डॉ. श्रीरंग गोडबोले
संघ निर्माता डॉ. हेडगेवार जी का देशभर में अभेद्य हिन्दू संगठन खड़ा करने का दीर्घकालीन उद्देश्य था. इस स्थिति में नित्य कार्य के प्रति समर्पित संघ जैसे संगठन का किसी विशेष प्रयोजन के लिए किए जा रहे आंदोलन में अपनी संपूर्ण ताकत झोंक देना बुद्धिमत्ता नहीं थी. आंदोलन से संघ को अलग रखते हुए डॉ. हेडगेवार ने अपना समर्थन दिया था. स्वयं की प्रेरणा से आंदोलन में सहभागी होने वाले संघ स्वयंसेवकों को डॉ. हेडगेवार का आशीर्वाद प्राप्त था, लेकिन संघ कार्य का दायित्व निभाने वालों को उससे दूर रखा गया. संघ की ओर से देशभक्ति से संस्कारित स्वयंसेवक संस्थागत घमंड किए बिना, जागरूक तथा जिम्मेदार हिन्दू की हैसियत से आंदोलन में शामिल हों, यह भी उनका मानस था.
संघ स्वयंसेवक यानि कौन?
नि:शस्त्र प्रतिकार संग्राम में सहभागी सभी ज्ञात-अज्ञात प्रतिकारकों के प्रति कृतज्ञता दर्शाते हुए इस आलेख में केवल संघ स्वयंसेवकों के सहभाग का संक्षिप्त ब्यौरा लिया जा रहा है. यह पहलू इतिहास में ही नहीं, अपितु संघ साहित्य में प्रायः दिखाई नहीं देता. इस तथ्य को सामने लाने के पीछे यही मूल कारण है.
सर्वप्रथम संघ स्वयंसेवक यानि कौन?
इस कुछ अनोखे से प्रश्न का स्पष्टीकरण आवश्यक है. जिसने संघ शाखा में प्रार्थना गाई हो या जो खुद को संघ स्वयंसेवक समझता हो, इस आधार पर निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा. डॉ. हेडगेवार की इच्छा थी कि नि:शस्त्र प्रतिकार के प्रमुख नेता लक्ष्मण बलवंत उपाख्य ‘अण्णा साहब भोपटकर’ जी महाराष्ट्र संघ प्रमुख हों. राजनीति में होने से उन्होंने ही डॉ. हेडगेवार को नकार दिया था (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रपत्र, Nana Palkar/Hedagewar Notes – 4,4_96).
इस संग्राम के प्रमुख सूत्रधार शंकर रामचंद्र दाते उपाख्य ‘मामाराव दाते’ पुणे हिन्दू सभा के प्रमुख कार्यकर्ता थे, जिन्हें 1933 में खुद डॉ. हेडगेवार ने संघ प्रतिज्ञा दिलाई थी. हिन्दू महासभा के हजारों प्रतिकारकों में से लगभग हर एक ने कभी न कभी संघ शाखा में जा कर प्रार्थना गाई होगी. जगह-जगह के अनेकों संघचालक हिन्दू सभा के कार्यकर्ता अथवा पदाधिकारी थे. इतना ही नहीं, खुद डॉ. हेडगेवार अंतिम समय तक नागपुर हिन्दू सभा के उपाध्यक्ष थे और हिन्दू सभा के अधिवेशनों में उपस्थित होते थे. पर, इसलिए भोपटकर जी और दाते जी जैसे प्रबुद्ध हिन्दू महासभा में सक्रिय हजारों लोगों को कम से कम इस आलेख तक ‘संघ के स्वयंसेवक’ कहना अतिशयोक्ति होगा. सतारा संघचालक शिवराम विष्णु उपाख्य ‘भाऊराव मोड़क’ अथवा जिला कार्यवाह अनंत सखाराम उपाख्य ‘भिड़े गुरुजी’ इस संग्राम में संघ के संस्कारों के कारण ही अग्रसर हुए. हालांकि डॉ. हेडगेवार के देहावसान के पश्चात ये लोग संघ में सक्रिय नहीं रहे. पर, इस कारण