भाग दो
“धर्म” चतुर्पुरुषार्थ में सबसे पहला है. इसके अंतर्गत शिक्षा-संस्कार, जीवन संकल्प समन्वय एवं विधि व्यवस्था आती है. दूसरा पुरुषार्थ “अर्थ” है, इसमें साधन संपन्नता और वैभव आता है. यदि हम इन दोनों पुरुषार्थ को समग्र रूप से देखेंगे तो हम एक ऐसी व्यवस्था की कल्पना करेंगे जो अर्थव्यवस्था, रोजगार का साधन, उत्पादन, वितरण एवं उपयोग आदि सब नीति संगत हो, सदाचार पर आधारित हो, अनीति या अनाचार पर कुछ नहीं.
तीसरा पुरुषार्थ “काम” है. श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि ‘धर्माविरुद्धो कामोऽहम्’ अर्थात जो धर्म के अविरूद्ध है, मैं वह काम हूँ”. समस्त इच्छाएँ आकाक्षाएँ अथवा तृष्णाएँ इसके अन्तर्गत आती हैं, उन्हें संतुलित, समयानुकूल, सकारात्मक बनाना. यदि जीवन के लिये धर्म विरुद्ध काम होगा तो वह कल्याणकारी नहीं होगा, इसलिये काम को धर्म से जोड़ा गया है.
चौथा पुरुषार्थ मोक्ष है. वह जीवन के भीतर जीने की शैली हो या जीवन के बाद की अवधारणा. यही तो है कि व्यक्ति अभाव व प्रभाव की कुण्ठाओं से मुक्त हो जाता है. यह संतोष की परम् स्थिति है. यहाँ मोक्ष का आशय किसी पंथ धर्म-संप्रदाय से नहीं है. यह जीवन की वास्तविकता से जुड़ा है. यदि व्यक्ति संतोष से जुड़ा होगा तो ही वह समाज और राष्ट्र का आधार बनेगा. और संपूर्ण संसार पूरी सृष्टि को जोड़ने की दिशा में आगे बढ़ेगा. इसी अवधारणा के आधार पर वेद ने संपूर्ण वसुन्धरा के निवासियों को एक कुटुम्ब माना.
दीनदयाल जी के आर्थिक विचार
दीनदयाल जी के एकात्म मानव दर्शन में आर्थिक विचार भी महत्वपूर्ण हैं. उनके अनुसार किसी भी राज्य और समाज के लिए संतुलित और सतत आर्थिक विकास के लिये पूर्ण रोजगार एक प्राथमिकता होना चाहिए. उन्होंने कहा था कि “हमें सामान्य तौर पर ‘हर कामगार को भोजन मिलना चाहिए’ पर जोर देने के बजाय, इस बात को अपनी अर्थव्यवस्था का आधार बनाना चाहिए कि ‘हर व्यक्ति को खाने के साथ काम भी मिलना चाहिए”.
दीनदयाल जी ने अपने एकात्म मानव दर्शन को छह बिन्दुओं में अति संक्षिप्त कहा –
- प्रत्येक व्यक्ति के लिए कम से कम एक सामान्य जीवन स्तर और राष्ट्र की रक्षा के लिए पूरी तैयारी.
- सामान्य जीवन स्तर में अधिक विस्तार कैसे किया जाए, जिससे व्यक्ति और राष्ट्र को अपनी चित्ति के आधार पर प्रगति करने का अवसर मिले.
- हर नागरिक को ऐसे रोजगार का अवसर प्रदान करना, जिससे वह अपनी पूर्ण क्षमता और प्रतिभा के अनुरूप लक्ष्य प्राप्त कर सके.
- प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग संतुलन के साथ न्यूनतम हो.
- उत्पादन की उपलब्धता को ध्यान में रखकर भारतीय स्थितियों के अनुकूल यंत्रों का विकास हो. दीनदयाल जी आयातित प्राद्यौगिकी को हतोत्साहित करना चाहते थे और अधिकतम मानवशक्ति के उपयोग के पक्षधर थे. वे मशीनों को मानवीय प्रतिभा का प्रतिस्पर्धी नहीं, अपितु सहयोगी के रूप में स्थापित करना चाहते थे.
- राज्य, निजी रूप में विभिन्न उद्योगों का स्वामित्व तथ्यात्मक और व्यावहारिक आधार पर हो.
दीनदयाल जी स्वदेशी और विकेंद्रीकरण के समर्थक थे. उन्होंने कहा था – कुछ सालों में जाने-अनजाने ही सही केंद्रीकरण और एकाधिकार रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बनते जा रहे हैं. योजनाकार इस धारणा के गुलाम बन चुके हैं कि केवल बड़े पैमाने पर और केंद्रीकृत उद्योग ही लाभदायक है, और इसलिए इसके दुष्प्रभावों की चिंता किए बगैर, या जानबूझकर किसी मजबूरी में वे उस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.
