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हिन्दी केवल भाषा नहीं, हमारी परंपरा-सभ्यता की पहचान रही है

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पल्लवी अनवेकर

एक बार एक मां अपने बच्चे को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई करने के फायदे गिनवा रही थी. अंग्रेजी की महत्ता समझा रही थी. अंग्रेजी किस तरह हमारे जीवन में रची बसी है, उसके उदाहरण दे रही थी. उसकी बातें सुनने के बाद बच्चे ने बड़ी ही मासूमियत से अपनी मां से पूछा कि अगर अंग्रेजी हमारे इतने ही करीब है तो हमें सपने हिंदी में क्यों आते हैं? अंग्रेजी में क्यों नहीं आते? उस बच्चे के प्रश्न का उत्तर मां के पास नहीं थी. वह खुद भी इस बात को झुठला नहीं सकती थी कि चाहे हम कितनी ही कोशिश कर लें, पर हमें सपने या तो हमारी मातृभाषा में आते हैं या फिर हिंदी में. अर्थात् हमारे अवचेतन मन की भाषा या तो हमारी मातृभाषा है या फिर हिंदी. इसीलिये विज्ञान भी कहता है कि मातृभाषा या हिंदी में पढ़ी गई बातें हमें जल्दी याद होती हैं और देर तक याद रहती हैं. परंतु मानसिक परतंत्रता को ढोती आ रही पीढ़ीयों ने इस सत्य को अस्वीकार कर दिया और हिंदी को व्यावहारिकता से दूर कर दिया.

आज भी अपनी भाषा के आधार पर अपना उत्थान करने वाले इजराइल, चीन, जर्मनी, जापान जैसे राष्ट्रों के उदाहरण तो दिए जाते हैं, परंतु उन उदाहरणों को भारत और हिंदी के संदर्भ में व्यावहारिक तौर पर उतारने में असमर्थता जताई जाती है. सच्चाई तो यह है कि भारत में जितनी व्यावहारिक भाषा हिंदी हो सकती है, उतनी कोई और हो ही नहीं सकती.

हम अपनी पूरी दिनचर्या पर यदि गौर करें तो हम कार्यालयीन कार्यों के अलावा लगभग सारे काम हिंदी में ही करते हैं. यहां तक कि कार्यालयों में भी फाइलों और कंप्यूटर के कार्य छोड़ दिए जाएं तो अन्य सभी कार्य हिंदी में ही किए जाते हैं. कार्यालय में अधिकतर सहकारी आपस में हिंदी में ही बात करते हैं. बाज़ार में सामानों की खरीददारी से लेकर टैक्सी ऑटो रिक्शा वालों से बात करने तक के सारे काम हिंदी में ही किए जाते हैं. क्षेत्रीय भाषाओं में भी वार्तालाप होता है, परन्तु तभी जब बोलने और सुनने वाला दोनों वह भाषा समझता हो. अगर कोई एक भी वह भाषा नहीं समझता तो दूसरी भाषा के रूप में हिंदी को ही प्रधानता दी जाती है. अगर इतना सब हिंदी में हो रहा है तो हिंदी को पिछड़ा मानने का क्या कारण है?

वास्तविकता तो यह है कि भाषा कभी भी पिछड़ी होती ही नहीं है. पिछड़ापन होता है उसके उपयोग के तरीके में. भाषा तो किसी नदी की तरह प्रवाही होती है. उसे जहां रास्ता मिलेगा अर्थात् जहां उसके प्रयोग करने वाले लोग मिलेंगे, वहां वह प्रवाहित होती जाएगी. हिंदी को पिछड़ा साबित करने के लिए जानबूझकर उसके प्रवाह को रोका गया था. बाजारवाद, वैश्वीकरण जैसे भारी- भरकम शब्दों के बोझ तले उसे दबाने की चेष्टा की गई. परंतु अब उसी बाजारवाद ने हिंदी को एक नया विस्तार दिया है.

