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लोकगीतों व लोक साहित्य सामाजिक समरसता के दर्शन होते हैं – दत्तात्रेय होसबाले जी

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लखनऊ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले जी ने इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में आयोजित कार्यक्रम में लोकगायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी की पुस्तक ‘चंदन किवाड़’ का लोकार्पण किया।

पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम में मुख्य अतिथि सरकार्यवाह जी ने कहा कि लोकगीतों में सामाजिक समरसता के दर्शन होते हैं। भारत की आत्मा एक है, किन्तु उसके प्रकटीकरण अनेक हैं। भारत की संस्कृति एक है, उसकी अभिव्यक्ति अनेक हैं। पुस्तकों से पढ़ा गया इतिहास जानकारी के लिए हो सकता है, लेकिन जीने का पाथेय तो भारत के सांस्कृतिक इतिहास, लोकगीत, लोकसंगीत, लोकनृत्य, लोकसाहित्य, और भारत की हजारों बोलियों में है। जब प्रकृति और व्यक्ति का एकत्व हो जाता है तो लोकगीत प्रकट होते हैं। मैं मूलत कन्नड़ भाषी हूं, अतः मुझे ध्यान आता है कि हमारे यहां भी एक लोकगीत है, जिसका हिंदी रूपांतरण है कि “मैं सुबह उठकर किस-किस का वंदन करूं। तिल और धान को उगाने वाली भूमि ही मेरी मां है, अत: उसी को पहले प्रणाम कर दिन की शुरुआत करूं।” इसी प्रकार हमारे वेदों में “माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:” कहा गया है।

उन्होंने कहा कि पुस्तक में शिष्ट संस्कृति और लोक संस्कृति दोनों का समावेश है। हमारे पूर्वज बिना लिखे ही पहले विषयों को पीढ़ी दर पीढ़ी बताते गए, जिससे वे ‘ओरल ट्रेडिशनल होते गए। विश्व में केवल ईसा पूर्व की संस्कृतियों में ही स्त्रीत्व में दैवीत्व देखा गया। सेमेटिक रिलिजन आने के पश्चात उन्होंने डिविनिटी को स्त्रीत्व में देखा नहीं; किंतु प्राचीन भारत के तत्कालीन प्रभाव के कारण सेमेटिक रिलिजन पूर्व बची कुछ सभ्यताओं ने स्त्रीत्व में दैवीत्व को देखा है। हमारे देश में शक्ति की आराधना स्त्री की आराधना है। गांव की महिलाओं द्वारा आलू बोने से पहले कन्या को देवी के रूप में श्रृंगार कर, उसका पूजन करना शक्ति आराधना का सहज व दिव्य रूप है।

सरकार्यवाह जी ने बताया कि कुछ वर्षों पहले प्राचीन सभ्यताओं व संस्कृति के लिए एक मंच इंटरनेशनल कॉउंसिल फॉर कल्चरल स्टडीज़ बनाया गया। इसमें दुनिया के 20 देश शामिल होते हैं। अलग-अलग देशों में यह कार्यक्रम होते हैं, किन्तु हर चौथे वर्ष में वह आयोजन भारत में होता है। इसके हर वर्ष की एक थीम होती है। मुंबई के जिस कार्यक्रम में मैं शामिल हुआ, उसकी भी एक थीम थी – स्त्रियों में दैवीत्व के दर्शन। उन लोगों ने अपने-अपने देश की कहानियों, कथाओं में वर्णन की चर्चा की थी।

उन्होंने कहा कि भारत के सर्वसमाज के लोगों ने कर्म को ही पूजा मानकर भारत को संपन्न बनाया है। लोकगीतों में इसे आज भी संजोकर रखा गया है और पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ाते गए। केवल नगर में रहने वाले, शिष्ट, सुशिक्षित विद्वानों से भारतीय संस्कृति नहीं बनी, भारत की संस्कृति कर्म को पूजा रूप में निभाते रहने वाले सर्वसामान्य लोगों से बनी है।

