीच सेतु का काम किया. उन्होंने महसूस किया कि “जब तक उलेमा राजनीति की बागडोर अपने हाथों में नहीं लेते हैं और सत्ताधारियों तक अपनी आवाज़ को पहुँचाने में सफल नहीं होते, तब तक उन्हें अपना धार्मिक वर्चस्व बनाये रखने में कठिनाई रहेगी. इसके अलावा इस्लाम की रक्षा जैसे उच्च उद्देश्यों की पूर्ति केवल एक सपना बनकर रह जाएगा” (कुरैशी, उक्त, पृ.303).
स्वजात नेता
उक्त मतों और धारणाओं से परे कुछ नेता ऐसे भी थे जो एक पैटर्न में फिट नहीं होते हैं. ऐसे ‘स्वजात’ नेताओं का उत्कृष्ट उदाहरण मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (1888-1958) थे. उनका जन्म मक्का में हुआ और उनकी माँ एक अरब महिला थीं. उनका प्रारंभिक अध्ययन कलकत्ता में उनके घर में दर्स-ए-निज़ामिया पाठ्यक्रमानुसार हुआ और फिर उन्होंने लखनऊ में नदवात-उल-उलेमा में भी अध्ययन किया. अपने शुरुआती दिनों में वे सर सैय्यद अहमद के लेखन से अत्यधिक प्रभावित हुए. उन्होंने अनेक उर्दू अखबारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन और संपादन किया जैसे- लिसान-उस–सादिक (1904), अन-नदवा (1905-06), वकील (1907), अल-हिलाल (1912) और अल-बलाघ (1913). 1913 में आज़ाद मुस्लिम लीग में शामिल हो गए और 1919 में मौलाना हुसैन अहमद मदनी के साथ जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिंद के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई. आजाद ने उलेमा की कुरान पर आधारित मजहबी सुधारों और राजनीतिक गतिविधियों में भूमिका का समर्थन किया.
आजाद एक अहंकारी व्यक्ति थे. उनकी अली-बंधुओं से कभी नहीं बनी. उनके लिए, शौकत अली बौद्धिक रूप से हीन थे जबकि मुहम्मद अली को उन्होंने निजी बातचीत में मुंशी (क्लर्क) बताया था (मिनॉल्ट, उक्त, पृ.4). 1923 में, 35 वर्ष की आयु में, वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में कार्य करने वाले सबसे कम उम्र के व्यक्ति बन गए. उनके अखबार अल-हिलाल में तुर्की के समाचारों का सर्वाधिक कवरेज किया जाता था. बाल्कन युद्धों के दौरान आज़ाद ने अनेक तुर्क नेताओं का गुणगान किया. तुर्क रेड क्रॉस और रेड क्रिसेंट के लिए धन एकत्रीकरण के लिए लगातार अपीलें की और ‘कंडीशन्स इन द ओटोमन एम्पायर’ नाम से एक नियमित कॉलम भी लिखते रहे.
इसके एक अंक में आज़ाद ने स्पष्ट रूप से कहा, “हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि तुर्क खलीफा इस्लाम के पवित्र स्थानों का संरक्षक है, और यह कि तुर्की के लिए समर्थन, इस्लाम के समर्थन के समान है”(मिनाल्ट, उक्त, पृ. 43). आजाद के लिए हंबली न्यायिक प्रणाली के कट्टरपंथी विद्वान इब्न तैमियाह (1263-1328) हमेशा महानायक थे. उन्ही के प्रभाव के तहत, आज़ाद ने राजनीतिक जीवन में जिहाद और बौद्धिक जीवन में इत्तेहाद (एकीकरण) का प्रचार किया (आइडियोलॉजिकल इन्फ़्लुएनसेस ऑन अबुल कलाम आज़ाद, क़ाज़ी मोहम्मद जमशेद, प्रोसीडिंग्स ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, खंड 71, 2010-2011,पृ.665). इब्न तैमियाह की ही शिक्षाओं ने बाद में वहाबीवाद और अल-कायदा जैसे संगठनों पर गहरा प्रभाव डाला.