स्वदेशीकरण का भी यही हाल है. उन्होंने कहा था – “स्वदेशी की अवधारणा को पुरानी और प्रतिक्रियावादी मानकर उसका उपहास बनाया जा रहा है. हम विदेशी वस्तु और विचार गर्व से उपयोग करते हैं. सोच, प्रबंधन, पूंजी, उत्पादन का तरीका, प्रौद्योगिकी आदि ही नहीं उपभोग के मानकों और स्वरूप स्तर तक विदेशी सहायता पर निर्भर हो गए हैं. यह रास्ता प्रगति और विकास की ओर नहीं ले जाता. हम अपनी विशेषताएँ भूल जाएंगे और मानसिक रूप से एक बार फिर गुलाम बन जाएंगे. उनका कहना था – “स्वदेशी के सकारात्मक पहलू को हमारी अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए एक आधारशिला के तौर पर इस्तेमाल किया जाना चाहिए”.
दीनदयाल जी की राष्ट्र की अवधारणा
दीनदयाल जी ने एक स्वाभिमानी राष्ट्र की अवधारणा भी प्रस्तुत की और कहा कि जब कोई मानव समूह किसी लक्ष्य, किसी आदर्श, किसी संकल्प शैली के साथ निवास करता है और भूमि के विशेष हिस्से के प्रति अपनी मातृभूमि का भाव रखता है तो यह एक आदर्श स्थिति होती है और एक राष्ट्र का निर्माण होता है. उन्होंने कहा था – यदि दोनों में से किसी एक मनोभाव में कमी होगी तो आदर्श राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता है. आदर्श राष्ट्र के लिये मातृभूमि के समर्पण का भाव होना आवश्यक है.
राष्ट्र के स्वत्व का भाव
दीनदयाल जी का मानना था कि जिस प्रकार प्राणी के शरीर में एक ‘स्व’ होता है, यही “स्व” व्यक्ति का केन्द्रीय भाव है. यह शरीर की केन्द्रीभूत चेतना है. यदि यह “स्व” शरीर का साथ छोड़ दे तो व्यक्ति को मृत मान लिया जाता है. इसी प्रकार किसी राष्ट्र के अपने मौलिक विचार, आदर्श और सिद्धांत होते हैं जो उसकी केन्द्रीभूत चेतना होते हैं. वही उस राष्ट्र की पहचान होते हैं. इसे हम चित्ति भी कहते हैं. प्रत्येक नागरिक को अपने राष्ट्र के “स्व” के प्रति समर्पित रहना चाहिए. दीनदयाल जी ने राष्ट्र के इस स्वत्व को चित्ति का नाम दिया और कहा कि राष्ट्र की चित्ति का निर्माण सहस्रों वर्षों की यात्रा से होता है और यही यात्रा एक संस्कृति का निर्माण करती है. जिसका संरक्षण करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होना चाहिए.
राज्य की भूमिका – दीनदयाल जी की दृष्टि
दीनदयाल जी ने कहा था – “राज्य एक संस्था है और इसका कई संस्थाओं में एक महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन यह अन्य सबसे ऊपर नहीं है”. दीनदयाल जी राज्य को समाज का सेवक मानते थे. उनकी दृष्टि में राज्य के अधिकार असीमित न हों और समाज राज्य से ऊपर रहे. तब ही वास्तविक प्रजातंत्र का स्वरूप उभरेगा.
वस्तुतः दीनदयाल जी के दर्शन में मानव और समाज सर्वोपरि रहा है, पर वह धर्म और सकारात्मक लक्ष्य की यात्रा के साथ.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने एकात्म मानव दर्शन का क्रांतिकारी विचार दुनिया को दिया. वह घर-गृहस्थी की तुलना में राष्ट्र सेवा को श्रेष्ठ मानते थे.
हम स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं. राष्ट्र की स्वाधीनता का अमृतत्व तभी सार्थक होगा, जब भारत आत्मनिर्भर होगा. आत्मनिर्भरता मानसिक, आत्मनिर्भरता वैचारिक, आत्मनिर्भरता आर्थिक, आत्मनिर्भरता तकनीकि विकास, सुरक्षा उत्पादन आदि सभी क्षेत्रों में. यह तभी संभव होगा, जब हम भारत के मौलिक चिंतन के अनुसार भविष्य की यात्रा का संकल्प लेंगे. और दीनदयाल उपाध्याय जी के समग्र चिंतन में यही संदेश विद्यमान है.
रमेश शर्मा