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हिमाचल की सांस्कृतिक व व्यापारिक धरोहर का संगम ‘अंतरराष्ट्रीय लवी मेला’

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रामपुर में अंतरराष्ट्रीय लवी मेले का शुभारंभ, 14 नवम्बर को होगा समापन

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर से समृद्ध अंतरराष्ट्रीय लवी मेले का शुभारंभ 11 नवंबर को रामपुर बुशहर, जिला शिमला में हुआ. हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल शिव प्रताप शुक्ल जी ने मेले का विधिवत शुभारंभ किया. लवी मेले का समापन समारोह 14 नवंबर, 2024 को सायं 3.00 बजे होगा.

प्राचीन व्यापार, संस्कृति और परंपराओं का प्रतीक लवी मेला हर वर्ष आयोजित किया जाता है. मेले में हिमाचल की कला, हस्तशिल्प और स्थानीय उत्पादों की समृद्ध विरासत का अद्भुत प्रदर्शन देखने को मिलता है. देश-विदेश से कई व्यापारी और कारीगर अपनी वस्तुएं प्रदर्शित करने के लिए मेले में शामिल होते हैं.

लवी मेले की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

हिमाचल प्रदेश के शिमला में रामपुर सतलुज के किनारे समुद्र तल से 924 मीटर की ऊंचाई पर बसा सुंदर पर्वतीय स्थान है. लवी एक ऐतिहासिक व्यापारिक मेला है. अंतरराष्ट्रीय लवी मेला पुरातन इतिहास, परंपरा और संस्कृति का प्रतीक है. यह मेला प्रदेश की राजधानी शिमला से 130 किलोमीटर दूर रामपुर बुशैहर में प्रतिवर्ष 25 कार्तिक 11 नवम्बर से लगातार 4 दिन तक मनाया जाता है. बुशैहर रियासत राजा प्रद्युम्न द्वारा स्थापित की गयी थी. प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र में पुरातन समय से विदेशों से व्यापार की परंपरा बहुत पुरानी रही है. कुल्लू दशहरा और रामपुर लवी मेला इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं. इन मेलों से लोग साल भर के लिए आर्थिक संसाधनों का विकास करते थे और अपने साल भर की आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी कर लिया करते थे. अत्याधिक शीत और हिमपात के कारण जनजातीय क्षेत्रों में ऐसे अवसरों पर ही जरूरी वस्तुएं खरीद कर रख ली जाती थीं, जिससे साल भर गुजारा किया जाता था.  मेले में कर मुक्त व्यापार होता था. लवी मेले में किन्नौर, लाहौल-स्पीति, कुल्लू और प्रदेश के अन्य क्षेत्रों से व्यापारी पैदल पहुंचते थे. वे विशेष रूप से ड्राई फ्रूट, ऊन, पशम और भेड़-बकरियों सहित घोड़ों को लेकर यहां आते थे. लवी मेला चामुर्थी घोड़ों के कारोबार के लिए भी जाना जाता रहा है. ये घोड़े उत्तराखंड से लाए जाते थे.

