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भाषा के प्रति डॉ. आम्बेडकर का राष्ट्रीय दृष्टिकोण

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लोकेन्द्र सिंह

बाबा साहेब डॉ. भीमराव आम्बेडकर के लिए भाषा का प्रश्न भी राष्ट्रीय महत्व का था. उनकी मातृभाषा मराठी थी. अपनी मातृभाषा पर उनका जितना अधिकार था, वैसा ही अधिकार अंग्रेजी पर भी था. बाबा साहेब संस्कृत, हिंदी, पर्शियन, पाली, गुजराती, जर्मन, फारसी और फ्रेंच भाषाओं के भी विद्वान थे. मराठी भाषी होने के बाद भी बाबा साहेब जब राष्ट्रीय भाषा के संबंध में विचार करते थे, तब वे सहज ही हिन्दी और संस्कृत के समर्थन में खड़े हो जाते थे. महाराष्ट्र के अस्पृश्य बंधुओं से संवाद करना था, तब उन्होंने मराठी भाषा में समाचार पत्रों का प्रकाशन किया. जबकि उस समय के ज्यादातर बड़े नेता अपने समाचारपत्र अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित कर रहे थे. बाबा साहेब भी अंग्रेजी में समाचार पत्र प्रकाशित कर सकते थे, अंग्रेजी में उनकी अद्भुत दक्षता थी. परंतु, भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान और अपने लोगों से अपनी भाषा में संवाद करने के विचार ने उन्हें मराठी में समाचार पत्र प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया होगा. यदि बाबा साहेब ने अंग्रेजी में समाचार पत्रों का प्रकाशन किया होता, तब संभव है कि वे वर्षों ‘मूक’ समाज के ‘नायक’ न बन पाते और न ही उनके हृदय में स्वाभिमान का भाव जगा पाते. वहीं, जब उनके सामने राष्ट्रभाषा का प्रश्न आया, तब उन्होंने अपनी मातृभाषा की ओर नहीं देखा, वे भाषा के प्रश्न पर भावुक नहीं हुए, बल्कि तार्किकता के साथ उन्होंने हिन्दी और संस्कृत को राष्ट्रभाषा के रूप में देखा.

संविधान निर्माण के समय जब राष्ट्रभाषा और राज्य व्यवहार की अधिकृत भाषा का विषय आया, तब संविधान सभा में बाबा साहेब ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के प्रस्ताव का समर्थन किया. इस प्रस्ताव के समर्थन में लक्ष्मीकान्त मैत्र, टी. टी. कृष्णमाचारी, डॉ. बालकृष्ण केसकर (तत्कालीन विदेश उपमन्त्री), प्रा. नजीरुद्दीन अहमद, डॉ. आम्बेडकर तथा मद्रास-त्रिपुरा-मणिपुर-कुर्ग प्रान्तों के सदस्य थे. प्रा. नजीरुद्दीन अहमद ने संस्कृत का समर्थन करते हुए प्रस्ताव को सदन के पटल पर रखा और कहा कि एक ऐसे देश में जहां ढेरों भाषाएं बोली जाती हैं, वहां यदि एक भाषा को पूरे देश की भाषा बनाना चाहते हैं तो जरूरी है कि वह निष्पक्ष हो. उन्होंने पश्चिमी विद्वानों के उद्धरण देकर भी संस्कृत भाषा की अतुलनीय समृद्धि एवं शुद्धता को भी प्रमाणित किया. संस्कृत प्रा. शाहिदुल्ला ने तो यहाँ तक कहा कि व्यक्ति किसी भी वंश का हो, संस्कृत प्रत्येक की भाषा है. लक्ष्मीकान्त मैत्र ने कहा कि संस्कृत को मान्यता देकर जग को यह बता सकेंगे कि हम अपने प्राचीन वैभव का कितना आदर करते हैं. संस्कृत को स्वीकार कर हम भावी पीढ़ी का उज्ज्वल भविष्य निर्माण कर सकते हैं. परंतु, दुर्भाग्य यह कि डॉ. आम्बेडकर द्वारा संस्कृत भाषा के विषय में सुझाये संशोधन को स्वीकार नहीं किया गया. संविधान की आठवीं अनुसूची में उसे मात्र एक भारतीय भाषा का स्थान दिया गया.

