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भारत को यह सभ्यतागत और सांस्कृतिक युद्ध जीतना ही होगा

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बलबीर पुंज

जम्मू-कश्मीर के हालिया घटनाक्रम से क्या रेखांकित होता है? जहां स्वतंत्र भारत में पहली बार पाकिस्तान सीमा के निकट इस वर्ष पुनर्निर्मित शारदा माता मंदिर में शारदीय नवरात्रि की पूजा हो रही है, वहीं इसी दौरान पुंछ में पोस्टर चस्पा करके हिन्दुओं और सिक्खों को क्षेत्र छोड़ने हेतु धमकी देने का मामला प्रकाश में आया है. यह ठीक है कि धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण के बाद से घाटी में आध्यात्मिक-सांस्कृतिक पुनर्स्थापना के साथ समेकित आर्थिक विकास, केंद्रीय परियोजनाओं के कार्यान्वयन में तेजी, पर्यटकों की बढ़ती संख्या, तीन दशक बाद नए-पुराने सिनेमाघरों का संचालन, भारतीय फिल्म उद्योग के लिए कश्मीर पुन: पसंदीदा गंतव्य बनना और जी20 पर्यटन कार्य समूह की सफल बहुराष्ट्रीय बैठक और आतंकवादी-पथराव की घटनाओं में तुलनात्मक कमी आदि का साक्षी बन रहा है. परंतु क्या यह जिहादी मानसिकता को समाप्त करने के लिए पर्याप्त है?

यह ऐतिहासिक क्षण है कि स्वतंत्र भारत में पहली बार नियंत्रण रेखा स्थित टीटवाल गांव में पुनर्निर्मित शारदा माता मंदिर में बड़ी संख्या में तीर्थयात्री शामिल हो रहे हैं. हम्पी के स्वामी गोविंदानंद सरस्वती अपने अनुयायियों के साथ कर्नाटक में भगवान हनुमान की जन्मस्थली किष्किंधा से रथयात्रा पर सवार होकर टीटवाल गांव पहुंचे थे. यह मंदिर भारतीय सनातन परंपरा में – विशेषकर कश्मीरी हिन्दुओं की मान्यता में आस्था का एक बड़ा केंद्र रहा है. 1947 तक टीटवाल में बने मंदिर से ही ‘छड़ी मुबारक’ किशनगंगा नदी को पार करके शारदा पीठ के लिए प्रस्थान करती थी, जो अब पीओके में स्थित है और महाशक्ति पीठों में से एक है. जब 1947 में भारत का विभाजन हुआ, तब पाकिस्तानी हमले में कबाइलियों ने यहां गुरुद्वारे के साथ इस मंदिर को खंडित कर दिया. परंतु प्रारंभिक भारतीय नेतृत्व ने अपनी चिर-परिचित सनातन विरोधी मानसिकता के कारण काशी, मथुरा, अयोध्या की भांति इस मंदिर की भी सुध नहीं ली.

शारदा पीठ का अर्थ – शारदा की भूमि, जो हिन्दू देवी मां सरस्वती का एक कश्मीरी नाम भी है. यह हिन्दू, बौद्ध और जैन ज्ञान-विद्या का एक प्राचीन केंद्र रहा था, जहां पाणिनी और अन्य व्याकरणियों ने ग्रंथ संग्रहित किए थे. उस समय यहां एक बड़ा पुस्तकालय भी विद्यमान था. पौराणिक कथा के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण मूल रूप से पांडवों द्वारा अपने निर्वासन के समय किया था. आदि शंकराचार्य भी कश्मीर भ्रमण के दौरान मां शारदा देवी के दर्शन हेतु शारदा पीठ आए थे और उन्होंने चार पीठों के साथ कश्मीर स्थित सर्वज्ञपीठ में भगवती श्रीशारदा देवी की पूजा की थी. इस शक्तिपीठ का उल्लेख कई प्राचीन ग्रंथों (राजतरंगिणी सहित) में है. 13वीं-14वीं शताब्दी से कश्मीर इस्लामी आतंकवाद से त्रस्त है, जिसमें मजहबी कारणों से कई प्राचीन मंदिरों को जमींदोज, हिन्दुओं का नरसंहार, तो कालांतर में उन्हें जबरन मतांतरण या पलायन के लिए विवश किया गया.