तिब्बत की संधि से जुड़ा लवी मेले का इतिहास

लवी मेले का इतिहास बुशैहर रियासत के 113वें शासक केहरि सिंह से जुड़ता है. उन्होंने 1639 ई0 से 1696 ई. तक यहां शासन किया. उन्होंने अपने शासनकाल में कुमारसेन, कोटगढ़, बालसन, ठियोग और दरकोटी जैसी छोटी-छोटी रियासतों को जीतकर अपना अधिपत्य स्थापित किया. केहरि सिंह ने बड़ी रियासतों में मंडी, सुकेत और गढ़वाल रियासतों पर भी अपना अधिपत्य स्थापित किया. इसके बाद मुगल शासक औरंगजेब के राज्यों में भी अपना प्रभुत्व स्थापित किया. राजा केहरि सिंह की बहादुरी के कारण बाद में उनको छत्रपति की उपाधि भी प्रदान की गयी. दक्षिण की रियासतों के साथ मेल-जोल बढ़ाने के उपरान्त राजा केहरि सिंह ने अपना सैन्य अभियान तिब्बत की ओर प्रारम्भ किया. इस अभियान के लिए स्थानीय शासक उनका साथ देने को तैयार नहीं थे. इसलिए उन्होंने सन् 1681 ई. में अपनी एक बहुत बड़ी सेना को असैनिकों के वेश में तैयार करके तिब्बत की ओर कूच किया और इस प्रकार नाटक किया मानो वे तीर्थयात्रा के लिए कैलाश मानसरोवर जा रहे हों. इसी समय तिब्बत एवं लद्दाख में सीमा-विवाद चला हुआ था जो 1681 ई. से 1683 ई. में एक युद्ध में परिवर्तित हो गया. युद्ध में तिब्बत की सेना का नेतृत्व जनरल गाल्दन त्सेवांग कर रहे थे. राजा केहरि सिंह इस समय अपने सैनिकों सहित एक तीर्थ यात्री के रूप में मानसरोवर में ठहरे हुए थे. तिब्बति जनरल ने उनसे सहायता करने का अनुरोध किया. बुशैहर के राजा ने इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया. इस दौरान दोनों शासकों के मध्य एक समझौता हुआ, जिसमें निश्चित हुआ कि दोनों शासकों के बीच मित्रता बनी रहेगी. दोनों देशों के व्यापारियों को एक दूसरे के देश में माल लाने की सुविधा बिना किसी अतिरिक्त कर अदा किये होगी. सन्धि को सुदृढ़ बनाए रखने के लिए तिब्बत नरेश की ओर से बुशैहर नरेश को घोड़े तथा बुशैहर नरेश की ओर से तिब्बत नरेश को तलवारों का आदान-प्रदान हुआ. सन्धि के बाद से ही दोनों देशों में व्यापार होने लगा और लवी मेला कामरू या सराहन में मनाया जाने लगा.

दोनों नरेशों के बीच हुए समझौते पर प्रोफेसर एल. पैच ने अपनी किताब ‘इंडियन हिस्टोरिकल क्वालिटी’ के वॉल्युम 23 में लिखा है कि तिब्बत एवं लद्दाख के बीच होने वाले युद्ध के साथ ही तिब्बत एवं बुशैहर के नरेशों के बीच समझौता हुआ तथा दोनों ने एक दूसरे के दूत भेजने स्वीकार कर दिये. 1684 ई. में दोनों देशों के नरेशों के मध्य तिंगगोस में एक अन्य समझौता हुआ, जिसके अनुसार तिब्बत के शासक पांचवें दलाईलामा ने राजा केहरि सिंह को ऊपरी किन्नौर का क्षेत्र दे दिया जो तिब्बत ने लद्दाख से छीना था. उस समय का समकालीन लेख डॉ. ए.एच. फ्रैंक को उस समय मिला, जब वे सन् 1906 ई. में ऐतिहासिक इतिवृत की खोज में किन्नौर, स्पीति एवं लद्दाख की ओर निकले थे तथा नमगिया के निकट शिपकी में ठहरे हुए थे. वहां एक हीरा नाम व्यक्ति से मिले, जिसके पूर्वज तिब्बत से आए थे तथा नमगिया में स्थाई रूप से बसे हुए थे. इस समकालीन लेख के बारे में डॉ. फ्रैंक ने भी अपनी डायरी में वर्णन किया है. सराहन से जैसे ही रियासत की राजधानी रामपुर लाई गयी तो लवी मेला यहीं पर मनाया जाने लगा. मेले में चीन से चाय, मारकण्ड से चांदी के कटोरे, रूस से खिलौने बेचने के लिए लाये जाते थे. 19वीं शताब्दी में लिपस्टिक, कप, मर्तबान, तथा मंहगे सिल्क के कपड़े यहां बिकने आते थे. तिब्बत और लद्दाख के साथ इनका मुक्त व्यापार होता था. व्यापार से बुशैहर रियासत को बहुत लाभ होता था. तिब्बत के व्यापारी ऊन, पशम, नमक आदि लाकर मेले में बेचते थे. शहद, घी, दूध, अखरोट, अंगूर, याक की मूंछें आदि मेले की व्यापारिक वस्तुएं हुआ करती थीं. सन् 1810 ई. से 1815 ई. के मध्य जब गोरखों ने बुशैहर रियासत में आतंक मचाया तो मेले को धक्का लगा. इसके बाद मेले को पहले की तरह मनाया जाने लगा. मेले के बारे में अनेक कथन स्थानीय स्तर पर उपलब्ध होते हैं जो इसके महत्व को प्रदर्शित करते हैं.