इस सन्दर्भ में एक ओर प्रसंग है. राष्ट्रभाषा पर केन्द्रीय कक्ष में विविध समूहों में चर्चा चल रही थी, तब लोगों को यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि चर्चा के समय डॉ. आम्बेडकर एवं लक्ष्मीकान्त मैत्र आपस में त्रुटिहीन संस्कृत में चर्चा कर रहे थे. डॉ. आम्बेडकर की इच्छा थी कि संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने के विषय में शे. का. फेडरेशन के कार्यकारी मण्डल में 10 सितम्बर, 1949 को प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए, परन्तु बी. पी. मौर्य जैसे कुछ तरुण सदस्यों के विरोध के कारण वह सम्भव न हो सका. राष्ट्रभाषा के संबंध में पत्रकारों ने बाबा साहेब से पूछा कि आप संस्कृत का समर्थन क्यों कर रहे हैं? तब उन्होंने कहा – “संस्कृत में क्या दोष है?”

संस्कृत के अलावा बाबा साहेब ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा और राज्य के व्यवहार की भाषा बनाने के लिए प्रयास किया. इस संबंध में 2 जून, 1956 को प्रकाशित ‘जनता’ के अंक में उनके विचारों को प्रकाशित किया गया है. बाबा साहेब को चिंता थी कि कहीं भाषा के आधार पर बने राज्य एक-दूसरे के विरुद्ध न खड़े हो जाएं? आधुनिक भारत के निर्माण की जगह कहीं मध्ययुगीन भारत न बन जाए? इस स्थिति से बचने के लिए बाबा साहेब ने हिन्दी को राज्य भाषा बनाने का सुझाव दिया. बाबा साहेब लिखते हैं – “संविधान में यह व्यवस्था रखी जाए कि क्षेत्रीय भाषा किसी भी राज्य की राजभाषा नहीं होगी. राज्य की राजभाषा हिन्दी रहेगी”. भाषा को देश की एकजुटता का साधन बताते हुए बाबा साहेब आगे लिखते हैं – “एक भाषा जनता को एकसूत्र में बांध सकती है. दो भाषाएं निश्चित ही जनता में फूट डाल देंगी. यह एक अटल नियम है. भाषा, संस्कृति की संजीवनी होती है. चूँकि भारतवासी एकता चाहते हैं और एक समान संस्कृति विकसित करने के इच्छुक हैं, इसलिए सभी भारतीयों का यह भारी कर्तव्य है कि वे हिन्दी को अपनी भाषा के रूप में अपनाएं”.

यह तथ्य आज भी प्रमाणित है कि भारत में भावनात्मक एकता और राष्ट्रीय एकात्मता हिन्दी द्वारा ही संभव है. बाबा साहेब ने तो यहाँ तक कर दिया था कि जो भी भाषा पर मेरे इस प्रस्ताव को नहीं स्वीकार करता, उसे भारतीय कहलाने का अधिकार नहीं. वह शत-प्रतिशत महाराष्ट्रीयन, शत-प्रतिशत तमिल या शत-प्रतिशत गुजराती तो हो सकता है, किंतु वह सही अर्थ में भारतीय नहीं हो सकता, चाहे भौगोलिक अर्थ में भारतीय हो. जब संविधान सभा में राष्ट्रभाषा के लिए हिन्दी का प्रस्ताव आया तो कांग्रेस पार्टी के नेता दो समूहों में बँट गए. एक, हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्ष में था, वहीं दूसरा समूह हिन्दी का विरोध कर रहा था. भाषा के विषय को लेकर संविधान सभा में सर्वाधिक विमर्श हुआ.

बाबा साहेब भाषा के प्रश्न को केवल भावुकता की दृष्टि से नहीं देखते थे. बल्कि उनके लिए भाषा को देखने का राष्ट्रीय दृष्टिकोण था. संस्कृत हो या फिर हिन्दी, दोनों भाषाओं के प्रति उनकी धारणा थी कि ये भाषाएं भारत को एकसूत्र में बांध कर संगठित रख सकती हैं और किसी भी प्रकार के भाषायी विवाद से बचा सकती हैं.

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