सर्वोच्च न्यायालय में एक बार फिर समलैंगिकता के विषय पर बहस चल रही है. वर्तमान भारतीय समाज में बढ़ती इस विकृति पर भारतीय समाज के सभी पक्षों का मत सुनना महत्वपूर्ण है. समलैंगिक विवाह जैसी संस्था पूर्णतः पश्चिमी संस्कृति की उपज है.
यह अमानवीय व अप्राकृतिक यौन संबंध पश्चिम की विकृत मानसिकता का लक्षण है. भारतीय समाज की संस्कृति गौरवशाली रही है. इसमें किसी भी तरह के अनुचित व अप्राकृतिक भोग को कभी भी स्थान नहीं दिया गया. विधायिका के सात-साथ समाज को भी इस तरह के कृत्यों पर नियंत्रण के लिए विचार करना होगा.
भारत में वामपंथियों द्वारा ऐसे विषयों को एक सुनियोजित ढंग से उठाया जाता रहा है और इसके पीछे उनकी मंशा रहती है कि किसी भी तरह से भारतीय संस्कृति को बदनाम करना व भारतीय संयुक्त परिवार संस्था को तोड़ना.
भारतीय न्यायशास्त्र में विवाह को एक पवित्र संस्कार व बंधन बताया गया है, ना कि किसी तरह की संविदा या फिर शारीरिक भोग की एक साधारण संस्था! यहां तक कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र – राजनीति पर एक ग्रंथ में भी समलैंगिकता का उल्लेख है.
लेकिन पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि समलैंगिकता में लिप्त लोगों को दंडित करना राजा का कर्तव्य है, क्योंकि समलैंगिक लोग समाज की बुराई हैं. आखिर क्या कारण है कि वर्तमान में कुछ तथाकथित आधुनिक वर्ग पश्चिम को देखकर इस बुराई को अपना रहे हैं?
यहां तक कि कई धार्मिक व वैज्ञानिक जानकारों ने भी कहा है कि “समलैंगिकता शास्त्रों के अनुसार एक अपराध है और अप्राकृतिक भी. लोग खुद को एक समाज से अलग नहीं मान सकते.
एक समाज में, एक परिवार एक पुरुष और एक महिला से बनता है, न कि एक महिला और एक महिला से, या एक पुरुष और एक पुरुष से. यदि ये समलैंगिक जोड़े बच्चों को गोद लेते हैं, तो बच्चा एक विकृत परिवार मानसिकता के साथ बड़ा होगा.
समाज बिखर जाएगा. उस बच्चे-बच्ची का पूर्ण विकास नहीं हो सकता. वह बच्चा भारतीय समाज की विवाह व परिवार जैसी संस्था को कभी समझ ही नहीं पाएगा और न ही पूर्णतः अपने जीवन को.
अगर हम पश्चिम के उन देशों को देखें, जिन्होंने समान-लिंग विवाह की अनुमति दी है, तो आप पाएंगे कि वे किस मानसिक तनाव से पीड़ित हैं. और किस तरह से वहाँ का समाज दिनों दिन मानसिक विकृतियों से जूझ रहा है.
विगत दिनों में उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष एक मामले में समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का विरोध करते हुए कहा था, “इस तरह के विवाह भारतीय संस्कृति और भारतीय धर्म के खिलाफ हैं और भारतीय कानूनों के अनुसार अमान्य होंगे, जिन्हें एक पुरुष और एक महिला की अवधारणा को ध्यान में रखकर बनाया गया है.”
कई मनोचिकित्सकों ने स्पष्ट कहा है कि “समलैंगिकता स्पष्ट मनोवैज्ञानिक विकार है, जिसका उपचार चिकित्सकों द्वारा किया जाना चाहिए.”
वहीं महान दार्शनिक ओशो ने कहा था, “समलैंगिकता एक यौन विकृति है, जो पश्चिमी समाज की देन है!”
कुछ वर्ष पहले जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को कानूनी दृष्टि से उचित ठहराया तो समाज में भारी विरोध हुआ और कितने ही लोगों ने इस तरह के निर्णय को भारतीय संस्कृति व नैतिक मूल्यों के खिलाफ बताया था.
भारत सरकार भी सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिकता के विषय पर अपने जवाब में कह चुकी है कि “समलैंगिकों का जोड़े के रूप में साथ रहना और शारीरिक संबंध बनाने की, भारत की पारिवारिक इकाई की अवधारणा से तुलना नहीं हो सकती.”
एक बार फिर इस विषय पर सर्वोच्च न्यायालय व न्यायिक संस्थाओं में बहस शुरू हो गई है. ऐसे में भारतीय समाज व विवाह जैसी पवित्र संस्था के लिए जरुरी है कि इस बहस के माध्यम से यह पश्चिमी मानसिक विकृति समाप्त हो.
दूसरी बात यह विषय विधायिका के कार्यक्षेत्र का है, ना कि न्यापालिका का. आखिर हमारा समाज प्रकृति के विरुद्ध कैसे जा सकता है. न्यायशास्त्र में प्राकृतिक न्याय व नैतिक मूल्यों का सबसे ज्यादा महत्व है.
भूपेन्द्र भारतीय, अधिवक्ता