उन्हें अलग किया जाए, यह उचित नहीं होगा. संग्राम के दौरान वे संघ में सक्रिय थे अथवा नहीं, यह एक प्रश्न है. इसके लिए 1 अगस्त, 1949 को अंगीकृत और 10 मार्च, 1995 में संशोधित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में स्वयंसेवक की परिभाषा देखी जानी चाहिए. इसके अनुसार, ’18 वर्ष या उससे अधिक आयु का कोई भी हिन्दू पुरुष, जो संघ के उद्देश्यों और मंतव्यों को मान्य करता है और उसके अनुशासन का सामान्यतया पालन करता है तथा शाखा की गतिविधियों में भाग लेता है, स्वयंसेवक समझा जाएगा.’ किसी व्यक्ति को संघ स्वयंसेवक कहते समय उपरोक्त परिभाषा को प्रस्तुत आलेख में आधार माना गया है. संघ की जन्मभूमि अर्थात मध्यप्रांत तथा बरार का विचार इस लेख में किया गया है. अन्य प्रदेशों का विचार अगले आलेख में करेंगे.
मध्यप्रांत तथा बरार में संग्राम का प्रारंभ
नि:शस्त्र प्रतिकार संग्राम के रण में कूदने के लिए अक्तूबर, 1938 के आखिर में बरार में तैयारी शुरू हुई. इस दौरान नांदेड़ के गोपालशास्त्री देव एवं परतवाडा के डॉ. गणेश मार्तंड पिंपरकर ने प्रांत का प्रवास किया. इनमें डॉ. पिंपरकर कलकत्ता के दिनों से ही डॉ. हेडगेवार जी के मित्र और स्वयंसेवक थे (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रपत्र, Nana Palkar/Hedagewar Notes – 3,3_04). 17 नवंबर, 1938 को नागपुर से प्रतिकारकों की पहली टुकड़ी औरंगाबाद के लिए निकली (केसरी, 18 नवंबर 1938). 5 जनवरी, 1939 को सात लोगों का बरार युद्ध मंडल स्थापित हुआ, जिसके अध्यक्ष अकोला के मामासाहब जोगलेकर थे. मंडल के सदस्य डॉ. लक्ष्मण वासुदेव उपाख्य ‘दादासाहेब परांजपे’ तथा डॉ. यादव श्रीहरी उपाख्य ‘तात्याज़ी अणे’ संघ के प्रमुख स्वयंसेवक थे (केसरी, 2 मई 1939). इनमें से अणे कोलकाता के दिनों से डॉ. हेडगेवार जी के मित्र तथा वणी के संघचालक थे. 9 तथा 27 जनवरी, 1939 में अकोला बरार से प्रतिकारकों की एक-एक टुकड़ी निकली. इन दोनों ही टुकड़ियों के प्रतिकारकों को निजाम राज्य में पैर रखते ही बहुत मारा गया और पुनः ब्रिटिश राज्य में छोड़ दिया गया. इसके बाद 5 फरवरी, 1939 को मध्य प्रांत से पहली टुकड़ी हिन्दू महासभा के कार्यकारी मंडल के सदस्य डॉ. ल. वा. परांजपे के नेतृत्व में नागपुर से निकली.
डॉ. परांजपे का प्रतिकार
1930 में डॉ. हेडगेवार ने जब जंगल सत्याग्रह में भाग लिया, तब डॉ. परांजपे ने सरसंघचालक पद का दायित्व संभाला था. संघ के बाल्यावस्था में होने के बाद भी अपना बड़प्पन भूल कर डॉ. परांजपे संघ कार्य में तन्मयता से शामिल होते थे. उनकी टुकड़ी में 22 लोग थे, जिनमें से बारह संघ स्वयंसेवकों का विवरण संघ के अभिलेखागार में निम्नानुसार है (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रपत्र, Correspondence – C/भागानगर Nishastr Pratikar 0001).