उन्होंने कहा कि आज मातृभाषा दिवस है। अत: अगली पीढ़ी को संस्कारित बनाने के लिए अपने बच्चों को मातृभाषा जरूर सिखाएं। वह जर्मन सीखे, फ्रेंच सीखे, इंग्लिश सीखे, लेकिन मातृभाषा जरुर सिखाइये। मैं हिन्दी भाषी नहीं हूँ। मैंने इंग्लिश में एमए किया है। हम किसी क्लास में हिंदी सीखने नहीं गए। संघ में हमने हिन्दी सीखी है। अतः मातृभाषा को प्रोत्साहन दीजिये।

कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख स्वांतरंजन जी, प्रदेश के उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक जी, प्रांत प्रचारक कौशल जी, राष्ट्रधर्म के निदेशक मनोजकांत जी, क्षेत्र प्रचारक प्रमुख राजेंद्र जी आदि उपस्थित रहे।

2 thoughts on “लोकगीतों व लोक साहित्य सामाजिक समरसता के दर्शन होते हैं – दत्तात्रेय होसबाले जी

  1. दत्तात्रेय होसबाले जी ने लोकगीतों और लोक साहित्य के माध्यम से समाज की गहरी सामाजिक समरसता को उजागर किया है। उनका कहना है कि भारत की सांस्कृतिक धारा का वास्तविक रूप लोकगीतों, लोकसंगीत, और लोकसाहित्य में बसा हुआ है, जो हमारी सामाजिक एकता और विविधता का प्रतीक हैं। भारतीय समाज का असली इतिहास पुस्तकों से नहीं, बल्कि हमारे लोकगीतों और संस्कृति में जीवित रहता है। यह गीत न केवल हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखते हैं, बल्कि हमारे समाज की गहरी नैतिक और आदर्श धारा को भी प्रदर्शित करते हैं।

    उनके द्वारा प्रस्तुत विचारों में यह भी स्पष्ट हुआ कि भारतीय संस्कृति का सार केवल शिष्ट संस्कृतियों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सर्वसामान्य जीवन, कर्म और पूजा में समाहित है। भारतीय लोकगीतों में यह संदेश हर जगह पाया जाता है कि कर्म ही पूजा है और प्रत्येक व्यक्ति का योगदान समाज के उत्थान में महत्वपूर्ण है।

    दत्तात्रेय होसबाले जी का यह विचार अत्यंत प्रेरणादायक है कि मातृभाषा को सिखाना और उसे संरक्षित रखना अत्यंत आवश्यक है। उन्होंने स्वयं अपने अनुभव से यह बताया कि किस प्रकार उन्होंने संघ में हिंदी सीखी, जिससे यह सिद्ध होता है कि मातृभाषा को सिखने की आवश्यकता केवल हमारे बच्चों के लिए नहीं, बल्कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए है।

    साथ ही, उन्होंने भारतीय लोककला और संस्कृति की महत्ता को रेखांकित करते हुए यह कहा कि हमारे प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों को पूरी दुनिया में पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है। लोकगीतों में न केवल हमारे सामाजिक रिश्तों की अभिव्यक्ति होती है, बल्कि यह हमारी सामूहिक चेतना और सामाजिक समरसता को भी बल देती है।

    इस कार्यक्रम से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति और लोकगीतों का प्रचार-प्रसार न केवल सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करता है, बल्कि समाज के भीतर एकता और समरसता को भी प्रोत्साहित करता है। इसलिए, हमें अपने लोक साहित्य और लोकगीतों को संजोकर रखने की आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इन्हें अपनाकर एक मजबूत और समृद्ध समाज का निर्माण कर सकें।

  2. मौखिक साहित्य परम्परा भारतीय जनमानस की आत्मा है राष्ट्रीय स्वयंसेवक के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने लोकगायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी की पुस्तक ‘चंदन किवाड़ ‘ पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर व्यक्त किये । होसबाले का यह वक्तव्य पूर्णतया भारतीय जनमानस की मौखिक साहित्य परम्परा को व्यक्त करता है । लोक गीतों में भारतीय सामाजिक समरसता के दर्शन होते हैं। लोकसाहित्य में भाषाओं और बोलियों की सीमाएँ नहीं है वहाँ सम्पूर्ण भारतीय जनमानस एक है। बहुत ही प्रेरणादायक वक्तव्य है।

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