जमीयत–उल–उलेमा–ए–हिंद
जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिंद की स्थापना खिलाफत आंदोलन के चलते नवंबर 1919 में हुई थी. यह विभिन्न इस्लामिक न्यायिक स्कूलों से संबंधित उलेमा की संस्था के रूप में शुरू हुआ, लेकिन समय के साथ यह देवबंदी उलेमा के प्रभुत्व में आ गया. आज भी इसे एक राष्ट्रवादी मुस्लिम निकाय के रूप में माना जाता है जिसने खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया और बाद में पाकिस्तान की मांग का विरोध किया. मौलाना आज़ाद केंद्रीय खिलाफत समिति और जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिंद दोनों के प्रमुख सदस्य थे.
इसके संविधान में दिए गए उद्देश्य और लक्ष्य इसके वास्तविक स्वरूप को उजागर करते हैं –
राजनीतिक और गैर-राजनीतिक मामलों में इस्लाम के अनुयायियों का मजहबी दृष्टिकोण से मार्गदर्शन करना.
शरीयत के आधार पर इस्लाम, उसके केंद्र (जज़ीरात-उल-अरब और खिलाफत की पीठ), इस्लामी रीति-रिवाज और इस्लामी राष्ट्रीयता को नुकसान पहुँचाने वाले संकटों से बचाये रखना.
मुस्लिमों के सामान्य मजहबी और राष्ट्रीय अधिकारों को प्राप्त करना और उनकी रक्षा करना.
एक मंच पर उलेमा को संगठित करना.
मुस्लिम कौम को संगठित करना और उसके नैतिक और सामाजिक सुधार के लिए कार्यक्रम शुरू करना.
शरीयत-ए-इस्लामिया द्वारा अनुमत सीमा तक देश के गैर-मुस्लिमों के साथ अच्छे और मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करना.
शरीयत के लक्ष्यों के अनुरूप देश की स्वतंत्रता और मजहब के लिए लड़ना.
कौम की मजहबी आवश्यकता को पूरा करने के लिए ‘महाकिम-इ-शरियाह’ (शरिया अदालत) की स्थापना करना.
भारत और विदेशी भूमि में मिशनरी गतिविधियों के माध्यम से इस्लाम का प्रचार करना.
अन्य देशों के मुस्लिमों के साथ इस्लाम द्वारा निर्धारित एकता और भाईचारे के संबंध को बनाए रखना और उसे मजबूत करना (देवबंद स्कूल एंड द डिमांड फॉर पाकिस्तान, जिया-उल-हसन-फारुकी,एशिया पब्लिशिंग हाउस, 1963, पृ.68-69).
तो ऐसे थे खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व करनेवाले लोग! यह विचित्र तथ्य है कि कि वे अपनी पृष्ठभूमि में मतभेदों के बावजूद इस्लाम और मुस्लिम हितों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में एकजुट थे. उनके लिए धर्मनिरपेक्ष भारतीय हित इस्लामी हितों के अधीन थे. भारत के लिए स्वतंत्रता या स्वशासन उनके लिए शायद ही मायने रखता था और जो बात मायने रखती थी वह थी तुर्की खलीफा की प्रतिष्ठा. हिंदुओं के साथ एकता और सहयोग उनके बड़े इस्लामी लक्ष्यों को प्राप्त करने का एक साधन था. थियोडोर मॉरिसन(1863-1963) जो अलीगढ़ आंदोलन से जुड़े ब्रिटिश शिक्षाविद् थे, ने भारत में मुस्लिमों के बारे में यह कहा था, “राष्ट्रीयता की जो भावना उनमें है, उन्हें एक भूमि पर निवास करनेवाले सिखों या बंगालियों से नहीं जोड़ती, बल्कि उनके मजहब के अनुयायियों से जोड़ती है, फिर चाहे वे अरब या फारस या भारत के सीमान्त क्षेत्रों में पाए जाते हो”(रूट्स ऑफ़ इस्लामिक सेपरेशन इन इंडियन सब कॉन्टिनेंट, ओम प्रकाश, प्रोसीडिंग्स ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, खंड -64, 2003, पृ.1053).
खिलाफत आंदोलन की अवधि के दो नायक हैं जिनका उल्लेख किया जाना बाकी है – दोनों को बाद में उनके संबंधित राष्ट्रों के पिता के रूप में जाना जाने लगा. वे निश्चित रूप से, महात्मा गांधी और मुहम्मद अली जिन्ना हैं. उनके बारे में आगे !
क्रमश:
(लेखक ने इस्लाम, ईसाइयत, समकालीन बौद्ध–मुस्लिम संबंध, शुद्धी आंदोलन और धार्मिक जनसांख्यिकी पर पुस्तकें लिखी हैं.)