अंतरराष्ट्रीय लवी मेले की वर्तमान स्थिति

कुछ वर्ष पहले तक मेला रामपुर बाजार के साथ-साथ लगता था, लेकिन मेले के आयोजन के लिए बाजार से आगे मेला ग्राउंड बना दिया गया है. जहां विभिन्न विभागों के साथ मेले के लिए अलग-अलग बाजार बनाए जाते हैं. जिसका पुरातन स्वरूप भी देखा जा सकता है. किन्नौर से आने वाले व्यापारी पूरे लवी मेले के दौरान रामपुर में ही अपना डेरा जमा लेते हैं. किन्नौरी सभ्यता की पट्टू-कोट की पटियां, बदाम, चिलगोजा, खुमानियां, शिलाजीत और कई वस्तुएं किन्नौर के व्यापारी मेले के दौरान बेचने के लिए लाते हैं. स्पीति, कुल्लू और शिमला के भीतरी भागों से व्यापारी अपना परंपरागत समान लेकर उत्साह से मेले में भाग लेते हैं.

 

उत्तर भारत का यह प्रमुख व्यापारिक मेला ग्रामीण दस्तकारों के रोजगार और आर्थिक मजबूती का केंद्र बना है. अंतरराष्ट्रीय लवी मेला का योगदान हथकरघा व्यवसाय को जीवित रखने में बहुत महत्वपूर्ण है. अंतरराष्ट्रीय लवी मेले के कारण ग्रामीण दस्तकारों की साल भर की रोजी चलती रही है. दूर दराज क्षेत्र के बुनकरों का अंतरराष्ट्रीय लवी मेला आर्थिक और रोजगार का प्रमुख साधन है. मेले के दौरान हस्तनिर्मित वस्त्रों, शॉल, पट्टू, पट्टी, टोपी, मफलर, खारचे आदि की मांग रहती है. ग्रामीण दस्तकार की कोशिश रहती है कि 11 नवंबर से शुरू होने वाले लवी मेले में अधिक सामान एवं वस्त्र तैयार कर ले जाएं, ताकि मेले में अच्छा पैसा कमाया जा सके. ग्रामीण दस्तकारी को बढ़ावा देने, ग्रामीण परम्परागत उत्पादों के लिए ग्राहक उपलब्ध करवाने में अंतरराष्ट्रीय लवी मेला महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है.

लवी मेले में सुन्नी-भज्जी, सिरमौर व अर्की आदि स्थानों से व्यापारी अपनी वस्तुओं को यहां लाकर बेचते हैं. रोहड़ू की ओर से व्यापारी चावल, भेड़ व बकरियां लाते हैं तथा जिला कुल्लू के बाहरी सिराज के व्यापारियों के साथ ब्रौ में अथवा मेले में व्यापार करते हैं.

हिमाचल प्रदेश के अतिरिक्त पंजाब, हरियाणा, उतरप्रदेश, दिल्ली, चण्डीगढ़, जम्मू कश्मीर, मध्यप्रदेश और राजस्थान आदि राज्यों से भी यहां व्यापारी आते हैं.

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