सिक्ख योद्धाओं ने काबुल-कंधार तक फहराई केसरी पताका
नरेंद्र सहगल
दशमेश पिता गुरु गोबिंद सिंह जी ने भारतवर्ष की सशस्त्र भुजा खालसा पंथ को सजाकर विधर्मी मुगल शासकों को उखाड़ फेंकने के लिए स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी थी. इस जंग-ए-आजादी में गुरु जी ने अपने पूज्य पिता, अपने चारों पुत्रों एवं हजारों रणबांकुरे सिंहों के बलिदान के बाद निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त किया.
दशम गुरु के जोति-जोत समाने (परलोक गमन) के पश्चात उनके सिंह सेनापतियों ने आजादी की इस जंग को और भी ज्यादा प्रचंड करके मुगल साम्राज्य को जढ़मूल से उखाड़ फैंका. ‘पंजाब की विजय गाथा’ नामक पुस्तक में सरदार चिरंजीव सिंह लिखते हैं – ‘जिस दिल्ली में गुरु तेगबहादुर जी को हजारों लोगों के बीच बलिदान किया गया था. जहां बंदाबहादुर के 700 शूरवीरों के सर कलम करके जुलूस निकाला गया. जहां बंदासिंह बहादुर को गरम सलाखों से नोच-नोच कर अमानवीय यातनाएं देकर मारा गया, उसी स्थान पर गुरु गोबिंद सिंह जी व बंदासिंह बहादुर की आगामी पीढ़ियों ने खालसा पंथ का भगवा झंडा लहरा दिया.”
दो सिंह सेनापतियों जस्सासिंह आहलूवालिया और जत्थेदार बघेलसिंह ने पंजाब के अधिकांश क्षेत्र और दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्रों को जीतकर अपने अधीन कर लिया. इस विजयी सैन्य अभियान के बाद इन सिंह सेनापतियों ने दिल्ली को फतह करने की योजना बनाकर दिल्ली को चारों ओर से घेर लिया. दिल्ली के लालकिले पर केसरी झंडा फहराने के पहले बकायदा निकटवर्ती इलाकों शाहदरा और गाजियाबाद को स्वतंत्र करवाकर अपने सैनिक कब्जे में ले लिया गया.
निरंतर आगे बढ़ रही सिंह सेना ने 10 मार्च, 1787 में लालकिले को जीतकर खालसा राज की स्थापना की घोषणा कर दी. उल्लेखनीय है कि दशम गुरु के पश्चात उनके द्वारा खालसा पंथ में दीक्षित बंदासिंह बहादुर ने पूरे 800 वर्ष के बाद हिन्दुओं को प्रतिकार करना सिखाया. हथियारबंद सिंहों ने स्वतंत्रता की पहली जंग को जीता. इसके पश्चात जत्थेदार बघेलसिंह और जस्सासिंह अहलूवालिया जैसे सेनानियों ने पुनः स्वतंत्रता का बिगुल बजा दिया.
विधर्मी शासकों की पराजय और स्वदेशी सेनानायकों की विजय के इस स्वर्णिम इतिहास को आगे बढ़ाया महाराजा रणजीत सिंह ने. भक्ति और शक्ति की दशगुरु परम्परा की घोर तपस्या के फलस्वरूप एक ऐसी क्षात्र शक्ति तैयार हुई, जिसने भारत को हजारों वर्षों की परतंत्रता से राहत दिलाई. इसी परंपरा के अंतर्गत महाराजा रणजीत सिंह ने स्वतंत्र सिक्ख राज्य की स्थापना की.
महाराजा रणजीत सिंह बालपन से ही निडर साहसी और निर्भय योद्धा थे. उन्होंने मात्र 11 वर्ष की आयु में ही गुजरात में एक युद्ध की कमान संभाली और सोदरा नामक किले को जीतकर वहां केसरी ध्वज फहराया. ध्यान दें कि छत्रपति शिवाजी ने भी लगभग इसी आयु में तोरण नामक किले पर चढ़ाई करके उसे मुगल सूबेदार से स्वतंत्र करवाकर भगवा ध्वज फहराया था. महाराजा रणजीत का सारा जीवन युद्धभूमि में तलवार के वार करने में बीता.
इस सिक्ख सेनापति ने लाहौर को अपनी राजधानी बनाकर अपने सैन्य अभियानों का संचालन किया. इस कालखंड अर्थात 18वीं शताब्दी में स्वतंत्रता के लिए हुए सभी संघर्षों के कारण हिन्दू समाज में अनेक सिक्ख सेनानायक सिर धड़ की बाजी लगाने के लिए तैयार हो गए. अनेक क्षेत्रों में सिक्ख सेनापतियों ने अपने स्वतंत्र राज्य भी स्थापित कर लिए थे. महाराजा रणजीत सिंह ने अपने शौर्य एवं राजनीतिक चातुर्य से इस बिखरी हुई शक्ति को एक सूत्र में बांधने में सफलता प्राप्त की.