डॉ. ल. वा.परांजपे जी की 22 सदस्यीय सत्याग्रही टुकड़ी के 12 स्वयंसेवकों निम्न थे…..
- डॉ. लक्ष्मण वासुदेव परांजपे, नागपुर
- डॉ. वा. ग. शिंगणापुरकर , नागपुर
- नारायण गोविंद तुपटे, नॉर्मल स्कूल, नागपुर
- अण्णा काशिनाथ पुरणकर, पाटणसावंगी, तहसील सावनेर, जिला नागपुर
- बा. ह. वडेर , चांदा (सद्य चंद्रपूर)
- ह. स. वारे, नागपुर
- ग. वा. देवघरे, नागपुर
- द. वि. नाईक, नागपुर
- द. श्री. घुडे, नागपुर
- मोरेश्वर रामचंद्र जोशी, पाटणसावंगी
- प्रधान
- सुत्रपुरकर
12 फरवरी को निजाम राज्य में प्रविष्ट होते ही इस टुकड़ी को बंदी बनाया गया (केसरी, 14 फरवरी 1939). 18 फरवरी को डॉ. परांजपे की टुकड़ी के 18 सत्याग्रहियों में से हर एक को अठारह माह के सश्रम कारावास की सजा हुई. 30 मार्च को डॉ. परांजपे, शिंगणापुरकर, पुरणकर, जोशी पर अभियोग चलाया गया, जिसमें सभी निर्दोष मुक्त हुए. अप्रैल में इस हेतु नागपुर में नागरिकों ने उनका अभिनंदन किया. उस सभा में डॉ. परांजपे ने कहा, “मुझे पुनः सत्याग्रह हेतु भेजा गया तो भी मैं जाऊंगा. पर यह संग्राम अंतिम समय तक चलाना ही है. हमें सत्याग्रह करने के बाद भी क्यों छोड़ा गया, यह वे मजिस्ट्रेट ही जानते हैं” ( केसरी, 14 एवं 25 अप्रैल 1939).
नागपुर से निकली अन्य टुकड़ियां
13 फरवरी, 1939 को संघ स्वयंसेवक मधुकर यादोराव घुई के नेतृत्व में 20 प्रतिकारकों की दूसरी टुकड़ी निकली (केसरी, 1 अगस्त 1939). इस टुकड़ी के 10 संघ स्वयंसेवकों का निम्नलिखित विवरण संघ अभिलेखागार में है (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रपत्र, Correspondence – C/ bhaganagar Nishastr प्रतिकार 0001,0002).
मधुकर यादोराव घुई जी की 20 सदस्यीय टुकड़ी के 10 स्वयंसेवकों का विवरण निम्नलिखित है…
- मधुकर यादोराव घुई, नागपुर
- नीलकंठ माधोराव दंताले, नागपुर
- सरदार जगजीत सिंह, तिनखेड़ा, तहसील नरखेड़, जिला नागपुर
- पंजाबराव पाटील, तिनखेडा
- राजाराम दिनकर टेकाडे, नागपुर
- म. गो. राजनेरकर, नागपुर
- दामोदर गोपाल भागवतकार (आयु 25 वर्ष), सिलाई कार्य, बिलोना, तहसील नरखेड़, जिला नागपुर
- विश्वनाथ गंगाराम आरघोड़े (आयु 20 वर्ष), कृषि, बिलोना
- शामाराव झोलोबा गौरखेड़े (आयु 20 वर्ष), सिलाई कार्य, बिलोना
- व्यवहारे
उपर्युक्त दो सूचियों के संघ स्वयंसेवकों में से गौरखेडे, दंताले, भागवतकर, रांजनेरकर, घुडे, नाईक, तुपटे, वारे, सरदार जगजीत सिंह को तीन वर्ष के कारावास की सजा हुई. व्यवहारे जी को साढ़े आठ माह के कारावास की सजा हुई (केसरी, 30 मई 1939).
