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सूर्योपासक देश – जापान के कण -कण में हिन्दू संस्कृति

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जापान शब्द चीनी भाषा के ‘जिम्पोज’ शब्द से बना है. जिसका अर्थ होता है, ‘सूर्य का देश’. जापान चिर अतीत काल से सूर्य उपासक रहा है. उस देश के निवासी स्वयं को सूर्य की संतान कहते हैं. जापान सम्राट ‘मेईजी’ की वे कविताएं सुप्रसिद्ध हैं, जिसमें उन्होंने जापान की आत्मा का सूर्य की ज्योति के रूप में चित्रण किया है.

जापान की धार्मिक परंपरा यह है कि प्रातः काल पूर्व की दिशा में मुंह करके खड़े हो – सूर्य दर्शन करें – नमन करें और इस दर्शन सौभाग्य के उपलक्ष्य में ताली बजाएं. वे सूर्य को अपना उपास्य और आदर्श मानते हैं. हर जापानी उस प्रेरक गीत को गुनगुनाता रहता है, जिसके बोल हैं –

हम सूर्य की संतान हैं, हम दिव्य देश के गौरव हैं .” …..

संसार भर में सबसे पुरानी लकड़ी की इमारत जापान की ‘ नारा ‘ नगर का ‘हार्युजी’ मंदिर है. यह सातवीं सदी के आरंभ का बना है. समीप ही बनी एक सावा झील के किनारे का ‘फुकुजी’ का पांच मंजिला मंदिर है, इसकी ऊंचाई 165 फीट है. निकटवर्ती क्षेत्र एक प्रकार का विस्तृत उद्यान है, जहां तरह -तरह के हिरण निर्भय विचरण करते हैं. झील में लोग मछलियां खरीद कर उन्हें प्रवाहित करते हुए दया धर्म का पालन करते हैं.

‘को फुईदी’ प्राचीन काल का समृद्ध बौद्ध विहार है. जहां ‘होसो -संप्रदाय के बौद्ध धर्माचार्य रहते थे. जापानी सम्राटों ने उस स्थान को अपनी श्रद्धा का प्रमुख केंद्र माना. उस क्षेत्र में कितने ही धर्मस्थान बनाए जो कभी 175 तक पहुंच गए थे. उनमें से कुछ तो टूट-फूट गए, किंतु ‘दायन जी’ गंगोजी, ‘हार्युजी’ ‘तोदाइज’ ‘याकुशी” यह पांच मंदिर अभी भी समुन्नत मस्तक लिए खड़े हैं. को फूईजी मंदिर सन् 768 में बना था. इसमें पत्थर की बनी सुंदर 1800 लालटेन दर्शकों का विशेष आकर्षण हैं. अब इन लालटेनों की संख्या और भी बढ़ाकर 3000 कर दी है. पर्वों के अवसर पर इन सब में दीपदान की दिवाली जैसी मनोरम शोभा देखते ही बनती है.

तोदाइजी बुद्ध मंदिर में आठवीं सदी की बनी विशालकाय बुद्ध प्रतिमा है. इसकी ऊंचाई 53 फ़ीट, 6 इन्च है. घुंघराले बालों के गुच्छे 966 हैं. इस प्रतिमा का भार 500 मीट्रिक टन है. संसार भर के मूर्ति इतिहास में यह मूर्ति अपने ढंग की अनोखी है.

जापान की नगरी ‘नारा’ में मथुरा- वृंदावन जैसी राग- रंग की धूमधाम रहती है. वहां के मंदिरों में आकर्षक नृत्य के साथ अनेकों धर्मोंत्सव होते रहते हैं. जापानी स्वभाव से प्रकृति – सौंदर्य के पूजक हैं. उनके निजी घरों में भी छोटे- बड़े उद्यान बने होते हैं. तिक्कों का तोशूगू मंदिर पहाड़ काटकर इस प्रकार बनाया है, जिससे ना केवल धर्म -भावना की वरन प्रकृति पूजा की आकांक्षा भी पूरी हो सके. जापान के ओसाका नगर का बौद्ध मंदिर देखने योग्य है. वह छठी शताब्दी का बना हुआ है. स्वच्छता और शांत वातावरण देखकर यह विचार उठता है कि क्यों न भारतीय मंदिरों का वातावरण भी ऐसा ही सौम्य बनाया जाए.

जापानी पुरातत्ववेता ‘तकाकसू ‘ ने जापानी संस्कृति का इतिहास लिखते हुए स्वीकार किया है कि उसका विकास ‘भारतीय संस्कृति’ की छाया में हुआ है. जापान में ‘बुद्धसेन भारद्वाज’ नामक भारतीय धर्म प्रचारक ने सारा जीवन उसी देश में धर्म शिक्षा देते हुए व्यतीत किया था. पहले वे अपने कुछ साथियों सहित ओसाका पहुंचे थे, और उन्होंने सारे जापान में यात्राएं की और जापानी जनता को हिन्दू धर्म अनुयाई बनाया. इस महान धर्म- प्रचारक का स्मारक अभी भी ‘नारा’ नगर में बना हुआ है. जापान में सूर्य देवता की पूजा होती है. दिवाली भारत की तरह ही वहां मनाई जाती है. ऐतिहासिक अवशेषों के अनुसार सूर्यवंशी राजाओं ने वहां पहुंचकर शासन सूत्र संभाला था और राज्य व्यवस्था का सूत्र पात किया था. तत्पश्चात बौद्ध प्रचारक वहां पहुंचे और जापान में बौद्ध पंथ फला-फूला.

“जापान के धर्म, दर्शन और चिंतन पर भारतीय संस्कृति की गहरी छाप है. प्रथा परंपराओं में अंतर रहते हुए भी भावनात्मक दर्शन वही है, जो भारत की आत्मा कहा जाता है. जापान के देवालयों में भारतीय देवी-देवताओं की सम्मान पूर्वक स्थापना की गई है. जापानी भाषा के अनुसार उनके नाम बदल गए हैं, पर उनकी आकृति- प्रकृति के अनुसार वे भारतीय देवताओं के साथ पूरी तरह संगति रखते हैं.”

सूर्य ,ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, कार्तिकेय, अग्नि, कुबेर, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा, राम, कृष्ण दस अवतारों की प्रतिमाएं ऐसी लगती है मानो वे किसी हिन्दू धर्मानुयायी ने ही स्थापित की हों. ‘यम’ को इसी नाम से मृत्यु का देवता माना जाता है. मंदिरों में हवन कुंड बने हैं, जिनमें द्रव्य, समिधा, अगरबत्ती आदि जलती हैं. मंदिरों में प्रवेश करने से पहले हाथ -मुंह, पैर धोने का नियम है.

जापान में पुरानी जाति है – एनु. उसकी मुखाकृति आर्य नस्ल की है. कहते हैं कि वे भारत से उस देश से गए धर्म- प्रचारको की संताने हैं. मंदिरों में बुद्ध के वचन देवनागरी अक्षरों में लिखे होते हैं. जापानी संस्कृत भाषा तो नहीं पर देवनागरी लिपि भली प्रकार जानते हैं. मंदिरों में अंकित बुद्ध प्रवचनों को पढ़ने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती. जापानी, चीनी लिपियां बनावट में एक जैसी लगती हैं, पर उनके बीच जमीन- आसमान जैसा अंतर है. जापानी अक्षर हिंदी की तरह ही ध्वनि पूरक होते हैं. उसकी वर्णमाला का क्रम नागरी जैसा ही है, जबकि चीनी में किन्हीं आकृतियों के आधार पर भाव व्यंजना का होना माना जाता है.

जापान में ‘बौद्धिसेन भारद्वाज ‘ सन् 738 में पहुंचे थे और उन्होंने जापानी वर्णमाला को व्यवस्थित किया था. जापान सम्राट ‘शोप्ट’ ने इस बौद्ध भिक्षु का स्वागत -सम्मान किया था. ‘बौद्धिसेन भारद्वाज’ के नाम से जापान का हर शिक्षित व्यक्ति परिचित है.

एक दूसरे धर्म प्रचारक ‘धर्म बोधि’ की गाथाएं भी जापान भर में सुविदित हैं. उन्होंने सन् 645 में असाध्य रोग ग्रसित सम्राट ‘कोटुकू’ को अपने तपबल से जीवन दान दिया था. सम्राट ने उनके लिए अवलोकितेश्वर मंदिर बनवाया और राजमहल में बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद के लिए एक विशेष विभाग स्थापित किया. उनके योग साधन एवं धर्म प्रचार से सहस्रों जापानी प्रभावित हुए और अनुयायी बने.

  • डॉ. नितिन सहारिया

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