सदियों पुरानी इस त्रासदी में अब भूल-सुधार किया जा रहा है. खंडित शारदा मंदिर और गुरुद्वारे के जीर्णोद्धार की शुरूआत 2 दिसंबर 2021 में हुई थी, जिसका उद्घाटन केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 23 मार्च 2023 को किया था. मंदिर में पंचधातु से निर्मित मूर्ति प्रतिष्ठापित की गई है. तब से टीटवाल के गुरुद्वारे में शबद कीर्तन और गुरबाणी पाठ, तो शारदा माता मंदिर की घंटियों की गूंज पीओके स्थित चिलियाना गांव तक सुनाई दे रही हैं.

निःसंदेह, धारा 370-35ए को निरस्त किए जाने के बाद से घाटी में जो सकारात्मक परिवर्तन दिख रहे हैं, वे अगस्त 2019 से पहले अकल्पनीय थे. बदलाव की इस बयार से मध्यकालीन इस्लामी शक्तियां अत्याधिक कुंठित और बौखलाई हुई हैं, जिसने मजहब के नाम पर स्थानीय प्रशासन, कश्मीरी राजनीतिक अधिष्ठान और विषैले पाकिस्तान के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन से न केवल 1980-90 के दशक में गैर-मुस्लिमों – विशेषकर कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम और उनके विवशपूर्ण पलायन की पटकथा लिखी थी, साथ ही किसी भी ‘दार-उल-इस्लाम’ क्षेत्र की भांति उसने कश्मीर के मूल सनतान बहुलतावादी मूल्यों को रौंद दिया था. इसके पुनरावृति के प्रयास फिर से हो रहे हैं.

गत कुछ समय से जम्मू-कश्मीर में गैर-मुस्लिमों और भारतपरस्त मुसलमानों को चिन्हित करके उन्हें मौत के घाट उतारने के बाद अब उन्हें क्षेत्र छोड़ने हेतु धमकियां दी गई है. पुंछ में हिन्दुओं-सिक्खों के घरों पर उर्दू में लिखे पोस्टर लगाकर या फेंककर धमकी दी गई है कि अगर वे क्षेत्र से नहीं जाते हैं, तो उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. मामला पुंछ के देगवार मल्दियालां गांव में 14 अक्तूबर का है. इन पोस्टरों की किसी व्यक्ति या संगठन ने जिम्मेदारी नहीं ली है. फिर भी इन धमकियों से हिन्दू और सिक्ख परिवार अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित दिख रहे हैं.

जम्मू-कश्मीर के लिए इस प्रकार के जिहादी पर्चे नए नहीं हैं. जब शेख अब्दुल्ला जैसे घोर सांप्रदायिक पर पं. नेहरू के अंध-विश्वास से कश्मीर में “निजाम-ए-मुस्तफा” की मजहबी मांग को गति मिली और वर्ष 1975 के इंदिरा-शेख समझौते ने कालांतर में स्थानीय मुसलमानों को जिहादी उन्माद में हिन्दू मंदिरों को जमींदोज, कश्मीरी पंडितों की दिनदहाड़े हत्या और उनकी महिलाओं से बलात्कर करने के लिए प्रेरित किया, तब आतंकवादी संगठनों ने श्रीनगर के स्थानीय अखबारों में ऐसे ही विज्ञापन देकर हिन्दुओं को कश्मीर छोड़ने या मौत के घाट उतारने की खुलेआम धमकियां दी थी. तब जिन स्वयंभू सेकुलरवादियों, वामपंथियों और मुस्लिम जनप्रतिनिधियों ने कश्मीरी हिन्दुओं पर टूटे इस मजहबी विभीषिका को शोषण, गरीबी, क्षेत्रीय असंतुलन और भेदभाव की संज्ञा देकर न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया था, कश्मीरी पंडितों की वेदना पर बनी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को प्रोपागेंडा, इस्लामोफोबिया, काल्पनिक और झूठा बताया – वे आज पुंछ के हिन्दू-सिक्ख विरोधी पोस्टरों पर चुप है.

आखिर भारतीय सभ्य समाज, कश्मीर में इस चुनौती से कैसे निपटे? सच तो यह है कि भारत को यह सभ्यतागत और सांस्कृतिक युद्ध जीतना ही होगा. यह काम केवल सरकार या सेना-पुलिस नहीं कर सकती, इसमें समाज का भी सहयोग अनिवार्य है. फिलीस्तीनी आतंकी संगठन हमास के यहूदी राष्ट्र इजराइल पर जिहादी हमले की प्रतिक्रियास्वरूप इजराइल के सैन्य मोर्चे का हिस्सा बनने हेतु दुनियाभर से इजराइली नागरिकों का स्वदेश पहुंचना – इसका एक हालिया उदाहरण है.

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद हैं.)

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