डॉ. नीलम महेंद्र
पश्चिम बंगाल में चुनावों की औपचारिक घोषणा के साथ ही राजनैतिक पारा भी उफान पर पहुंच गया है. चुनाव किसी भी लोकतंत्र की आत्मा होते हैं. सैद्धांतिक रूप से चुनावों को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है. और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की नींव को मजबूती प्रदान करते हैं. लेकिन जब इन्हीं चुनावों के दौरान हिंसक घटनाएं सामने आती हैं, जिनमें लोगों की जान तक दांव पर लग जाती हो तो प्रश्न केवल कानून व्यवस्था पर ही नहीं लगता, बल्कि लोकतंत्र भी घायल होता है.
वैसे तो पश्चिम बंगाल में चुनावों के दौरान हिंसा का इतिहास काफी पुराना है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े इस बात को तथ्यात्मक तरीके से प्रमाणित भी करते हैं. इनके अनुसार 2016 में बंगाल में राजनैतिक हिंसा की 91 घटनाएं हुईं, जिसमें 206 लोग इसके शिकार हुए. इससे पहले 2015 में राजनैतिक हिंसा की 131 घटनाएं दर्ज की गईं, जिसमें 184 लोग शिकार हुए. वहीं, गृह मंत्रालय के ताजा आंकड़ों की बात करें तो 2017 में बंगाल में राजनैतिक हिंसा की 509 घटनाएं हुईं और 2018 में यह आंकड़ा 1035 तक पहुंच गया.
इससे पहले 1997 में वामदल की सरकार के गृहमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य ने बाकायदा विधानसभा में यह जानकारी दी थी कि वर्ष 1977 से 1996 तक पश्चिम बंगाल में 28,000 लोग राजनैतिक हिंसा में मारे गए. निःसंदेह यह आंकड़े पश्चिम बंगाल की राजनीति का कुत्सित चेहरा प्रस्तुत करते हैं.
पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल का रक्तरंजित इतिहास रबिन्द्रनाथ टैगोर और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जैसी महान विभूतियों द्वारा प्रदत्त उसकी “शोनार बांग्ला” की छवि को भी धूमिल कर रहा है.
बंगाल की राजनीति वर्तमान में शायद अपने इतिहास के सबसे दयनीय दौर से गुज़र रही है. जहां वामदलों की रक्तरंजित राजनीति को उखाड़ कर एक स्वच्छ राजनीति की शुरुआत के नाम पर जो तृणमूल सत्ता में आई थी, आज सत्ता बचाने के लिए उस पर रक्तपिपासु राजनीति करने के आरोप लग रहे हैं.
हाल के लोकसभा चुनावों में भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ने के साथ ही राज्य में हिंसा के आंकड़े भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं. चाहे रोड शो के दौरान हिंसा की घटनाएं हों या परिवर्तन यात्रा को रोकने का प्रयास या फिर जेपी नड्डा के काफिले पर पथराव.
यही कारण है कि चुनाव आयुक्त को कहना पड़ा कि बंगाल में जो परिस्थितियां बन रही हैं, उससे यहां पर शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव करवाना चुनाव आयोग के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है. स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चुनाव आयोग इस बार 2019 के लोकसभा चुनावों की अपेक्षा 25 फीसदी अधिक सुरक्षा कर्मियों की तैनाती करने पर विचार कर रहा है.
लेकिन इस चुनावी मौसम में बंगाल के राजनैतिक परिदृश्य पर घोटालों के बादल भी उभरने लगे हैं जो कितना बरसेंगे, यह तो वक्त ही बताएगा. लेकिन वर्तमान में उनकी गर्जना तो देश भर में सुनाई दे रही है.
दरअसल, केंद्रीय जांच ब्यूरो ने राज्य में कोयला चोरी और अवैध खनन के मामले में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे और टीएमसी सांसद अभिषेक बैनर्जी की पत्नी रुजीरा बैनर्जी और उनकी साली को पूछताछ के लिए नोटिस भेजा है.
इससे कुछ दिन पहले शारदा चिटफंड घोटाला को लेकर भी आरोप लगे थे, इस मामले में सीबीआई ने दिसंबर 2020 में सर्वोच्च न्यायालय एक अवमानना याचिका दायर की थी. इसके अनुसार बंगाल के मुख्यमंत्री राहत कोष से तारा टीवी को नियमित रूप से 23 महीने तक भुगतान किया गया. कथित तौर पर यह राशि मीडिया कर्मियों के वेतन के भुगतान के लिए दी गई.
गौरतलब है कि जांच के दौरान तारा टीवी के शारदा ग्रुप ऑफ कम्पनीज का हिस्सा होने की बात सामने आई थी. सीबीआई का कहना है कि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री राहत कोष से तारा टीवी कर्मचारी कल्याण संघ को कुल 6.21 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया था. इससे कुछ समय पहले या यूं कहा जाए कि 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले भी इसी शारदा घोटाले की जांच को लेकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और केंद्र सरकार आमने सामने थीं.
देश की राजनीति अब उस दौर से गुज़र रही है, जब देश के आम आदमी को यह महसूस होने लगा है कि हिंसा और घोटाले चुनावी हथियार बनकर रह गए हैं. अगर बंगाल की ही बात करें तो एक तरफ चुनावों के पहले सामने आने वाले घोटालों से राज्य की मुख्यमंत्री और उनका कुनबा सवालों के घेरे में है. वहीं दूसरी तरफ जैसे जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, सत्तारूढ़ दल द्वारा सत्ता बचाने की जद्दोजहद में राजनैतिक हिंसा के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं.