नई दिल्ली. भारत प्रकाशन द्वारा आयोजित पर्यावरण संवाद कार्यक्रम के छठे सत्र में उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल के ‘भगीरथ’ सच्चिदानंद भारती ने अपनी सरलता, स्पष्टता और सादगी से ही एक संदेश दिया. सत्र का संचालन कर रही ऋचा अनिरुद्ध द्वारा पहले कदम के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि पिछले चार दशकों से उपरैखाल नामक छोटी जगह पर लोगों के साथ मिलजुल कर पानी और जंगल को हमने जो काम किया, आज पाञ्चजन्य परिवार द्वारा उस काम को प्यार और आदर दिए जाने से यह काम न जाने कितना गुना फैल गया. आज से पहले यहां उपस्थित कई लोग ऐसे होंगे, जिन्होंने उपरैखाल का नाम सुना भी नहीं होगा.
सच्चिदानंद भारती ने कहा कि पाञ्चजन्य ने और परिचय देते हुए उमेंद्र दत्त जी ने इतना बता दिया कि अब कुछ शेष नहीं है. परंतु सत्र है तो चार दशकों से जुड़े लोगों की कहानी कहने का अवसर है. उत्तराखंड के जिस क्षेत्र में ये काम हुआ, उसके आसपास पहले जंगल था और जंगल से जुड़ा जीवन था. भोजन लकड़ियों पर बनता था. छोटे बच्चे, माताएं लकड़ी ले आती थीं. जानवरों के बैठने के लिए घास आती थी, घर बनाने का सामान जंगल से आता था. जिस गांव का अपना जंगल नहीं होता था, उसे दूसरे गांव के जंगल पर निर्भर रहना पड़ता था. दूसरे गांव के लोग जब चाहे मना कर सकते थे, कुछ बोल-सुना सकते थे. हमने सोचा कि हर गांव का अपना जंगल होगा तो हर गांव का स्वाभिमान होगा. इसके लिए महिला मंगल दल से बात की क्योंकि जंगल से जुड़े अधिकतम काम महिलाएं ही करती थीं. छोटे-छोटे टुकड़ों में जंगल बनाने शुरू हुए. ऐसे पेड़ लगाए गए जो उन महिलाओं के काम के थे. इस तरह पेड़ लगाने का सिलसिला चल पड़ा.
सच्चिदानंद जी ने कहा कि चूंकि मैं ये काम कर रहा था तो लोगों को मुझ पर भरोसा होना जरूरी था. लोग नेतृत्व में आदर्श जीवन देखते हैं. इस तरह ये काम फैला. सूखा पड़ा तो हमारे पेड़ भी सूखे. उन्हें जिलाने के लिए हमने पेड़ों के आसपास छोटे-छोटे गड्ढे बनाए. इसके बाद देशभर में पानी की परंपराओं को समझने का अवसर मिला. देश में पानी बचाने, पानी की सरा-संभाल की भव्य परंपरा है. तब विचार आया कि उत्तराखंड में भी ऐसी कोई परंपरा होगी. पता किया तो पता चला कि उत्तराखंड में दो-ढाई सौ साल पहले तत्कालीन समाज ने पानी बचाने के लिए चाल खाल की परंपरा बनाई थी. इसमें पानी रोकने के लिए 32 कदम गुणे 32 कदम गुणे 3 कदम के गड्ढे बनाए जाते थे. इसी चाल खाल की पद्धति को थोड़ा संशोधित करते हुए हमने एक या दो वर्ग मीटर के गड्ढे बनाए. हमने इसे जल तलैया नाम दिया.
इसी दौरान एक आश्चर्यजनक घटना हुई. 1999 में एक सूखा रौना में हमेशा पानी रहने लगा. यह खबर अखबारों में छपी. उस खबर के आधार पर वर्ल्ड बैंक की फंडिंग टीम आई. उसने 1000 करोड़ रुपये की फंडिंग का प्रस्ताव किया. हमने मना कर दिया. ये खबर भी छपी. उन दिनों स्वदेशी आंदोलन चल रहा था. उन लोगों ने इस खबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक आदरणीय कुप्प. सी. सुदर्शन जी को पढ़ाया. इसके बाद सुदर्शन जी का उपरैखाल आने का कार्यक्रम बना. तब अचानक बहुत से लोग आने लगे और पूछताछ करने लगे. छह-सात टीमें पूछताछ करके चली गईं तो उमेंद्र जी, जो उन दिनों स्वदेशी आंदोलन में थे, हितेश जी, जो उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र थे और सिरोही जी उपरैखाल पहुंचे. यह सुदर्शन जी के आने के पहले की तैयारी थी.