नागपुर से तीसरी टुकड़ी डॉ. पवनीकर जी के नेतृत्व में 20 फरवरी, 1939 को निकली, जो सेलु, पवनार, वर्धा, हिंगणघाट, वरोड़ा, चांदा (वर्तमान चंद्रपुर) होती हुई हैदराबाद राज्य में पहुंची (केसरी, 24 फरवरी 1939). 10 मार्च, 1939 को पवनीकर जी की टुकड़ी को हैदराबाद में बंदी बनाया गया (केसरी, 1 अगस्त 1939). पवनीकर जी खुद संघ स्वयंसेवक थे. उनकी टुकड़ी में तीस लोग थे, जिसमें से तेरह संघ स्वयंसेवकों का निम्नलिखित विवरण संघ अभिलेखागार में है (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रपत्र, Correspondence -C/Bhaaganagar Nishastr Pratikar 0001,0002).
- डॉ. पवनीकर
- लक्ष्मण शंकर बेंद्रे (आयु 22), पिंजारी (रुई धुनकना)
- देवीदास नारायण कुलकर्णी (आयु 22 वर्ष), पिंजारी (रुई धुनकना)
- राम सीताराम डफले ( आयु 19 वर्ष), आयुर्वेद महाविद्यालय, प्रथम वर्ष
- चिंतामण गोविंद शहादानी (आयु 18 वर्ष), विद्यार्थी दसवीं
- पुरुषोत्तम प्रभाकर दारव्हेकर
- कृष्णा गोविंद तांबे
- गोविंद लक्ष्मण चावके
- परमानंद सेठ
- मारोती श्रावण हराले
- गोपालराय रात्रा
- लल्लू दशरथ ठाकुर
- पुरुषोत्तम श्रीधर पांडे
संघ अभिलेखागार में उपलब्ध विवरण से ज्ञात होता है कि अधिकांश संघ स्वयंसेवक एकदम जवान तथा सामान्य परिस्थिति और विभिन्न जाति एवं सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से थे.
भैय्या जी दाणी का प्रतिकार
संघ स्थापना की बैठक में उपस्थित रहने वाले, द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर गुरुजी को संघ में लाने वाले, गृहस्थ प्रचारक तथा 1945 से 1956 और पुनः 1962 से 1965 के कालखंड मे सरकार्यवाह का दायित्व निभाने वाले प्रभाकर बलवंत उपाख्य ‘भैय्याजी दाणी’ का संघ में विशेष स्थान है. 30 मार्च को उनके नेतृत्व में निकली 19 प्रतिकारकों की टुकड़ी को विदाई देने नागपुर के टाउन हॉल में श्रीमंत राजाबाल चिटणवीस की अध्यक्षता में विशाल आमसभा आयोजित हुई थी. डॉ. हेडगेवार, मध्यप्रांत संघचालक बाबासाहाब पाध्ये, श्रीमंत बाबासाहब घटाटे आदि इस दौरान उपस्थित थे.
सभा में अधिवक्ता विश्वनाथराव केलकर, प्रा.देशपांडे, साहित्याचार्य बालशास्त्री हरदास आदि लोगों ने ओजस्वी और प्रेरणादायी भाषण किए. इसके पश्चात भैय्याजी के सुंदर समापन भाषण के बाद हिन्दू धर्म के गगनभेदी जयघोष के साथ सभा समाप्त हुई (केसरी, 14 अप्रैल 1939).
उमरखेड (जिला यवतमाल) से तीन मील की दूरी पर पैनगंगा नदी के तट से निजाम राज्य की सीमा आरंभ होती थी. भैय्याजी तथा उनकी टुकड़ी ने वहीं से राज्य में प्रविष्ट हो नि:शस्त्र प्रतिकार किया. उन सभी को एक-एक वर्ष कारावास की सजा हुई (केसरी, 28 अप्रैल 1939).
