- रवी प्रकाश
भाग 1 यहाँ पढ़ें – चीनी अतिक्रमण और भारतीय राजनीति – एक
1962 के भारत चीन युद्ध के बाद और पंडित नेहरू के पंचशील के सिद्धांत की धज्जियां उड़ने के पश्चात चीन अपनी सीमावर्ती क्षेत्रों का अवसंरचनात्मक विकास करता रहा और पंडित नेहरू पंचशील के माध्यम से दुनिया भर में गुट-निरपेक्षता का अलख जगाते रहे, जो खुद उनके ही वंशजों के शासन काल में तार-तार हो गया.
इस पृष्ठभूमि में चीन ने एक बार पुनः भारत की सीमा का अतिक्रमण किया है. यद्यपि, अरुणाचल में, सिक्किम में, लद्दाख में चीन की साजिशाना हरकतें लगातार चलती रहतीं हैं. पिछली बार डोकलाम में कई महीनों तक जद्दोजहद चली और सुखद संयोग रहा कि मौजूदा केंद्र सरकार के सख्त रुख के कारण चीन को पीछे हटना पड़ा. लेकिन अभी लद्दाख की गलवान घाटी में चीन का अतिक्रमण हिंसक परिणति पाने के कारण अपनी अलग गंभीरता प्रदर्शित करता है. चीन या तो अपनी सीमा से लगे देशों के साथ विवाद खड़ा करता रहा है या उनमें से जो कमजोर देश हैं, उन्हें आर्थिक-तकनीकी सहायता देकर अपने पक्ष में खड़ा होने को बाध्य करता रहा है. अपनी विस्तारवादी नीतियों के कारण वह भारत को चारों तरफ से घेरने की कोशिश कर रहा है. उसकी ‘एक पट्टी, एक सड़क’ परियोजना भी विस्तारवादी नीति का ही हिस्सा है, जिसमें भारत ने हिस्सेदारी नहीं की है. इधर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार द्वारा उत्तरी और पूर्वोत्तर सीमा पर सडकों के निर्माण के कारण चीन को बौखलाहट हुई है. पहले की स्थिति यह थी कि भारत से सटी अपनी सीमा पर चीन पश्चिम से लेकर पूरब तक सड़कों, बंकरों, सैनिक चौकियों आदि का निर्माण करता रहा है और भारत द्वारा चीन से सटी अपनी सीमा पर कोई अवसंरचनात्मक विकास नहीं किया जाना, चीन के लिए सुविधाजनक था. यही कारण है कि चीन अरुणाचल में और लद्दाख में कभी बीस कदम आगे बढ़ जाता है और फिर 15 कदम पीछे हट जाता है. इस प्रकार धीरे-धीरे उसने हमारी काफी भूमि पर अपने पैर जमा चुका है, ऐसे समाचार आते रहे हैं. इस परिस्थिति में पंडित नेहरू द्वारा जिस उदासीनता का परिचय दिया गया था, उसके विपरीत मौजूदा केंद्र सरकार अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए सीमा पर सड़कें बना रही है, मिसाइलें तैनात कर रही है, तो जाहिर है चीन को मुश्किल होगी, उसके विस्तारवादी मंसूबों पर चोट लगेगी. इसलिए, उसने पाकिस्तान को अपने पक्ष में किया है. नेपाल का एक विशिष्ट मामला यह है कि वहां के कम्युनिस्ट विद्रोह में चीन ने काफी आर्थिक और सामरिक मदद की थी. यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि चीन-परस्त राजनेताओं की सरकार बनने के बाद चीन के ही इशारे और दम पर नेपाल भारत को परेशान करने की कोशिश कर रहा है.
