केरल भारत का ऐसा तटवर्ती राज्य है, जहाँ मुसलमान, ईसाई तथा कम्युनिस्ट मिलकर हिन्दू अस्मिता को मिटाने हेतु प्रयासरत हैं. यद्यपि वहाँ के हिन्दुओं में धर्म भावना असीम है; पर संगठित न होने के कारण उन्हें अपमान झेलना पड़ता. इसके बाद भी अनेक साधु सन्त वहां हिन्दू समाज के स्वाभिमान को जगाने में सक्रिय थे.
25 सितम्बर, 1933 को तिरुअनन्तपुरम् के अण्डुरकोणम् ग्राम में जन्मे स्वामी सत्यानन्द उनमें से ही एक थे. उनका नाम पहले शेखरन् पिल्लै था. शिक्षा पूर्ण कर वे माधव विलासम् हाई स्कूल में पढ़ाने लगे. 1965 में उनका सम्पर्क रामदास आश्रम से हुआ और फिर वे उसी के होकर रह गये. आगे चलकर उन्होंने संन्यास लिया और उनका नाम स्वामी सत्यानन्द सरस्वती हुआ.
केरल में ‘हिन्दू ऐक्य वेदी’ नामक संगठन के अध्यक्ष के नाते स्वामी जी अपने प्रखर भाषणों से जनजागरण का कार्य करते रहे. 1970 के बाद राज्य में विभिन्न हिन्दू संगठनों को जोड़ने में उनकी भूमिका अति महत्वपूर्ण रही. वे ‘पुण्यभूमि’ नामक दैनिक पत्र के संस्थापक और सम्पादक भी थे. आयुर्वेद और सिद्धयोग में निष्णात स्वामी जी ने ‘हर्बल कोला’ नामक एक स्वास्थ्यवर्धक पेय बनाया था, जो अत्यधिक लोकप्रिय हुआ.
स्वामी जी श्री रामदास आश्रम चेंगोट्टूकोणम (तिरुअनन्तपुरम्) के पीठाधिपति तथा ‘विश्व हिन्दू परिषद’ द्वारा गठित मार्गदर्शक मण्डल के सदस्य थे. उन्होंने देश विदेश में अनेक रामदास आश्रमों की स्थापना की. ‘यंग मैन्स हिन्दू एसोसिएशन’ तथा ‘मैथिली महिला मण्डलम्’ के माध्यम से उन्होंने बड़ी संख्या में हिन्दू परिवारों को जोड़ा. केरल की राजधानी तिरुअनन्तपुरम् में प्रतिवर्ष लगने वाले रामनवमी मेले का प्रारम्भ उन्होंने ही किया.
स्वामी सत्यानन्द जी के मन में केरल के हिन्दू समाज की चिन्ता सदा बसती थी. एक बार ईसाई मिशनरियों ने केरल के प्रसिद्ध शबरीमला तीर्थ की पवित्रता भंग करने का षड्यन्त्र किया. उन्होंने अंधेरी रात में मन्दिर के मार्ग में नीलक्कल नामक स्थान पर सीमेंट का एक क्रॉस गाड़ दिया. उनकी योजना उस स्थान पर एक विशाल चर्च बनाने की थी, जिससे शबरीमला मन्दिर के दर्शनार्थ आने वाले लाखों तीर्थयात्रियों को फुसलाया जा सके. ऐसे षड्यन्त्र पहले भी अनेक स्थानों पर कर चुके थे.
पर, केरल के हिन्दू संगठन इस बार चुप नहीं रहे. उन्होंने एक सर्वदलीय समिति बनायी और इतना व्यापक आन्दोलन किया कि मिशनरियों को अपना क्रॉस वहाँ से हटाना पड़ा. हिन्दू समाज की उग्रता को देखकर शासन को भी पीछे हटना पड़ा. अन्यथा अब तक तो वे हर बार ईसाईयों का ही साथ देते थे. स्वामी सत्यानन्द जी की इस आन्दोलन में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही. उनके प्रति सभी साधु संन्यासियों तथा हिन्दू संगठनों में इतना आदर था कि सब थोड़े प्रयास से ही एक मंच पर आ गये.
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर निर्माण के लिए चले आन्दोलन में भी स्वामी जी बहुत सक्रिय रहे. इसीलिए जब-जब भी कारसेवा या अन्य कोई आह्नान हुआ, केरल से भारी संख्या में नवयुवक अयोध्या गए. हिन्दू समाज को 73 वर्ष तक अपनी अनथक सेवाएँ देने वाले स्वामी जी का 24 नवम्बर, 2006 को देवलोकगमन हो गया.