28 अप्रैल, 1939 को उमरेड के गांधी चौक में नागपुर बार काउंसिल के अध्यक्ष हरी कृष्ण वर्मा जी की अध्यक्षता में संपन्न सभा में भैय्याजी को निजाम द्वारा सुनाई गई सजा को रोकने के लिए तथा भैय्याजी द्वारा किए ‘स्वार्थ त्याग और दर्शाई गई वीरवृत्ति’ के अभिनंदन हेतु दो प्रस्तावों को सहमति दी गई. आसिफाबाद जेल में 6 मई को भैय्याजी पर कोड़ों से अत्याचार करने के समाचार मिलते हैं. तीन नि:शस्त्र प्रतिकारकों को चेन से बांधने से लेकर बंदियों को एक ही समय दिए जाने वाले सड़े भोजन और इसके फलस्वरूप उनके द्वारा किये गए अन्न त्याग के वृत्तांत भी मिलते हैं (केसरी, 5 मई 1939).
वामनराव हेडगेवार का शपथपत्र
5 अप्रैल, 1939 को साहित्याचार्य संघ स्वयंसेवक बालशास्त्री हरदास जी के नेतृत्व में नागपुर से टुकड़ी निकली. 13 अप्रैल को हरदास जी तथा उनके सहयोगियों ने औरंगाबाद में सत्याग्रह किया, जहां उन सभी को बंदी बनाया गया. उन्हें एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई. इस टुकड़ी में पांडुरंग आसाराम सावरकर तथा वामन मोरेश्वर हेडगेवार संघ स्वयंसेवक थे. वामनराव जी डॉ. हेडगेवार के चचेरे भाई थे, जो आगे चलकर नरसिंहपुर तथा बिहार में संघ प्रचारक के रूप में गए.
पांडुरंगपंत सावरकर तथा वामनराव हेडगेवार जी ने निजाम की जेल का अनुभव अपने शपथ पत्र में किया है. उन्होंने लिखा, “मेरा नाम पांडुरंग आसाराम सावरकर है. मैं प्रो. देशपांडे जी के साथ हैदराबाद सत्याग्रह के लिए गया था. मुझे हैदराबाद में दिनांक 17/4/1939 को बंदी बनाया गया एवं डेढ़ वर्ष की सजा सुनाई गई. मैं हैदराबाद सेंट्रल जेल में था. हमारे भोजन में मांस परोसे जाने के कारण हमने इसकी शिकायत जेल अधिकारी से की. इसके फलस्वरूप मुझे तथा वामनराव हेडगेवार एवं अन्य सत्याग्रहियों को आठ दिनों तक अंधेरी कोठरी में रखा गया. हम पर माफी मांगने के लिए सख्ती की गई. जो नेता थे, उन्हें बाहर भेजा जाता है. अन्य सत्याग्रहियों द्वारा प्रो. देशपांडे जी को कुछ बताए जाने पर चार दिनों तके अंधेरी कोठरी रखा गया. हमें स्नान करना है, यह बताकर उर्दू फॉर्म पर हमसे हस्ताक्षर करवाए जाते थे, जिसे मना करने वालों को अलग ले जाकर उनसे मारपीट की जाती और अंधेरी कोठरी में बंद किया जाता था. भोजन में मांस मिलने पर 120 प्रतिकारकों ने उपवास शुरू कर दिया था. मुझे एवं हेडगेवार जी को कुछ शिकायत करने के कारण मारा-पीटा गया. हमसे जबरदस्ती कागजों पर अंगूठे के निशान लिए गए. बाद में मुझे तथा अन्य बहुत से लोगों को अन्य जेलों में जगह ना होने के बाद भी भेजा गया. इस प्रकार अमानवीय यातनाएं दे कर प्रतिकारकों को जबरदस्ती से निकाला जा रहा है”. (केसरी, 9 जून 1939).
