चुनावी माहौल में जुबानी जंग तो चल ही रही है. अलग-अलग विचारधारा की नाव में सवार नेता अपने-अपने तरीकों से मत हासिल करने की जुगत कर रहे हैं. इसी बीच कांग्रेस ने अमीरों का धन गरीबों में बांटने का जुमला रैली में उछाल दिया. इसके विरोध में भी बयानों की बारिश शुरू हो चुकी है. अब यह मुद्दा राष्ट्रव्यापी बन चुका है. विमर्श हो रहे हैं. पक्ष में कम और विपक्ष में ज्यादा विचार आ रहे हैं. सामाजिक समरसता और समानता की आड़ में मुस्लिमों में हिन्दुओं का धन बांटने का यह कुविचार लोगों में विरोध पैदा कर रहा है. अब इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने भी अमेरिका में लागू विरासत टैक्स कानून का समर्थन कर दिया. ऐसे में कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ रही हैं.
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सैम पित्रोदा की टिप्पणी के बाद कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से बेनकाब हो गई है. सबसे पहले उनके घोषणापत्र में ‘सर्वेक्षण’ की बात. फिर यूपीए (कांग्रेस) के कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का पुराना बयान जो कांग्रेस की विरासत टैक्स के माध्यम से मुस्लिमों को लाभ पहुँचाने वाला है, आदि विचारों ने स्पष्ट कर दिया है कि सत्ता की कुर्सी पाने के लिए टीम कुछ भी कर सकती है. यह देश में जातिवाद का जहर घोलने के साथ ही समाज में सम्पत्ति के बँटवारे आदि की बात करते हुए फूट डाल देंगे. इन दिनों मनमोहन सिंह का वह बयान भी काफी चर्चा में है, जिसमें कहा गया था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है. इसके बाद अब सैम पित्रोदा की अमेरिका का हवाला देते हुए की गई टिप्पणी कि धन के बँटवारे पर विचार-विमर्श होना चाहिए… यद्यपि, सैम पित्रोदा के बयान से कांग्रेस का मकसद देश के सामने स्पष्ट हो गया है कि वे देश की जनता की निजी संपत्ति का सर्वेक्षण कर उसे सरकारी संपत्ति में बांटना चाहते हैं, कांग्रेस को या तो इसे अपने घोषणा पत्र से वापस लेना चाहिए या स्वीकार करें कि यह वास्तव में उनका इरादा है. देश में लाल झंडे की झंडाबरदारी करने वाले भी यही चाहते हैं. वे अमीरों की धन-सम्पदा पर अपना हक़ जताते हैं. खेतों से फसल जबरन काट लेना. सुविधा शुल्क के नाम पर लेवी लेना. यह सब लाल आतंक का ही हिस्सा है. गरीबों की मदद के नाम पर धन उगाही करना तो लाल आतंकियों का व्यापार बन चुका है. इसका लाभ किन गरीबों को मिलता है, यह कभी समझ नहीं आया. अब उन्हीं भटके मुसाफिरों की राह पर कांग्रेस भी चलती दिख रही है. इस कानून की वकालत करके कांग्रेसियों ने भी अपनी सोच को जगजाहिर कर दिया है. जो देश के बहुसंख्यक समाज के साथ छल के अलावा कुछ नहीं है.
