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इंडिजेनस डे – यूरोपियन्स के लिए पश्चाताप व क्षमा मांगने का दिन

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प्रवीण गुगनानी

मूलनिवासी दिवस या इंडिजिनस पीपल डे, भारत में एक नया षड्यंत्र है. सबसे बड़ी बात यह कि इस षड्यंत्र को जिस जनजाति समाज के विरुद्ध चलाया जा रहा है, उसी जनजातीय समाज के कांधों पर इसकी पालकी भी चतुराई पूर्वक निकाली जा रही है. वस्तुतः प्रतिवर्ष इस दिन यूरोपियन्स और पोप को आठ करोड़ मूल निवासियों का निर्मम नरसंहार करने के लिए क्षमा मांगनी चाहिए. यह दिन यूरोपियन्स के लिए पश्चाताप व क्षमा का दिन है. यह दिन चतुर गोरे ईसाई व्यापारियों द्वारा भोले-भाले जनजातीय समाज को मारकाट करके उनकी भूमि छीन लिए जाने का शर्मनाक दिन है.

यूरोपियन्स ने इस दिन को षड्यंत्रपूर्वक उत्सव का दिन बना दिया और आश्चर्य यह कि भारत का जनजाति समाज भी इस कुचक्र में फंस गया. संयुक्त राष्ट्र संघ के एक संगठन विश्व मजदूर संगठन ILO द्वारा “राइटस ऑफ इंडिजिनस पीपल” नाम से एक कन्वेन्शन जारी किया गया. जिसे सम्पूर्ण विश्व के मात्र 22 उन देशों ने हस्ताक्षर किया, जिनकी कहीं न कहीं अत्याचार पूर्ण औपनिवेशिक कालोनियां थीं. इन्हीं 22 देशों ने एक “वर्किंग ग्रुप फॉर इंडिजिनस पीपल” नामक संगठन बनाया, जिसकी प्रथम बैठक 9 अगस्त, 1982 को हुई और इसी दिन को बाद में विश्व मूलनिवासी दिवस या विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. भारत के तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवियों व वामपंथियों के सहयोग से विदेशियों की यह चाल इतनी सफल हुई कि बड़ी संख्या में जनजाति समाज विश्व मूलनिवासी दिवस को आदिवासी दिवस के नाम से मनाने लगा. तथ्य यह है कि भारत में जनजातीय समाज व अन्य जाति, जिसे इन विघटनकारियों ने आर्य – अनार्य का वितंडा बना दिया, वैसी परिस्थितियाँ भारत में हैं ही नहीं. कथित तौर पर आर्य कहे जाने वाले लोग भी भारत में उतने ही प्राचीन हैं, जितने जनजातीय समाज के लोग. यानि समस्त भारतवासी मूलनिवासी हैं.

यह सर्वविदित है कि इस्लाम व ईसाईयत दोनों विस्तारवादी धर्म हैं. अपने विस्तार हेतु अपने धर्म के परिष्कार, परिशोधन के स्थान पर षड्यन्त्र, कुतर्क, कुचक्र व हिंसा का ही उपयोग किया है. अपने इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय जातियों में विभेद उत्पन्न करना, द्रविड़ों को भारत का  मूलनिवासी व आर्यों को बाहरी आक्रमणकारी कहना प्रारंभ किया. सच यह है कि भारत में उदित हुए प्रत्येक धर्म के मानने वाले सभी लोग मूलतः भारत के ही निवासी हैं. मूल भारतीयों में वनों में रहने व नगर में रहने मात्र का ही भेद है.

ईसाइयों ने अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने हेतु षड्यन्त्र रचना सतत चालू रखा. विदेशियों ने ही भारत के इतिहास लेखन में इस बात को दुराशयपूर्वक बोया कि आर्य विदेश से आयी एक जाति थी, जिसने भारत की मूलनिवासी द्रविड़ समाज की सभ्यता को आक्रमण करके पहले नष्ट भ्रष्ट किया व उन्हें अपना गुलाम बनाया. जबकि यथार्थ है कि आर्य किसी जाति का नहीं, बल्कि व्यक्ति की विशिष्ट योग्यताओं, अध्ययन या सिद्धि के कारण प्रदत्त संबोधन था. पहले अंग्रेजों ने व स्वातंत्र्योत्तर काल में अंग्रेजों द्वारा लादी गई शिक्षा पद्धति ने भारत में लगभग छह दशकों तक इसी दूषित, अशुद्ध व दुराशयपूर्ण इतिहास का पठन पाठन चालू रखा.

