बिगड़ती छवि को ठीक करने के प्रयास या वास्तव में सेवा कार्य?
27 अप्रैल को नवभारत टाइम्स में एक समाचार छपा – “महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में 4 मुस्लिम लड़कों ने 800 से अधिक हिन्दुओं का दाह -संस्कार हिन्दू रीति रिवाजों से किया. इन चार लड़कों के नाम अब्दुल जब्बार, शेख अहमद, शेख अलीम और आरिफ खान हैं. श्मशान भूमि में आ रहे अधिकतर शव कोरोना संक्रमितों के हैं, यह जानने के बावजूद ये चारों लड़के अपनी जान की परवाह किये बगैर रात -दिन यहां आने वाले हिन्दुओं के शवों का हिन्दू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार कर रहे हैं. इस गंभीर संकटकाल में जब परिजन भी चार हाथ की दूरी बना लेते हैं, ये चार मुस्लिम नौजवान सभी धर्मों के परे जाकर इंसानियत की मिसाल दे रहे हैं.”
यह समाचार जिस तरह से कुछ न्यूज पोर्टल्स द्वारा उठाया गया, चैनल्स ने चलाया व वीडियो बनाकर अन्य प्रचार माध्यमों से प्रसारित किया गया, उससे मामले की तह तक जाने की इच्छा जाग्रत हुई.
पूरे मामले की पड़ताल करने पर वास्तविकता कुछ और ही निकली…..पता चला कि यवतमाल के सरकारी अस्पताल वसंतराव नाईक शासकीय वैद्यकीय महाविद्यालय में किसी की मृत्यु कोविड-19 से होती है तो उनका अंतिम संस्कार करने की जिम्मेदारी सरकार ने नगर परिषद को दी है. कोविड से मृत्यु होने के बाद, मेडिकल कॉलेज नगर परिषद को सूचना देता है. उसके बाद प्रतिदिन दोपहर को नगर परिषद की ओर से लिपिक अमोल पाटील मेडिकल कॉलेज जाते हैं. (पहली मृत्यु से आज तक) शव को कब्जे में लेते हैं. उसके बाद प्लास्टिक में लिपटे इन शवों को निर्धारित एंबुलेंस में रखकर, मोक्षधाम में लाया जाता है. यह काम करने वाली टीम में नगर परिषद के कॉन्ट्रैक्ट पर कार्यरत कर्मचारी भालेराव व संजय बेंडे रहते हैं तथा 2 अन्य कर्मचारी मेडिकल कॉलेज के होते हैं, जो लगातार बदलते रहते हैं. इसीलिए उनके नाम यहां नहीं दिए जा रहे हैं.
शव मोक्षधाम आने तक 4 मजदूर (जो संयोगवश मुस्लिम हैं) चिता की आधी लकड़ियां लगा कर रखते हैं. भालेराव और उनकी टीम इस आधी बनी चिता पर शव रखते हैं. प्लास्टिक के कवर में पैक्ड इन शवों पर मृतक के नाम की चिट्ठी चिपकी होती है.
पैक्ड शव चिता पर रखने के बाद उस पर फिर से यही 4 मुसलमान मजदूर लकड़ियां रखते हैं. शमशान में लकड़ियों की कमी के कारण समाज के लोगों, व सामाजिक संस्थाओं ने अंत्य विधि के लिए लकड़ियां प्रदान की हैं.
अभी मृतकों की संख्या अधिक होने के कारण एक चबूतरे पर एक से अधिक चिताएं भी हो सकती हैं. किसकी चिता कौन सी है, यह भ्रम न रहे इसके लिए अमोल पाटील डायग्राम बनाकर नाम लिखकर रखते हैं.
लकड़ी से शव पूरी तरह ढंक जाने के बाद मृतक के परिजनों को अंदर बुलाया जाता है. परिजन आवश्यक धार्मिक विधियां करके अग्नि देते हैं. किसी दुर्लभ मामले में कोई संबंधी नहीं रहा तो नगर परिषद की टीम में से कोई अग्नि देता है.
बिलकुल शुरुआत से लेकर आज तक इस काम के लिए नगर परिषद के मेडिकल अधिकारी डॉ. विजय अग्रवाल, अधीक्षक गहरवार, नगर परिषद के स्वच्छता अधिकारी जनबंधु या पळसकर, अमोल पाटील पूरे समय उपस्थित रहते हैं. कभी कभी अभियंता पुराणिक भी मौजूद रहते हैं. वास्तव में नगर परिषद प्रशासन के सामने अभी कोविड ग्रस्तों का अंतिम संस्कार करना ही मुख्य काम हो गया है.
चिता बनाने, अगले दिन चबूतरा साफ करने, अस्थियां जुटाने आदि कामों के लिए नगर परिषद प्रति शव 500 रुपये 4 मुस्लिम मजदूरों की इस टीम को देती है. मान लीजिए किसी दिन 28 शव आए तो उस दिन कुल 14,000 यानि 3500 रुपये की राशि प्रत्येक को बांट दी जाती है.
उपर्युक्त पड़ताल से स्पष्ट है कि समाचार में बड़ी सफाई से आजीविका के लिए काम करने वाले मजदूरों को सेवा कार्य करते रिपोर्ट किया गया क्योंकि वे मुस्लिम हैं. यदि ये चिता सजाने वाले मजदूर हिन्दू होते, क्या तब भी यह समाचार छपता? आजीविका के लिए काम करना इंसानियत की मिसाल कब से बन गया?
ऐसा ही एक अन्य समाचार चित्र के साथ खूब वायरल किया गया, जिसमें कहा गया कि अनुभव शर्मा की मृत्यु कोविड से हुई और मुहम्मद युनुस ने हिन्दू रीति रिवाज से उनका अंतिम संस्कार किया. जबकि अनुभव शर्मा के भाई शरद शर्मा का कहना है कि उनके भाई कोरोना से संक्रमित थे ही नहीं और उनका अंतिम संस्कार उन्होंने स्वयं अपने परिजनों की उपस्थिति में किया. मुहम्मद युनुस उनकी गाड़ी चलाते थे. अंतिम संस्कार के समय वह भी वहां मौजूद थे और मृतक की चिता पर राब चढ़ाने की रीति के दौरान युनुस ने भी राब चढ़ाई. इस दौरान ही किसी ने फोटो खींचकर वायरल कर दी. शरद ने बताया कि इस रीति में श्रद्धानुसार कोई भी राब चढ़ा सकता है.
यानि एक वर्ग सक्रिय है जो तथ्यों को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत कर रहा है और अपने एजेंडे के अनुसार कहानी चला रहा है…इनका उद्देश्य सेवा कार्य को दिखाना या सेवा के लिए प्रेरित करना तो हो नहीं सकता, क्योंकि यहां सेवा जैसा तथ्य है ही नहीं….तो फिर क्या यह एक वर्ग की छवि को ठीक करने का प्रयास है?
चारों युवकों को हतोत्साहित या अपमानित नहीं करना है. ये युवक जो भी कर रहे हैं, हिम्मत का काम है. कोरोना के इस संकट काल में किसी भी तरह से कोई सहयोग करने वाला हर व्यक्ति हमारे आभार का अधिकारी है. लेकिन वास्तविकता न बताते हुए, आधी अधूरी जानकारी देकर प्रोपगंडा करने वाले इन “सेक्युलर” खबरनवीसों और सोशल मीडिया क्रांतिकारियों की साजिश समझना जरुरी है.