केलकर, नाईक तथा आंबोरकर जी का प्रतिकार
10 मई, 1939 को नागपुर टाउन हॉल के प्रांगण में डॉ. मुंजे जी की अध्यक्षता में लगभग दस हजार लोगों की सभा में नागपुर संघचालक रह चुके एडवोकेट विश्वनाथ केलकर एवं उमरखेड़ हिन्दू सभा के नेता तथा रा. स्व. संघ के प्रमुख स्वयंसेवक नाना साहब नाईक जी को विदाई दी गई (केसरी, 19 मई 1939). हिन्दू महासभा के दो सौ प्रतिकारकों के साथ एडवोकेट एवं नागपुर संघचालक रह चुके विश्वनाथ विनायक जी केलकर 13 मई को नागपुर से औरंगाबाद पहुंचे. 14 मई, 1939 को हनुमान मंदिर में उनके भाषण दौरान पुलिस ने सभी को बंदी बनाया और औरंगाबाद की कच्ची जेल में ले जाया गया (केसरी, 16 मई 1939).
दिनांक 16 मई, 1939 को नाईक एवं उनके जत्थे को सिरपुर में बंदी बनाया गया (केसरी, 23 मई 1939). एडवोकेट नारायण कृष्णाजी उपाख्य ‘नानाजी आंबोरकर’ मध्यप्रांत के सर्वाधिकारी और सावनेर संघचालक थे. 10 जून को वह अपनी टुकड़ी के साथ नागपुर से निकले. एक दिन पूर्व टाउन हॉल के विशाल प्रांगण में डॉ. ल. वा. परांजपे की अध्यक्षता में लगभग आठ नौ हजार लोगों की सभा में आंबोरकर और उनकी टुकड़ी को बिदा दी गई. इसी सभा में सतारा हिन्दू सभा एवं संघ कार्यकर्ता अनंत सखाराम उपाख्य ‘भिड़े गुरुजी’ का संग्राम में उनकी भागीदारी के लिए सम्मान किया गया. इस सभा में डॉ. हेडगेवार जी उपस्थित थे (केसरी, 6, 9, 20 जून 1939).
17 जून, 1939 को आंबोरकर जी के नेतृत्व में टुकड़ी ने औरंगाबाद के सुपारी मारुति मंदिर के पास प्रतिकार किया. हजार बारह सौ लोगों के समक्ष भाषण के दौरान उन्हें बंदी बनाया गया (केसरी, 20 जून 1939).
दारव्हेकर जी का बलिदान
नि:शस्त्र प्रतिकार में अठारह प्रतिकारों ने अपने प्राणों की आहुति दी, जिसमें डॉ. पवनीकर जी की टुकड़ी के पुरुषोत्तम प्रभाकर दारव्हेकर, नाचणगाव (जिला वर्धा) भी शामिल थे. उनके निधन का समाचार ‘केसरी ‘ ने इस प्रकार दिया, “आसिफाबाद जेल में नाचणगाव (जिला वर्धा) के प्रतिकारक श्री पुरुषोत्तम दारव्हेकर जी का संदेहास्पद स्थिति में 17 जुलाई की सुबह निधन हुआ. आठ-दस दिनों से अस्वस्थ होने पर भी जेल के डॉक्टर ने उन्हें उचित उपचार नहीं दिया. इतना ही नहीं, वो बीमार को मृत्यु शैय्या पर डाल हैदराबाद निकल गए. मृत प्रतिकारक के भाई को जेलर द्वारा 15 जुलाई को तार करने पर वे उनसे मिलने गए. तार दिखाने के बावजूद भी पुलिस ने उन्हें बहुत तंग किया. गांव जाने पर भाई की मृत्यु का समाचार मिलते ही जेलर से मृत्यु बाबत जानकारी लेने के लिए जब वे गए, तो दरोगा ने अकड़ के साथ कहा ‘हम कुछ नहीं जानते.’ मृत्यु शैय्या पर पड़े व्यक्ति से भेंट की अनुमति मांगने पर उन्हें झिड़क दिया गया” (केसरी, 25 जून 1939).
(क्रमशः)