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चीन के साथ कांग्रेस का गठजोड़..?

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अतीत की गलतियों के लिए कभी पश्चाताप करेगी नेहरु-गांधी कांग्रेस?

 – सूर्यप्रकाश सेमवाल

देश विरोधी गतिविधियों का समर्थन करना. देश की सुरक्षा, उसकी अस्मिता और जवानों के शौर्य पर संदेह करना. यह सब कांग्रेस की नीति और नीयत का अभिन्न अंग बन गया है. फिर चाहे.. CAA – जैसा राष्ट्रीय महत्त्व का संवेदनशील मुद्दा रहा हो या फिर जम्मू कश्मीर से आर्टिकल 370 का जाना या फिर हाल में लद्दाख में चीन के साथ झड़प का मामला. कांग्रेस ने हमेशा देश की संप्रभुता व सुरक्षा जैसे संवेदनशील मुद्दों पर उंगली उठाकर यही सिद्ध किया है.

आज वास्तविकता से बेखबर कांग्रेस का गांधी परिवार और उनके दरबारी 4-5 नेता लद्दाख में चीन के कब्जा करने की बात कहकर एक ओर देश की जनता को गुमराह कर रहे है और सेना का मनोबल गिराने का काम कर रहे हैं. उनसे कोई पूछे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार और तत्कालीन रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने सभी प्रभावित सीमान्त हिमालयी राज्यों में चीन की सीमा पर सड़कों के निर्माण का जो निर्णय लिया था, बाद में 10 साल कांग्रेस के नेतृत्व और कम्युनिस्ट पार्टियों के सहयोग वाली सरकार ने क्यों सब ठंडे बस्ते में डाल दिए? जब रक्षामंत्री एके एंटनी संसद में कह रहे थे कि चीन हमारे मुकाबले में बहुत आगे है, लेकिन हम सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं बढ़ाएंगे, तब पीएम मनमोहन सिंह को संचालित करने वाली यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी कहां थीं? चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस के बीच इसी कालखंड में जो समझौता हुआ वो क्या था? सोनिया और राहुल के बजाय वह सरकार के स्तर पर क्यों नहीं हुआ? डोक्लाम विवाद के दौरान जब केंद्र सरकार और पूरा देश ड्रैगन के विरुद्ध एक था, तब राहुल गांधी चीन के राजदूत को मिलने गए थे – क्यों?प्रोपेगेंडा की स्टार प्रियंका वाड्रा

फेक प्रोपेगेंडा की स्टार प्रियंका वाड्रा

राजीव गांधी फाउंडेशन को चीनी दूतावास से 90 लाख का अनुदान यूपीए सरकार के दौरान किस एवज में मिला? ये पूछने का हक देश को है. लद्दाख में चीन के साथ झड़प में देश के 20 वीर जवानों ने अपना बलिदान दिया. देश जवानों श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा था. तो दूसरी ओर कांग्रेस सरकार सवाल कर रही थी कि क्या वजह थी कि सैनिक अपने साथ हथियार लेकर नहीं गए?

कांग्रेस के सवाल पर विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने दो समझौतों का उल्लेख किया, जो 1996 और 2005 में हुए थे. हालांकि भारत और चीन के मध्य सीमा विवाद को सुलझाने के लिए पांच समझौते 1993, 1996, 2005, 2012 और 2013 में हुए थे. लेकिन इनमें 1996 और 2005 में हुआ समझौता अधिक महत्वपूर्ण है. 1996 के समझौते के अनुच्छेद 6 में कहा गया है कि कोई भी पक्ष एलएसी के दो किमी के दायरे में गोली नहीं चलाएगा. साथ ही इस क्षेत्र में खतरनाक रासायनिक हथियार, बंदूक, विस्फोट की अनुमति नहीं है.

क्या कांग्रेस को अपना स्वर्णिम इतिहास याद नहीं है? जब उसके राज में चीन ने भारत के कई भूभागों पर कब्ज़ा किया. 1962 में कांग्रेस राज के दौरान अक्सााई चिन, 2008 में चुमूर इलाके के तिया पैंगनक और चाबजी घाटी और 2008 में ही चीन ने देमजोक में जोरावर किले को ध्वभस्त2 किया. 2012 में PLA ने ऑब्जीर्विंग पॉइंट बनाकर 13 सीमेंटेड घरों के साथ चीनी, न्यूा देमजोक कॉलोनी बसाई. यूपीए राज में भारत ने दुंगटी और देमचोक के बीच दूम चेले (एंशियंट ट्रेड पॉइंट) को भी गंवाया.

चीन के साथ भारत के सम्बन्धों पर जब इतिहास की ओर नजर दौड़ाएंगे तो बिना किसी किन्तु-परन्तु के पं. जवाहरलाल नेहरु की ढुलमुल और उदासीनता वाली नीति पूरी तरह से इसके लिए ज़िम्मेदार है. यह भी संयोग की बात है कि जहाँ 1947 में एशिया का एक प्रमुख देश भारत अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ, वहीं पड़ोसी देश चीन में २ साल बाद अर्थात् 1949 मेंकम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग के नेतृत्व में सशस्त्र क्रान्ति हुई और कहने को चीन समाजवादी गणतंत्र के रूप में अस्तित्व में आया. खून खराबे और लाल सलाम के पर्याय माओ 1949 से मृत्यु पर्यन्त अर्थात् 1976 तक चीन के सर्वेसर्वा रहे. मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचार को माओ ने सैन्य शक्ति से जोड़ा और नागरिक अधिकारों को कुचलकर तानाशाही और दमन के बल पर साम्राज्य विस्तार की प्रणाली चलाई जो माओवाद के नाम से प्रचलित है और संपूर्ण दुनिया में अस्वीकृत हो चुकी है. लेकिन ड्रैगन के देश में २१वीं सदी के प्रवेशकाल में जिनपिंग स्वयं को माओ मानने के भ्रम में ही जी रहे हैं.

आजादी के बाद भारत में नेहरु जब प्रधानमंत्री बने तो विदेश मंत्रालय उन्होंने अपने पास ही रखा था. सरदार बल्लभभाई पटेल, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और तत्कालीन विदेश सचिव गिरिजाशंकर वाजपेयी ने नेहरु को आगाह किया कि कम्युनिस्ट चीन पर गंभीरता से नजर रखनी होगी, लेकिन नेहरु ने इसे हल्के में लिया. खानापूर्ति के लिए 1950 में राजदूत के एम पन्निकर को यह जानने के लिए भेजा कि माओत्से तुंग का मिजाज कैसा है, चीन से मिले आतिथ्य और माओ की थपकी ने नेहरु जी के दूत को ऐसा गदगद किया कि वे चीन के सुर में सुर मिलाने लगे.
केवल विरोध के लिए विरोध और शत्रु देश की नापाक हरकतों के बीच कांग्रेस और कम्युनिस्ट बिरादरी का जाना देशहित में नहीं है. चीन पर कांग्रेस का सॉफ्ट कोना इतिहास में भी सप्रमाण सिद्ध है और अब गांधी परिवार की कांग्रेस का कच्चा चिट्ठा तो देश दुनिया को पता लग ही गया है.

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