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क्या दोहरे मापदंडों से समरसता अक्षुण्ण रह सकती है?

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बलबीर पुंज

रामनवमी पर देश के कई क्षेत्रों में हिंसा क्यों भड़की? जब पूरा देश रामनवमी का पर्व उत्साह के साथ मना रहा था, तब बिहार, प.बंगाल से लेकर गुजरात और महाराष्ट्र के अलग-अलग क्षेत्रों में निकाली गई शोभायात्राओं पर पत्थरबाजी, पेट्रोल बम बरसाने और निजी-सार्वजनिक संपत्ति को स्वाह करने और कालांतर में हिंसा की कई घटनाएं सामने आई. जब से यह हिंसक घटनाक्रम मीडिया की सुर्खियों में है, तब से समाज का एक वर्ग इसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ भाजपा सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहरा रहा है. क्या मई 2014 से ही देश का सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ा है? क्या इससे पहले हिन्दू-मुस्लिम संबंधों में सब ठीक था?

विमर्श बनाया जा रहा है कि रामनवमी पर हिन्दुओं को ‘मुस्लिम क्षेत्रों’ से शोभायात्रा नहीं निकालनी चाहिए थी, क्योंकि रमजान के दिन भजन-कीर्तन, जो एक विकृत वर्ग को ‘भड़काऊ’ तक लगती है – उससे ‘मुस्लिम भावना’ आहत हो गई. विडंबना देखिए कि यह तर्क वह जमात प्रस्तुत कर रही है, जो मुस्लिम भीड़ द्वारा बिना अनुमति के सार्वजनिक स्थानों पर नमाज पढ़ने और हिन्दुओं द्वारा इफ्तार आयोजन को सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक बताती है. यदि यह हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को मधुर बनाने का मापदंड है, तो साल में एक-दो बार ‘मुस्लिम क्षेत्रों’ से हिन्दू शोभायात्रा निकलने का विरोध (हिंसा सहित) क्यों किया जाता है? क्या कथित ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ की जिम्मेदारी केवल एक पक्ष की है?

सच तो यह है कि रामनवमी पर हिंसा कोई क्षणिक प्रतिक्रिया नहीं, अपितु योजनाबद्ध षड्यंत्र के अंतर्गत थी. यदि रामनवमी पर एक वर्ग द्वारा हिंसा उकसावे की प्रतिक्रिया थी, तो प्रतिक्रियावादियों के पास एकाएक पत्थरों का अंबार और पेट्रोल बम आदि कहां से पहुंचा? सच तो यह है कि भारत में महाराष्ट्र, बिहार, प.बंगाल आदि क्षेत्र – स्वतंत्रता पूर्व से सांप्रदायिक तौर पर संवेदनशील रहे हैं. बंगाल में रमजान के दौरान हिंसा कोई पहली घटना नहीं है. 1946 के प्रांतीय चुनाव में बड़ी विजय से उत्साहित मुस्लिम लीग ने कालांतर में ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ नाम के मजहबी आह्वान से कोलकाता में मानवता को कंपा दिया था. तब 16 अगस्त, 1946 को रमजान के 18वें दिन असंख्य रोजेदारों ने हजारों हिन्दुओं को वीभत्सता के साथ मौत के घाट उतार दिया था, तो महिलाओं का खुलेआम बलात्कार तक किया था.

हिन्दू जुलूसों पर मुस्लिम समाज के एक वर्ग द्वारा हमला – कोई नई बात नहीं है. संविधान निर्माता डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ में हिन्दू-मुस्लिम संबंधों में तनाव के तीन मुख्य कारणों की पहचान की थी, जिसमें उन्होंने – गोहत्या, मस्जिदों के बाहर संगीत और मतांतरण को चिन्हित किया था. बकौल बाबासाहेब, “दोनों समुदाय में व्याप्त तनाव को कम करने और सामाजिक एकता स्थापित करने का ‘पहला-प्रयास’ वर्ष 1923 में तब किया गया, जब ‘भारतीय राष्ट्रीय संधि’ को प्रस्तावित किया गया था, जो विफल हो गया.” स्पष्ट है कि हिन्दू-मुस्लिम संबंधों में ‘शत्रुभाव’ न ही हालिया है और न ही इसका संबंध संघ-भाजपा से है.