इस तरह एक शक्तिशाली सिक्ख राज्य की स्थापना के पश्चात महाराजा रणजीत सिंह की दृष्टि पूरे उत्तर भारत पर जम गई. अपने कुशल सेनानायकों के साथ विधर्मी शक्तियों से लोहा लिया और देखते ही देखते इस राज्य की सीमाएं काबुल, कंधार, तिब्बत और लद्दाख तक फैल गई. महाराजा अपनी दूरदृष्टि और वीरता के साथ सिक्ख राज्य को विजयी बनाने में सफल हुए. महाराजा के नेतृत्व में तैयार सिक्ख सेना किसी भी शक्तिशाली सेना का मुकाबला करने में सक्षम थी. महाराजा स्वयं भी तलवार के धनी थे.
सेनापति सरदार हरिसिंह नलवा जैसे शूरवीरों ने तो अफगानिस्तान तक जाकर केसरी ध्वजा लहरा कर विदेशी शासकों को चुनौती दी थी. बंदासिंह बहादुर ने जिस विजयी सैन्य अभियान का श्रीगणेश किया था, उसे महाराजा रणजीत सिंह और उनके बहादुर सेनापति सरदार हरिसिंह नलवा ने अजय शक्ति में बदल दिया.
गुजरांवाला (पश्चिमी पंजाब) के रहने वाले हरिसिंह की सैनिक और सामान्य शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी. इस वीर बालक को किसी बड़े सेनानायक ने भी सैन्य शिक्षा नहीं दी. जिस प्रकार एकलव्य ने बिना किसी प्रत्यक्ष गुरु की दीक्षा के ही अद्भुत सैनिक शिक्षा प्राप्त कर ली थी, उसी प्रकार 15 वर्षीय बालक हरिसिंह ने भी अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के बल पर सभी प्रकार के सैनिक दांव-पेच सीख लिए. इस तरह युवा हरिसिंह एक वीर सैनिक कमांडर के रूप में तैयार हुए.
महाराजा रणजीत सिंह ने इस वीरपुरुष को अपनी सेना की एक विशेष टुकड़ी का कमांडर बनाया. इस नए कमांडर ने सिक्ख राज्य का चारों ओर विस्तार करने में विशेष भूमिका निभाई. सेनानायक हरिसिंह नलवा ने अपने जीवन में जितनी भी लड़ाइयां लड़ीं, सब में विजय प्राप्त की. हरिसिंह नलवा की वीरता और उसके युद्ध कौशल को देखकर महाराजा ने उसे पेशावर पर चढ़ाई करके उसे खालसा राज में मिलाने का आदेश दिया. महाराज ने अपने सुपुत्र कुंवर नौनिहाल सिंह को भी नलवा के साथ भेजा. पेशावर के शासक की फौज हरिसिंह के फौजी तूफान के आगे टिक नहीं सकी.
बहुत शीघ्र ही पेशावर खालसा फौज के अधीन हो गया. 8 शताब्दियों से भारत से टूटा हुआ पेशावर पुनः भारत में शामिल हो गया. पेशावर की जनता ने भारत में शामिल होने के इस ऐतिहासिक अवसर पर दीपावली मनाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की. औरंगजेब के समय में हिन्दुओं पर लगा जजिया टैक्स हरिसिंह नलवा ने समाप्त कर दिया. नलवा ने काबुल-कंधार तक के क्षेत्र को सिक्ख राज्य में मिला दिया था. पूरे अफगानिस्तान में हरिसिंह नलवा का वर्चस्व इतना बढ़ गया था कि उसके नाम तक से पठान लोग भयभीत हो जाते थे. पठान माताएं अपने बच्चों को इस तरह डराती थीं – “चुप शुस हरिया शगंला बिआइद” अर्थात – आराम से चुपचाप सो जा, नहीं तो नलवा आ जाएगा.
सेनापति हरिसिंह नलवा ने तलवार के बल पर 8 शताब्दियों के परतंत्रता के इतिहास को बदलकर भारत के इस हिस्से को आजाद करवा लिया. अफगानिस्तान में विधर्मी शासकों के समय हिन्दू मंदिर, तीर्थ स्थल, आश्रम कुछ भी सुरक्षित नहीं थे. हिन्दू बहन-बेटियों के अपहरण, उनको गजनी तथा इसके बाहर अरब देशों में ले जाकर बेच देने की अमानवीय प्रथा का प्रचलन था. हरिसिंह नलवा ने इस काले धंधे को समाप्त करने में विशेष भूमिका निभाई.
बहादुर सिक्ख सेनापतियों की शूरवीरता का इतिहास बहुत लंबा है. गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा सृजित खालसा पंथ के सेनापतियों बंदासिंह बहादुर, रणजीतसिंह, हरिसिंह नलवा इत्यादि ने दबे कुचले और विभाजित समाज को शक्तिशाली बनाकर विधर्मी शासकों को युद्ध के मैदान में पराजित करके भारत के एक हिस्से को स्वतंत्र करवाया और शेष भारत को भी एक करके अखंड भारत राष्ट्र की जमीन तैयार कर दी.
……….क्रमश:
(वरिष्ठ लेखक, पत्रकार)