भाग एक
विश्व की आधुनिक शासन प्रणालियों में बहुत से सिद्धांत सामने आए. इन सिद्धातों को सूत्र रूप प्रस्तुत करने के लिये कुछ शब्द भी आए. जैसे साम्यवाद, पूँजीवाद, समाजवाद, आदि. दीनदयाल जी ने इन सबको अपूर्ण और अव्यवहारिक बताया और एकात्म मानव दर्शन प्रस्तुत किया. जिसका आधार चतुर्पुरुषार्थ है.
दीनदयाल जी “वाद” शब्द के समर्थक नहीं थे. उनका कहना था कि यदि वाद होगा तो इसका प्रतिवाद भी होगा. और प्रतिवाद होगा तो विवाद होगा. जीवन के विकास का सिद्धांत विवाद और प्रतिवाद रहित होना चाहिए. क्योंकि विवाद और प्रतिवाद में अनावश्यक ऊर्जा और समय नष्ट होता है, नकारात्मकता उत्पन्न होती है. जबकि भविष्य की विकास यात्रा विवाद रहित होनी चाहिए.
प्रकृति विविधता से भरी है. विविधता ही प्रकृति का सौन्दर्य है. तब इसे एक स्वरूप कैसे माना जा सकता है. एक आदर्श व्यवस्था वह है जो प्रत्येक प्राणी या जीवन को उसके मौलिक स्वरूप और गुण कर्म के आधार पर विकास का अवसर दे. यदि एक व्यक्ति पुरुषार्थ कर रहा है और दूसरा व्यक्ति अकर्मण्य है, तब दोनों में साम्य कैसे होगा. दूसरा यदि पूँजी को प्रधानता दी तो अनाचार बढ़ेगा. व्यक्ति को मार्ग या कुमार्ग का कोई भान नहीं होगा और वह केवल पूँजी के पीछे भागेगा. तीसरा समस्त मानवों का महत्व तो समान हो सकता है, पर समाज तो समूह से बनता है और समूह के मूल में क्षेत्रीयता और गुण धर्म होता है. अतएव हमें साम्यवाद, पूँजीवाद, समाजवाद या मानववाद की बात करने की बजाय मानव दर्शन की बात करनी चाहिए. और इसका आधार चार पुरुषार्थ होना चाहिए.
पं. दीनदयाल जी ने भारतीय वांग्मय का गहराई से अध्ययन किया था. चतुर्पुरुषार्थ का सिद्धांत वेदों, उपनिषदों और पुराणों में वर्णित है. जिसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में विभाजित किया गया है. दीनदयाल जी ने धर्म को उसके व्यापक संदर्भ में परिभाषित किया. पूजा, उपासना पद्धति धर्म का एक भाग अवश्य है, पर वही संपूर्ण नहीं. धारणीय कर्त्तव्य को धर्म कहा गया. जैसे शिक्षक का धर्म पढ़ाना है. ठीक उसी प्रकार मोक्ष को लक्ष्य की परम् स्थिति मानते थे. जिस प्रकार आध्यात्मिक जीवन का लक्ष्य परम् मुक्ति है, उसी प्रकार हमारे कर्म कर्त्तव्य की भी परम् स्थिति हमारा लक्ष्य प्राप्त करना है. उन्होंने व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के लिये चार पुरुषार्थ के आधार पर एक जीवन दर्शन दिया. जिसे एकात्म मानव दर्शन कहा गया.
यह एकात्म मानव दर्शन पहली बार 1964 में जनसंघ के ग्वालियर अधिवेशन में रखा गया और अगले विजयवाड़ा अधिवेशन में सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया. दीनदयाल जी ने 22 से 25 अप्रैल 1965 में चार दिन लगातार दर्शन पर आधारित व्याख्यान दिया. जिसमें आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक स्वरूप का प्रस्तुतिकरण था.
यह एक ऐसी अवधारणा है जो समूची सृष्टि के जीवन को अभिव्यक्त करती है. सब परस्पर सह-अस्तित्व है. एक दूसरे के पूरक हैं, सहयोगी हैं. तब कैसे कोई एक पक्ष दूसरे को छोड़कर अपना विस्तार कर सकता है. दीनदयाल जी ने पश्चिमी और अन्य विदेशी अवधारणाओं के आधार पर भारत के भविष्य की कल्पना करने वालों से आग्रह किया कि जब भारत ने विदेशी और पाश्चात्य साम्राज्य को नकार दिया, तब हमें उनकी नीतियाँ और दर्शन भी नकार देने चाहिए.
