शीतल पालीवाल
आप आजकल मेवाड़ के गांवों में जाएंगे तो संभव है कि अधिकांश गांव आपको लाइव रंगमंच के रूप में दिखाई दें. गांव के चोरों (चौराहों) पर कुछ लोग थाली-मादल के साथ नाचते गाते व अभिनय करते हुए दिख जाएं.
लोकनृत्यों के सिरमौर राजस्थान के लोकनृत्य/नाट्य गवरी का मंचन राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र (उदयपुर, राजसमंद, चित्तौड़, भीलवाड़ा) में रक्षाबंधन के अगले दिन यानि भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा से आरम्भ होकर पूरे चालीस दिन तक चलता है. राजस्थान की भील जनजाति के इस उत्सव में पूरा हिन्दू समाज भाग लेता है. गवरी का मंचन देखने न केवल पूरा गांव, बल्कि आसपास के गांवों के लोग व उनके रिश्तेदार सभी आते हैं.
भील जनजातीय साधक यानि शिव-शक्ति के साधक, जो स्वयं को मां शक्ति अर्थात पार्वती के परिवारजन तथा महादेव को अपना जमाई मानते हैं. भक्ति में सराबोर होकर जितनी उमंग से नृत्य करते हैं, इनकी साधना उतनी ही अनुशासित होती है. चालीस दिनों तक चलने वाले इस मंचन के दौरान गांव के हर घर में इन साधकों के लिए भोजन बनता है. सबका श्रद्धा भाव देखते ही बनता है. भोजन के रूप में सूखी सब्जी, दाल आदि ही बनती है क्योंकि गवरी मंचन करने वाले ये ‘खेल्ये’ सवा महीने तक अपनी साधना के क्रम में हरी सब्जी नहीं खाते. रंगमंच का शास्त्र भारत की समृद्ध परम्परा है और गवरी इसके स्थानीय स्वरूप का उत्कृष्ट उदाहरण.
गवरी में किया जाता है विभिन्न नाट्यों का मंचन
मीणा – बंजारा, काना गुजरी, राई बुढ़िया आदि पात्रों में कुछ पात्र दानव होते हैं, जो बुराई के प्रतीक माने जाते हैं तथा अच्छे पात्र दैवीय शक्तियों के प्रतीक होते हैं. गवरी बुराई पर अच्छाई की विजय दर्शाती है. नाट्य मंचन पूरे दिन होता है, हर खेल के अंत में बुराई पर अच्छाई की विजय होती है और फिर सभी खेल्ये (नाट्य मंचन करने वाले) घेरा बनाकर थाली व मादल (मेवाड़ के पारम्परिक वाद्य यन्त्र) पर नाचने लगते हैं.
गांव के चौराहे पर, जहां गवरी की जाती है, वहां मां की चौकी होती है. मां की नित्य अर्चना, धूप बत्ती के लिए भोपजी (भील पंडित, जो गवरी के समय मां की सेवा में रहते हैं) गांव में हर एक के घर से धूप, बत्ती लाते हैं. गांव के हर जाति – समाज के लोगों में सामूहिकता का भाव देखते ही बनता है. जिस गांव के खेल्ये होते हैं, वह उस गांव की गवरी होती है. जिस गांव में गवरी होती है, उस गांव की विवाहित बहन बेटियों का उत्साह अतुलनीय होता है क्योंकि वे गवरी का मंचन न केवल अपने गांव में, बल्कि उन सभी गांव में जाकर करते हैं, जहां उस गांव की (सर्वसमाज की) बहन बेटियों का ससुराल होता है.
मंचन में हास्य रस का समावेश
मंचन के बीच-बीच में वाणिया, पूलिया आदि हास्य खेल दर्शकों को खूब हंसाते हैं. अंतिम दिन का खेल होता है ‘किला लूटना’. इस खेल का कथानक मां काली व चित्तौड़ किले पर आधारित है. मुग़ल चित्तौड़ किले में मां काली के मंदिर में गौ वध का प्रयास करते हैं व मां काली के भक्त मां की शक्ति के साथ इसे रोकते हैं और इस प्रकार पुनः बुराई पर अच्छाई की विजय के साथ गवरी का समापन होता है.
गांव के कुम्हार के घर गोरजा (गौरा /गवरी) के लिए हाथी व महावत की मूर्तियां तैयार की जाती हैं. कुम्हार पूरे भक्ति भाव से मूर्तियां तैयार करते हैं. गवरी विसर्जन के पहले रात को जागरण होता है, जिसे गड़ावन कहा जाता है. अंतिम दिन यानी चालीसवें दिन विवाह उत्सव जैसा दृश्य होता. यह दिन गवरी के विसर्जन का दिन होता है. इसे वळावन कहा जाता है. स्थानीय लोग गवरी का इस भाव से जल में विसर्जन करते हैं कि विवाह के पश्चात मां की विदाई हो रही है और महादेव उन्हें लेने आए हैं. मां की प्रतिमा के विसर्जन के साथ ही सबकी सुख समृद्धि की कामना की जाती है. एक लोक नृत्य किस प्रकार समाज जीवन में आस्था, मनोरंजन, सामाजिक समरसता व सामूहिकता का भाव लाता है, गवरी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है.