गांधीजी ने भी दोनों समुदायों के बीच की जटिलता को समझा था. मजहबी खिलाफत आंदोलन (1919-24) का नेतृत्व करके सदियों से व्याप्त इस ‘संकट’ को दूर करने का भी प्रयास किया था, जिसकी कीमत हिन्दुओं ने मोपला नरसंहार के रूप में चुकाई. इससे आक्रोशित गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ पत्रिका में 29 मई, 1924 को अपने आलेख में मुस्लिमों को ‘धौंसिया’ (Bully) और हिन्दुओं को ‘कायर’ (Coward) कहकर संबोधित किया था. जिस समय गांधीजी ने यह विचार प्रकट किए थे, तब आरएसएस स्थापित (27-सितंबर-1925) भी नहीं हुआ था.

वास्तव में, हिन्दू शोभायात्राओं-पदयात्राओं पर पथराव और आगजनी, ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से उद्वेलित है. इसी दर्शन से प्रेरित होकर सर सैयद अहमद खान ने ब्रितानियों की शह और इस्लाम के नाम पर ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ से भारत में अलग राष्ट्र की नींव रखी थी. इस चिंतन से ग्रस्त समाज में न ही गैर-इस्लामी समुदायों के प्रति सह-अस्तित्व की भावना पनपती है और न ही मुस्लिम सह-बंधुओं (शिया-सुन्नी सहित) में दीर्घकालीन शांति बनी रहती है.

रामनवमी पर प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने रमजान के चलते हिन्दुओं को ‘मुस्लिम क्षेत्रों’ में जुलूस निकालने से बचने की सलाह दी थी. क्या रमजान पर ‘मुस्लिम क्षेत्रों’ में हिन्दू शोभायात्रा निकलने से ‘मुस्लिम भावना’ आहत हुई थी? यदि ऐसा है, तो शत-प्रतिशत इस्लामी पाकिस्तान में रमजान और रामनवमी के दिन (30 मार्च) एक जिहादी ने कराची में हिन्दू डॉक्टर बीरबल जेनानी की गोली मारकर हत्या क्यों कर दी, जब वे कार से अपने घर लौट रहे थे? इससे पहले पाकिस्तानी पंजाब स्थित घोटकी में पुलिसकर्मी ने हिन्दू होटल के मालिकों को केवल इसलिए डंडे से पीट दिया था, क्योंकि वे दोनों रोजे के समय बिरयानी पका रहे थे. पाकिस्तान में यह सब नया नहीं है. जिस ‘काफिर-कुफ्र’ चिंतन से उसका वैचारिक अधिष्ठान अभिशप्त है, उसने ही पाकिस्तान में विभाजन के समय हिन्दुओं और सिक्खों की संख्या को 15-16 प्रतिशत से लगभग डेढ़ प्रतिशत पर पहुंचा दिया है.

भारतीय उपमहाद्वीप में यह स्थिति केवल इस्लामी पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं है. खंडित भारत में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं. वहां स्थिति क्या है? यह वर्ष 2020-21 के बीच तमिलनाडु स्थित ‘मुस्लिम बहुल’ क्षेत्र वी. कलाथुर संबंधित प्रकरण से स्पष्ट है. तब वहां स्थानीय मुस्लिम प्राचीन हिन्दू मंदिरों से रथयात्रा या परिक्रमा निकालने का इसलिए विरोध कर रहे थे, क्योंकि इस्लामी मान्यताओं में मूर्ति पूजा – ‘शिर्क’ अर्थात् ‘पाप’ है. जब मामला में मद्रास उच्च न्यायालय पहुंचा, तब तत्कालीन खंडपीठ ने मुस्लिम पक्ष को कड़ी फटकार लगाकर क्षेत्र में हिन्दू शोभायात्रा को बहाल किया था.

विडंबना देखिए कि जो पाखंडी कुनबा हिन्दुओं को रामनवमी या हनुमान जयंती इत्यादि हिन्दू पर्वों पर ‘मुस्लिम क्षेत्रों’ से शोभायात्रा नहीं निकालने का परामर्श देता है, वह अक्सर शारदीय नवरात्र में हिन्दुओं के गरबा कार्यक्रम में मुस्लिमों के प्रवेश पर आपत्ति जताने और मार्ग बाधित करके सार्वजनिक स्थानों पर नमाज पढ़ने का विरोध करने वालों को ‘इस्लामोफोबिया’ या ‘सांप्रदायिक’ बता देता है. क्या ऐसे दोहरे मापदंडों से देश में समरसता अक्षुण्ण रह सकती है?

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद हैं)

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