जीवन भर मेहनत करके धन एकत्र करने वाला यदि अपने अंतिम पलों में उसे आमजन में दान कर दे तो उसे ग़लत नहीं कह सकते. सनातनियों में ऐसे कई दानवीर हैं, जिन्होंने दान की दिशा में बड़ी से बड़ी लक्ष्मण रेखाएं खीचीं हैं. मगर उनसे जबरन संपत्ति ले लेना कहां का इंसाफ़ है. ऐसे में तो अमीरों की सांसों पर पराये धन का स्वामी बनने की चाह रखने वाले गिद्ध दृष्टि रखने लगेंगे. वे हर क्षण इसी कामना में रहने लगेंगे कि फलाना मर जाये तो यह मिल जाएगा या उसका का शरीर घाट पहुँचे तो वह मिल जाएगा. दूसरी ओर विरासत टैक्स (कर) यदि देश में लागू कर दिया जाए तो जीवन पर्यंत मेहनत करते हुये सरकार को टैक्स आदि देने के बाद अर्जित सम्पत्ति पर उसके परिजनों का कोई अधिकार नहीं रह जाएगा. ऐसे में उक्त रईस के बुरे समय में कंधे से कंधा जोड़कर खड़े रहने वाले परिजनों के मन में क्या एकता की भावना जाग सकेगी. इससे तो परिवार टूटने लगेंगे. वहीं, धनवान बनने का दीवा स्वप्न देखने वाला बस यही कामना करता रहेगा कि इस देश के सारे अमीर मर जाएं. मेहनत पर भरोसा करने वाला यही सोचने लगेगा कि धूप में ऊर्जा खपाने से बेहतर है कि शांति से प्रतीक्षा करूँ, कोई न कोई तो मरने ही वाला होगा जो मुझे धनवान कर जाएगा.
उधर, इस विकल्प से बचने के लिए धनी व्यक्ति अपने जीते जी ही अपनी सम्पत्ति को बेनामी सम्पत्ति में दर्ज कराने की योजना बनाने लगेगा. वह अपने परिवार का अधिकार सुरक्षित करने के लिए सरकार से झूठ बोलकर टैक्स आदि की चोरी करने लगेगा. जमाखोरी और भ्रष्टाचार को बढ़ाने में इस तरह का कानून मददगार बन जाएगा. ऐसे में यह कानून परिवार, समाज और देश को तोड़ने के लिए काफी होगा. अपने सत्ता सुख के लिए देशवासियों को भड़काने, गुमराह करने और मुफ्तखोरी की बातें करने के बाद भी राष्ट्रीयता की भावना को न तोड़ पाने वालों ने अब देश को अमीरों और गरीबों में नफरत का बीज बोने का काम शुरू कर दिया है.
फिर यह प्रश्न भी उठता है कि उक्त सम्पत्ति को पाने वाले पात्रों का चयन कौन करेगा? वह अमीर जो मर चुका है या मरने वाला है या सरकार? जवाब तो कांग्रेस की ओर से पहले ही पूर्व कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दे दिया है. ऐसे लाभार्थियों का चयन भी एक समय के बाद घोटाले की नींव खोदकर इमारत बनाने का काम करेगा. नि:शुल्क मिलने वाली सम्पत्ति को पाने के लिए गठजोड़ और तोड़फोड़ होगी. सूची बनाने के नाम पर घूसखोरी होगी.
अंतत: फिर वही प्रश्न उठता है कि अपनी जीवन भर की गाढ़ी कमाई को जनता में बांटने का यह विचार कितना कारगर है? इसमें अनेक मत हो सकते हैं. प्रथम दृष्टया यह विकल्प लोकलुभावन और सामाजिक समानता को बल देता हुआ दिखता है. बड़ी संख्या में लोग इसका समर्थन भी करेंगे. खासकर, वे जिन्हें जीवन के किसी भी पड़ाव में बिना कुछ किये ही बैठे-बिठाये किसी अमीर की सम्पत्ति मिल जाएगी. शायद ही ऐसा कोई अकर्मण्य होगा जो इस कानून का विरोध करे. मगर भारत एक ऐसा देश है, जहां कर्म ही प्रधान कहा गया है. कर्मप्रधान, अपनी भुजाओं पर भरोसा करते हैं. हालांकि, लालची योजनाओं की खूबी यही होती है कि विचारवान भी भ्रम के शिकार हो जाते हैं. ऐसे में संभव है कि कर्मप्रधान भी इस योजना के भ्रमजाल में फँस जाए. वे भी मेहनत के बजाय दीवा स्वप्न देखने लगे. किसी अमीर के मरने की बाट जोहने लगे. यदि ऐसा हो गया तो कर्मवीरों के देश भारत का क्या हश्र होगा…?
नीरज तिवारी