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सिने जगत और सामाजिक सरोकार

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प्रो. अमिताभ श्रीवास्तव

किसी देश को जानना है तो इसकी फिल्में देखो. यह कितना सही है या नहीं, यह संवाद का विषय हो सकता है. लेकिन संभवतः इतना सब मानेंगे कि फिल्में समाज की कोशिका अर्थात् व्यक्ति के व्यवहार को तय कर रही हैं. वह क्या खाये, क्या पहने, कहाँ घूमे, यह लगाम बरसों से फिल्मों ने थाम रखी है. यहां तक की समाज के सोच की दिशा भी फिल्में तय कर रही हैं. कह सकते हैं कि आज समाज को अच्छा या बुरा संस्कार दे रही हैं. या यूं कहें कि फिल्में समाज में नैरेटिव या विमर्श तय करने में अहम भूमिका निभा रही हैं.

सवाल उठता है कि फिल्म में इतना विशेष क्या है? पहले तो इस माध्यम की चर्चा कर लें. फिल्म अहम इसलिए है क्योंकि इसने अनेक अन्य माध्यमों को अपने में आत्मसात कर लिया है. लेखन कला स्क्रिप्ट या पटकथा के रूप में इसका आधार है. स्थापत्य कला सेट डिजाइनिंग के माध्यम से इसमें प्रविष्टि लेती है. संगीत और नृत्य तो आरम्भ से भारतीय फिल्मों की पहचान रही है. व्यक्तित्व कला संवादों के रूप में स्थान पाती है तो अभिनय के बिना तो फिल्म की कल्पना ही नहीं की जा सकती है. इसके अतिरिक्त तकनीक आधारित कलाएं जैसे सिनेमेटोग्राफी, एडिटिंग, साउंड डिजाइनिंग आदि सब सम्मिलित रूप से एक फिल्म को आकार देती हैं. अर्थात एक फिल्म इन सबका सम्मिलित रूप होता है. अतः इसका प्रभाव अत्यधिक होता है.

इसके अतिरिक्त सिनेमा का माध्यम ‘बिगर दैन लाइफ’ कहा जाता है. सिनेमा हाल अर्थात् अति विशाल कक्ष, अति विशाल छवियां, गूंजती ध्वनियां. दूसरी तरफ कक्ष का अन्धकार आपको एकाकी कर देता है. आप सम्मोहित से भागते-दौड़ते चित्रों को देखते, रहते हैं. आपकी आँखे उन भागती छवियों का अनुगमन करती रहती हैं. पुस्तकों को पढ़ते समय आपके पास रुक कर चिंतन करने का समय होता है. फिल्म वह अवसर नहीं देती और अनवरत आपके अंतर्मन पर एक प्रभाव अंकित करती चली जाती है. आज फिल्म ओटीटी/मोबाइल आदि पर देखने के अवसर भी उपलब्ध हैं. वे सिनेमा हाल जैसा वातावरण तो नहीं देते, लेकिन एकांत में देखने के कारण इनका प्रभाव भी मनोमस्तिष्क पर अति व्यापक होता है.

सिने यात्रा और सामाजिक सरोकार : सौ साल से ज्यादा का वक्त हो गया जब भारत में फिल्में आयी. ब्रिटिश सत्ता का दौर था. मिशनरियों के लिए भी धर्मान्तरण का सुनहरा अवसर था. बर्थ ऑफ क्राइस्ट फिल्म का प्रदर्शन हो रहा था और एक नवयुवक षड्यंत्र समझने के साथ स्वयं से प्रश्न कर रहा था, भारत भूमि पर देवी देवताओं और महापुरुषों पर फिल्में क्यों नहीं. संकल्प लिया, कर्मयोग का तप किया, लोकमान्य तिलक और राजा रवि वर्मा का सहयोग मिला और राजा हरिश्चंद्र, कालिय दमन और गंगावतरण जैसी अनेक फिल्में परदे पर ही नहीं समाज के मनोमस्तिष्क पर छा गयीं. वह थे भारतीय फिल्मों के पितामह दादा साहब फाल्के.

फिर अछूत कन्या जैसी फिल्मों ने अस्पृश्यता जैसी समस्याओं के खिलाफ माहौल बनाया. ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालो’ जैसे गीत लोगों में चेतना भरने लगे. आजादी के बाद भी लगभग डेढ़ दशक तक फिल्मों में सामाजिक चेतना की प्रधानता थी. पर, 1962 में चीन युद्ध के बाद सिनेमा ज्यादातर पलायनवादी हो गया और राष्ट्रीय सामाजिक मुद्दों की बजाय प्रेम प्रधान फिल्मों की प्रधानता हो गयी. सत्तर के दशक में युवाओं के आक्रोश को एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन ने परदे पर उभारा. यह वही दौर था, जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रान्ति का आह्वान किया था. नब्बे के दशक में उदारीकरण की आंधी में बहुत कुछ उड़ गया. पर आज बायोपिक के दौर में फिर संस्कृति आधारित फिल्मों का समय लौटता सा नज़र आता है.

समाज फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन का जरिया समझता है. पर, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में फिल्में सॉफ्ट पावर मानी जाती हैं जो गृहनीति से लेकर विदेश नीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. हॉलीवुड की फिल्मों को ही लीजिये. वे दिखाती हैं कि दुनिया पर जब खतरा आएगा एक अमेरिकी सुपरमैन, बैटमैन, स्पाइडरमैन ही उसे बचाएगा. शीत युद्ध के वक्त अधिकांश फिल्मों में सोवियत संघ विलेन था. इन फिल्मों के प्रसार के साथ अमेरिकी फिल्में अमेरिकी दृष्टिकोण का परोक्ष प्रचार कर रही थीं. जवाब में सोवियत संघ भी ऐसी फिल्मों का निर्माण कर रहा था. इन सब से इतर भारतीय फिल्म उद्योग अधिकांशतः पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने गाने में लगा था. पर, वक्त अब बदल रहा है. बाहुबली, आरआरआर और पीएस वन जैसी फिल्में अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने भारतीय संस्कृति की सशक्त छवि गढ़ रही हैं.

फिल्में हमें एक नए लोक में ले जाकर नए जीवन को जीने का अवसर देती हैं. तो फिल्मों का आनंद लेना लाभ का सौदा है. शर्त बस यह है कि फिल्मों का अवांछित प्रभाव हम पर न पड़े. इसलिए फिल्मों की कथावस्तु और प्रस्तुति की अनवरत समीक्षा की आवश्यकता है. साथ ही पुराने फिल्मकारों को प्रोत्साहित कर और नए फिल्मकारों को सामने लाकर फिल्म निर्माण में सृजनात्मकता की एक बड़ी लकीर खींचने की आवश्यकता है.

(लेखक केंद्रीय विश्वविद्यालय राजस्थान में संस्कृति और मीडिया अध्ययन विभाग में अध्यक्ष हैं.)

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