बाजार का अर्थ अब केवल क्रेता और विक्रेता तक सीमित नहीं रहा है. अब बाजार आपके मनोभावों पर भी ध्यान देता है. तकनीकी प्रगति के बाद लोग क्या पढ़ रहे हैं, कितनी देर तक पढ़ रहे हैं, कौन सी भाषा में पढ़ रहे हैं, इस पर भी बाजार की नजर है. कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर हम यह कहें कि हिंदी अखबारों की वेबसाइट्स ने करोड़ों नए हिंदी पाठकों को अपने साथ जोड़कर हिंदी को और समृद्ध बनाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इंटरनेट पर हिंदी के बढ़ते चलन से माना जा रहा है कि अगले साल तक हिंदी में इंटरनेट उपयोग करने वालों की संख्या अंग्रेजी में इसका उपयोग करने वालों से ज्यादा हो जाएगी. कई सर्च इंजनों का मानना है कि हिंदी में इंटरनेट पर सामग्री पढ़ने वाले प्रतिवर्ष लगभग 94 फीसदी बढ़ रहे हैं, जबकि अंग्रेजी में यह दर हर साल 17 फीसदी रही है. सन् 2021 तक इंटरनेट पर 20.1 करोड़ लोग हिंदी का उपयोग करने लगेंगे. आज फेसबुक, व्हाट्सएप, अमेजॉन, जैसी सोशल नेटवर्किंग और ई-कॉमर्स साइट भी अपने उत्पादों के लिए हिंदी में विज्ञापन प्रस्तुत कर रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि भारत में अंग्रेजी की तुलना में हिंदी जानने और समझने वाले लोग अधिक हैं. यह हिंदी के प्रचार-प्रसार और वैश्विक स्वीकार्यता का ही परिणाम है कि आज हिंदी अपने तमाम प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ते हुए लोकप्रियता का आसमान छू रही है. आज दुनिया के 176 विश्वविद्यालयों में हिंदी विषय के रूप में पढ़ाई जाती है. हिंदी वहां अध्ययन, अध्यापन और अनुसंधान की भाषा भी बन चुकी है.

भारतीय जीवन में हिंदी का स्थान केवल भाषा के रूप में नहीं रहा है; वरन् यह हमारी परंपरा और सभ्यता की पहचान रही है, हमारी भावना को मुखर करने का माध्यम रही है, हमारी अभिव्यक्ति का साधन रही है और संकट काल में हमारी शक्ति रही है. परस्पर संबंधों को अधिक मजबूत बनाने के लिए हिंदी संभाषण से अधिक प्रभावी माध्यम और कोई नहीं है. उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक भारत एकात्म है. इस एकात्मता को प्रदर्शित करने वाले सूत्रों में हिंदी का महत्वपूर्ण स्थान है. इस स्थान को अडिग बनाए रखने के लिए हमें हिंदी को न केवल बचाना होगा, बल्कि उसका विस्तार करना होगा.

नई शिक्षा नीति में हिंदी को प्रधानता देकर इसकी शुरुआत कर दी गई है. कार्यालयीन कामकाज की भाषा और सरकारी तथा गैर सरकारी योजनाएं भी अगर हिंदी में होंगी तो समाज के अंतिम व्यक्ति को भी वह समझ में आएंगी और वह उसका लाभ उठा सकेगा. भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हिंदी को आत्मनिर्भर बनाना होगा क्योंकि हिंदी ही भारत के अधिकतर लोगों की भाषा है. महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘कोई भी राष्ट्र नकल करके बहुत ऊपर नहीं उठ सकता और महान नहीं बन सकता.’ अतः हमें अगर हमारे राष्ट्र को ऊंचा उठाना है तो हमारे मूल्य, हमारी परंपराएं और हिंदी ही उसका आधार हो सकते हैं.

(लेखिका हिन्दी विवेक की कार्यकारी संपादक हैं)

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