अब ऐसे में हमारे देश की राजनीति पर गौर करना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जब देश पर पड़ोसी हमलावर हो और देश को एकजुट होकर खड़ा होने की ज़रुरत हो, तब अगर कोई पक्ष देश के भीतर राजनैतिक उथल-पुथल करने का प्रयास करे तो देश पर ख़तरा और बढ़ जाता है. इस सन्दर्भ में याद करना होगा कि चीन जब डोकलाम में शैतानी कर रहा था, केंद्र सरकार स्थिति से निबटने के लिए कूटनीतिक प्रयास कर रही थी, उस वक्त देश के प्रमुख विपक्ष के नेता के रूप में राहुल गाँधी चीन के राजदूत से मिलने गए थे. आज जब कांग्रेस सरकार पर सवाल खड़े कर रही है, सेना पर संदेह कर रही है, तब उसे पहले यह बताना चाहिए कि राहुल गाँधी डोकलाम संकट के समय चीन के राजदूत से मिलने क्यों गए थे, और क्या किया मिल कर? असल में व्यक्तिगत रूप से “मोदी-विरोध” की उन्मत्त मानसिकता में कांग्रेस का यह चरित्र रहा है कि उसका कोई नेता पाकिस्तान में जाकर वहाँ की सरकार से भारत की केंद्रीय सरकार को अस्थिर करने के लिए मदद मांगता है, तो कोई नेता संकट के समय चीन से गुपचुप बातचीत करता है. चरित्र का पैमाना इस एक घटना से आंका जा सकता है कि राहुल गाँधी गलवान घाटी में भारतीय सेना के निहत्थे होने पर सवाल उठाते है और खुद उनकी ही सरकार ने चीन के साथ हथियार का प्रयोग नहीं करने की संधि की थी, यह बात छिपा जाते हैं. दूसरी ओर आम जनता के बिलकुल अलग-थलग पड़ चुकी कतिपय कम्युनिस्ट पार्टियों की मजबूरी यह है कि सांसद बनने के लोभ में उन्हें कांग्रेस का पिछलग्गू बनने के सिवाय कोई उपाय नहीं दिख रहा. सो, एक ओर राहुल गाँधी अनर्गल प्रश्न करते हैं तो दूसरी ओर सीताराम येचुरी आज भी पंचशील का राग अलापते हैं. कुल मिलाकर भारत में विपक्ष की राजनीति अभी के सन्दर्भ में नहीं चाह रही है कि भारत की सीमाओं पर सामरिक और अवसंरचनात्मक स्थिति सुदृढ़ की जाए. इसके असली कारण वे ही बता सकते हैं. लेकिन देश के सामने कोरोना काल में सीमा पर जो संकट है, उसमें एकजुट होकर पूरे देश को सरकार के साथ खड़ा होने की ज़रुरत है.
प्रधानमन्त्री ने स्पष्ट किया है कि हमारी सीमा सुरक्षित है और कोई विदेशी वास्तविक नियंत्रण रेखा के पार हमारी सीमा में नहीं है. प्रधानमंत्री की बातों पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है. भारत सरकार ने कड़ा रुख अख्तियार किया है और गलवान की हिंसक झड़प के बावजूद जारी विकास कार्यों को जारी रखा है. सरकार द्वारा पूर्ववर्ती सरकार की गलती को सुधारते हुए भारतीय सेना को स्थिति के अनुसार फैसला करने और ज़रुरत हो तो आग्नेयास्त्रों का प्रयोग करने की खुली छूट देना सरकार की दृढ़ता का द्योतक है. प्रधानमंत्री द्वारा “आत्मनिर्भर भारत” का आह्वान एक ऐतिहासिक कदम है. चीन के सन्दर्भ में इस तथ्य के बावजूद कि हमारी सेना पहाड़ों में युद्ध के मामले में चीन की सेना से अधिक कुशल और अनुभवी है, हमें अपनी सामरिक शक्ति और मारक क्षमता बढ़ानी होगी. यह लड़ाई आर्थिक, कूटनीतिक और सामरिक, इन तीन मोर्चों पर तैयारियों की मांग करती है. आज समय की मांग है कि पाकिस्तान और चीन के मामले में कांग्रेस तथा कम्युनिस्टों के इरादों का पर्दाफाश किया जाए और राष्ट्र के प्रति समर्पित राजनैतिक शक्तियों को एकजुट किया जाए ताकि देश की आम जनता के मन में आत्मविश्वास पैदा हो सके. प्रधानमंत्री, के नेतृत्व में भारत एक नए स्वरुप के साथ एकजुट होकर उठ खड़ा होगा और अपनी गौरव-गाथा में नए अध्यायों का समावेश करेगा, यह यकीन किया जा सकता है.
(लेखक भारत विकास परिषद के पश्चिमी क्षेत्र के रीजनल सेक्रेटरी- सेवा हैं)