भारत में इसी दूषित शिक्षा पद्धति ने आर्यन इंवेज़न थ्योरी की स्थापना की व सामाजिक विभेद के बीज लगातार बोए. जर्मनी में जन्मे, किंतु संस्कृत के ज्ञान के कारण अंग्रेजों द्वारा भारत बुलाए मेक्समूलर ने आर्यन इन्वेज़न थ्योरी का अविष्कार किया. मेक्समूलर ने लिखा कि आर्य एक सुसंस्कृत, शिक्षित, बड़े विस्तृत धर्म ग्रन्थों वाली, स्वयं की लिपि व भाषा वाली घुमंतू, किंतु समृद्ध जाति थी. इस प्रकार मैक्समूलर ने आर्य इंवेजन थ्योरी के सफ़ेद झूठ का पौधा भारत में बोया, जिसे बाद में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने एक बड़ा वृक्ष बना दिया. यद्यपि बाद में 1921 में हड़प्पा व मोहनजोदड़ो सभ्यता मिलने के बाद आर्यन थ्योरी को बड़ा धक्का लगा, किंतु अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा पद्धति, झूठे इतिहास लेखन व षड्यन्त्र के बल पर इस थ्योरी को जीवित रखा. सिंधु घाटी सभ्यता की श्रेष्ठता को छिपाने व आर्य द्रविड़ के मध्य विभाजन रेखा खींचने की यह कथा बहुत विस्तृत चली.

भारत के जनजातीय समाज व अन्य समाजों यानि अरण्यक समाज व नगरीय समाज में एकरूपता की बात करें तो कई अकाट्य तथ्य सामने आते हैं. कथित तौर पर जिन्हें आर्य व द्रविड़ अलग अलग बताया गया, उन दोनों का डीएनए एक है. दोनों ही शिव के उपासक हैं. अंग्रेजों के एडवाइज़र प्रसिद्ध एन्थ्रोपोलॉजिस्ट वारियर एलविन, ने जनजातीय समाज पर किए अध्ययन में बताया था कि ये कथित आर्य और द्रविड़ शैविज़्म के ही एक भाग हैं और गोंडवाना के आराध्य शंभूशेक भगवान शंकर का ही रूप हैं. माता शबरी, निषादराज, सुग्रीव, अंगद, सुमेधा, जामवंत, जटायु आदि सभी जनजाति बंधु भारत के शेष समाज के संग वैसे ही समरस थे, जैसे दूध में शक्कर समरस होती है. प्रमुख जनजाति गोंड व कोरकू भाषा का शब्द जोहारी रामचरितमानस के दोहा संख्या 320 में भी प्रयोग हुआ है. मेवाड़ में किया जाने वाला लोक नृत्य गवरी व वोरी भगवान शिव की देन है जो समूचे मेवाड़ी हिन्दू समाज व जनजाति समाज द्वारा किया जाता है. बिरसा मुंडा, टंटया भील, रानी दुर्गावती, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, अमर शहीद बुधू भगत, जतरा भगत, लाखो बोदरा, तेलंगा खड़िया, सरदार विष्णु गोंड आदि कितने ही ऐसे वीर जनजाति बंधुओं के नाम हैं, जिन्होंने अपना सर्वस्व भारत की संस्कृति व हिन्दुत्व की रक्षा के लिये अर्पण कर दिया.

जब गजनी से विदेशी आक्रांता हिन्दू आराध्य सोमनाथ पर आक्रमण कर रहा था, तब अजमेर, नाडोल, सिद्धपुर पाटन, और सोमनाथ के समूचे प्रभाव क्षेत्र में हिन्दू धर्म रक्षार्थ जनजातीय समाज ने एक व्यापक संघर्ष खड़ा कर दिया था. और तो और क्रांतिसूर्य बिरसा मुंडा का “उलगुलान” संपूर्णतः हिन्दुत्व आधारित ही है. ईश्वर यानि सिंगबोंगा एक है, गौ की सेवा करो एवं समस्त प्राणियों के प्रति दया भाव रखो, अपने घर में तुलसी का पौधा लगाओ, ईसाइयों के मोह जाल में मत फंसो, परधर्म से अच्छा स्वधर्म है, अपनी संस्कृति, धर्म और पूर्वजों के प्रति अटूट श्रद्धा रखो, गुरुवार को भगवान सिंगबोंगा की आराधना करो व इस दिन हल मत चलाओ. यह संदेश भगवान बिरसा मुंडा ने दिये. षड्यंत्रपूर्वक जिन्हें आर्य कहा गया और वे जिन्हें अनार्य कहा गया, दोनों ही वन, नदी, पेड़, पहाड़, भूमि, गाय, बैल, सर्प, नाग, सूर्य, अग्नि आदि की पूजा हजारों वर्षों से करते चले आ रहे हैं. भारत के सभी जनजातीय समुदाय जैसे गोंड, मुंडा, खड़िया, हो, किरात, बोडो, भील, कोरकू, डामोर, ख़ासी, सहरिया, संथाल, बैगा, हलबा, कोलाम, मीणा, उरांव, लोहरा, परधान, बिरहोर,  पारधी, आंध, टाकणकार, रेड्डी, टोडा, बडागा, कोंडा, कुरुम्बा, काडर, कन्निकर, कोया, आदि के जीवन यापन, संस्कृति, दैनंदिन जीवन, खानपान, पहनावे, परम्पराओं, प्रथाओं का मूलाधार हिन्दुत्व ही है.

अब ऐसी स्थिति में भारत में मूलनिवासी दिवस की अवधारणा का स्थान कहां रह जाता है? हां, भारत में हमारे भगवान् बिरसा मुंडा की जयंती को शासकीय व सामाजिक स्तर पर “जनजाति गौरव दिवस” व उत्सव के रूप में अवश्य ही मनाया जाना चाहिए.

(लेखक विदेश मंत्रालय भारत सरकार में राजभाषा सलाहकार हैं)

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