सरकार के लोग आए और पूछा कि हमारे लायक कोई काम बताओ. उपरैखाल की सड़क का काम 27 सालों से अटका था. सुदर्शन जी के आने के पहले 14 दिन में यह सड़क बन गई. स्थानीय लोगों को लगा कि सुदर्शन जी कोई महात्मा हैं जो अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से भी बड़े आदमी हैं. उन दिनों बिल क्लिंटन भारत आए थे. सुदर्शन जी 6 अप्रैल की रात को पहुंचे. उन्हें जहां उतरना था, उससे पहले ही दो-ढाई हजार लोग पहुंच गए, और उन्हें उतार लिया और कंधे पर बैठा कर गांव ले आए. ये लोग सुदर्शन जी जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे. संघ की संस्कृति में व्यक्ति के नाम का जयकारा नहीं लगाया जाता. इसलिए उन्हें रोका गया, परंतु लोग जयकारे लगाते रहे. लोगों को लग रहा था कि यह एक ऐसे महात्मा हैं, जिनके नाम पर 27 वर्ष से अटकी सड़क आनन-फानन में बन सकती है.
सुदर्शन जी रात 11 बजे तक लोगों के बीच रहे. मंडोर की रोटियां, हलवा बना था. यह सात हजार फुट ऊंचाई की घटना है. सुदर्शन जी तीन दिन उपरैखाल रहे. आसपास के 40 से अधिक गांवों में गए. 800 वर्ग हेक्टेअर में से लगभग 8 हेक्टेअर के जंगल में घूमे. हमने उनके नाम पर उस वन का नाम सुदर्शन वन रखा है. इसमें 2000 देवदार के पेड़ भी लगाए गए हैं. सरसंघचालक जी के उपरैखाल आने पर पूरे देश में इस काम की चर्चा हो गई. तीन दिन सुदर्शन जी रहे तो लोगों को लगा कि यहां कुछ बड़ा काम हुआ है. फिर दुनिया के कई देशों के लोग आने लगे. पिछले दिनों ‘मन की बात’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने सवा दो मिनट तक उपरैखाल का जिक्र किया. फिर पाञ्चजन्य ने इस कार्य को विस्तार से प्रकाशित किया. मैं इन सभी का आभार व्यक्त करता हूं.
ऋचा अनिरुद्ध ने पूछा कि आपने विश्व बैंक की फंडिंग को मना कर दिया. आपके हाथ पैसा आता तो सदुपयोग होता. इस पर सच्चिदानंद जी ने कहा कि सभी एनजीओ को अच्छे तरीके से काम करना चाहिए. एनजीओ में आईआईटी, आईआईएम के पढ़े लिखे पेशेवर लोग काम करते हैं. वे बढ़िया काम कर रहे हैं. परंतु हमने इस काम को सेवा के रूप में लिया है. हम हिमालय देवता की पूजा करते हैं. यह काम हमारे लिए पूजा है. हमारा कोई प्रोजेक्ट नहीं है. हमारा जीवन भर का, पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाला काम है. फंड की एक सीमा होगी. लोग प्रोजेक्ट की तरह जुटेंगे तो प्रोजेक्ट खत्म होने पर लोग अलग हो जाएंगे. हमारे 40 हजार जल तलैया हैं, किसी में कोई गंदगी नहीं है. प्रोजेक्ट होता तो आज सफाई में ही हजारों लोग लगाने पड़ते. परंतु सेवा है तो ये जल तलैया की नियमित निगरानी और सफाई होती है.
सच्चिदानंद जी ने एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि विनाश रहित विकास होना चाहिए या यूं कहें कि न्यूनतम विनाश और अधिकतम विकास होना चाहिए. पेड़ भी मनुष्य के लिए हैं और सड़कें भी. सड़क के लिए पेड़ काटने होंगे, परंतु पेड़ काटने पर पेड़ लगाने का भी प्रावधान है. उन्होंने उदाहरण दिया कि उपरैखाल केदारनाथ जी के दूसरी ओर है. जब केदारनाथ जी में तबाही आई तो उपरैखाल में भी पानी आया था. परंतु उपरैखाल में एक फुट भी जमीन नहीं बही क्योंकि उपरैखाल में पहले ही जमीन बचाने की तैयारी हो चुकी थी. जिस तरह का विकास होगा, परिणाम उसी तरह के होंगे.
दूधाटोली में 70 हजार पेड़ों को काटना तय हुआ, 400 मजदूर भी पहुंच गए थे. हम लोग गए और अपनी बात कही. कटान रुका. पवित्र भाव से काम करेंगे तो सरकार भी सुनती है. इस काम को देश के दूसरे इलाकों में लेकर जाने के सवाल पर कहा कि मूलत: जो हिमालयी राज्य हैं, वहां जाने पर पता चला कि जल तलैया का काम असम और हिमाचल प्रदेश में भी होने लगा है. इसके अलावा कुछ अन्य पर्वतीय देशों में भी यह काम किया गया है. जिन पहाड़ी देशों में पहाड़ की ढाल 60 डिग्री से कम हो, वहां कढ़ाईनुमा 1 घन मीटर के चाल खाल बनाए जा सकते हैं. हर व्यक्ति को पर्यावरण के संरक्षण के लिए अपने घर से ही शुरुआत करनी चाहिए.