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सामाजिक समरसता और उल्लास का पर्व : होली

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मृत्युंजय दीक्षित

भारतीय संस्कृति में होली के पर्व का अद्वितीय स्थान है. यह उमंग, उल्लास, उत्साह और मस्ती का पर्व है. होली का पर्व सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने वाला पर्व है. होली का पर्व जलवायु परिवर्तन का भी संकेत देता है. होली का पर्व हिन्दू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला पर्व है. वर्तमान में यह पर्व दो दिन तक मनाया जाता है. पर्व का प्रारम्भ होलिका दहन से होता है. अगले दिन जनमानस अबीर, गुलाल और गीले रंगों के साथ तथा पर्यावरण प्रेमी टेसू के फूलों के रंग  के साथ होली खेलने का आनंद लेते हैं. कहीं – कहीं यह पर्व आज भी अपनी प्राचीन परम्परा के अनुरूप रंगभरी एकादशी से प्रारंभ होकर सप्ताह भर तक मनाया जाता है. होली के पर्व को धुरंडी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन भी कहा जाता है. इस दिन लोग एक दूसरे के साथ प्रेम के रस में सराबोर हो जाते हैं. होली के पर्व को “वसंतोत्सव” या “कामोत्सव” भी कहा गया है.

भक्त प्रह्लाद की श्री हरि विष्णु के चरणों में अनन्य भक्ति इस उत्सव की आध्यात्मिक प्राण रेखा है. संस्कृत साहित्य में होली के विभिन्न रूपों का वर्णन मिलता है. श्रीमदभागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन मिलता है. होली पर्व का वर्णन जिन साहित्य में मिलता है, उसमें जैमिनी के पूर्व मीमांसा सूत्र और कथाग्राहसूर्य उल्लेखनीय हैं. नारद और भविष्यपुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है. हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नालीला तथा कालिदास की कुमारसंभवम तथा मालविकाग्निमित्रम में होली का वर्णन मिलता है. भारवि, माघ और कई अन्य संस्कृत के कवियों ने बसंत और होली की खूब चर्चा की है. चंदवरदाई के पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन मिलता है. आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर सूर, रहीम, रसखान, जायसी, मीरा, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव आदि कवियों का प्रिय विषय होली रहा है. महाकवि सूरदास ने होली पर 78 पद लिखे हैं. अवध में रघुवर और सिया, ब्रज में कृष्ण और राधिका होली के नायक नायिका हैं.

इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों भित्तिचित्रों, मंदिरों की दीवारों पर होली उत्सव के चित्र देखने को मिलते हैं. विजयनगर की राजधानी हंपी के 16वीं शताब्दी के एक चित्रफलक में दंपति के होली मनाने का चित्र अंकित किया गया है. इस चित्र में राजकुमार और राजकुमारी को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ होली खेलते दिखलाया गया है. 16वीं शताब्दी में अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय बसंत रागिनी भी है. इस चित्र में राज परिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते दिखलाया गया है. साथ ही अन्य सेवक – सेविकाएं रास रंग में व्यस्त हैं. वे एक – दूसरे पर पिचकारियों से रंग भी डाल रही हैं. मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के रंग देखने को मिल जाते हैं. उदाहरण के रूप में 17वीं शताब्दी में मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपनी रानियों के साथ चित्रित किया गया है. एक अन्य चित्र में राजा को हाथीदांत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है, जिसके गाल पर महिलाएं रंग मल रही हैं.

होली का पर्व पूरे भारत में, हर प्रांत में अलग-  अलग प्रकार से मनाया जाता है. सबसे अधिक आकर्षण का केंद्र बिंदु ब्रज की होली है. जिसमें बरसाने की लट्ठमार होली सर्वाधिक प्रसिद्ध है. मथुरा – वृंदावन में होली का पर्व 15 दिनों तक मनाया जाता है. कुमाऊँ में गीतकों की होली में संगोष्ठियों का आयोजन होता है, जिसे बैठकी होली कहते हैं. इससे मिलती जुलती परंपरा झारखण्ड में भी देखने को मिलती है. हरियाणा के धुलेंडी क्षेत्र में भाभी द्वारा देवर को सताने की प्रथा है. बंगाल में चैतन्य महाप्रभु की जयन्ती धूमधाम से मनाया जाती है. महाराष्ट्र में होली का पर्व रंग पंचमी के रूप में मनाया जाता है. पंजाब में होली का पर्व होला मोहल्ला के रूप में मनाया जाता है. तमिलनाडु में यह पर्व कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोत्सव है. इसी प्रकार छत्तीसगढ़ की होरी में लोकगीतों की अदभुत परम्परा है. मालवा के अंचलों में यह पर्व भगोरिया नाम से बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है.

होली के दिन सामाजिक समरसता का वातावरण देखने को ही मिलता है. इस पर्व के साथ खान पान और पकवान की भी कई परम्पराएं जुड़ी हैं. जिनमें सबसे लोकप्रिय परम्परा गुजिया बनाने की है. गुजिया केवल होली के पर्व पर ही बनने  वाला पकवान है. इसके अतिरिक्त घरों में विशेष परम्परागत भोजन बनाने की परम्परा है. यह भोजन और पकवान भी एक अलग प्रकार से समाज में मिठास घोलता है व मानव जीवन में एक नया उत्साह और उमंग तथा जोश भरता है. होली और होलाष्टक के दिनों में केवल होली की बातें की जाती हैं तथा इस दौरान समाज में अन्य प्रकार के प्रचलित धार्मिक और मांगलिक कामों का वार्तालाप बंद रहता है.

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