दीनदयाल जी ने इस मानसिकता से उबरने का आह्वान किया कि “हमें कुछ संशोधनों के साथ पाश्चात्य शैली को ही स्वीकारना पडे़गा क्योंकि हमारे पास कोई अपना चिंतन नहीं, कोई मार्ग नहीं है. हम तो राष्ट्र थे ही नहीं. पाश्चात्यों ने ही आकर हमको राष्ट्र बनने के लिए तैयार किया है”.. आदि-आदि. दीनदयाल जी ने दृढ़ता से कहा कि भारत तो उस समय भी एक राष्ट्र रहा है, जब विश्व की संस्कृतियों का अंकुरण भी नहीं हुआ था. हमारी राष्ट्र-राज्य परिकल्पना ‘सांस्कृतिक राष्ट्रभाव’ की है. हमारी एक गौरव सम्पन्न राष्ट्र परंपरा है. जिसके केन्द्र में ज्ञान है. हमें इसी ज्ञान-परम्परा में भारत का भविष्य खोजना चाहिए. विदेशी जगत की प्रथमिकता में मानव नहीं है. केवल विजय है और आर्थिक समृद्धता का चिंतन जो मानवीय अधिकार और मान दोनों के लिये घातक है. इसीलिए पश्चिम का अभियान कोई हो – वह धार्मिक हो, आर्थिक हो या फिर राजनैतिक सब में टकराहट है. सब मनुष्य को अपना दास बनाना चाहते हैं. जबकि भारत मानवीय सम्मान को महत्व देता है. दीनदयाल जी ने पश्चिमी चिंतन को अधूरा बताया. उन्होंने कहा कि यह एक मानवीय चर्चा है. हमें भी जानना चाहिए और कुछ सीखना भी चाहिए, लेकिन यदि इसमें कोई द्वंद्वमूलक निष्कर्ष आता है तो हमें उसका अनुपालन नहीं करना चाहिए.
पं. दीनदयाल जी ने कहा कि हमें भविष्य के विकास की परिकल्पना में मानव से मानव तक नहीं, अपितु मानव से इस मंडलाकार सृष्टि के एकात्म स्वरूप को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना होगा. भारत में इसी चिंतन यात्रा को धर्म कहा गया है ‘यतो अभ्युदय निःश्रेयस संसिद्धि स धर्म’. अर्थात् यह व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि व परमेष्ठि की एकात्मता का विचार है.
उन्होंने चेतावनी दी कि साम्यवाद के नाम पर जो मार्ग खोजा गया है, यह तानाशाही की ओर जा रहा है. मनुष्य विकास के नाम पर प्रकृति से युद्ध कर रहा है, जो भविष्य में विनाश की भयानक विभीषिका को आमंत्रण है. अध्यात्म को अनदेखा नहीं किया जा सकता. यदि ऐसा हुआ तो मन स्वेच्छाचारी होगा और इन्द्रियाँ भोग के लिये लालायित. इससे दुख के अतिरिक्त कुछ न मिलेगा. उन्होंने स्पष्ट किया कि भारतीय चिंतन अधिकार भाव का नहीं, सेवा भाव का है, संबंध भाव का है. तभी तो सबसे रिश्ते जोड़े. धरती ‘माता’ है, चन्द्रमा मामा है, पर्वत ’देवता’ है, नदियां ‘माता’ है. चींटी से लेकर हाथी तक सभी परस्पर जुड़े हुए हैं. संसार में दूसरा नहीं, कोई पराया नहीं. सब एक दूसरे के पूरक हैं. पूरी धरती और धरती के समस्त निवासी एक कुटुम्ब हैं. एकात्मता में ही समग्रता है.
समग्रता के अभाव में नकारात्मकता आती है, तनाव आता है. मानवता आक्रांत होती है. ब्रह्माण्ड की समग्रता की भाँति ही व्यक्ति की भी समग्रता होती है. सुख, संतोष और आनंद के लिये इस समग्रता का ही चिंतन करना होगा. जिस प्रकार व्यक्ति का अस्तित्व केवल शरीर नहीं होता, मन, बुद्धि और आत्मा होती है. शरीर में अंग-प्रत्यंग होते हैं. इनमें से एक की कमी व्यक्ति को विकलांग बना देती है. उसी प्रकार सृष्टि के विराट स्वरूप की पूर्णता ही मानव अस्तित्व की पूर्णता है.
दीनदयाल जी ने कहा कि सरकार को केवल सत्ता संचालन का यंत्र नहीं कहा जा सकता. वह समाज भी है, उसे संस्कृति से पृथक नहीं माना जा सकता. वैसे ही सृष्टि के पंच-महाभूतों “पृथ्वी, जल, आकाश, प्रकाश व वायु” को शुद्ध सुरक्षित रखते हुए आगे बढ़ना है. तभी मानव सुखी होगा. समष्टि, सृष्टि तथा परमेष्ठी से एकात्म हुआ मानव ही विराट पुरुष है. जो ‘धर्म, अर्थ काम और मोक्ष’ के रूप में चतुर्पुरुषार्थ कहलाते हैं, इनकी सम्पूर्ति ही एक आदर्श समाज और राष्ट्र व्यवस्था का रूप होगा.
रमेश शर्मा