नई दिल्ली. किसी भी व्यक्ति के जीवन में नेत्रों का अत्यधिक महत्व है. नेत्रों के बिना उसका जीवन अधूरा है, पर नेत्र न होते हुए भी अपने जीवन को समाज सेवा का आदर्श बना देना सचमुच किसी दैवी प्रतिभा का ही काम है. जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज ऐसे ही व्यक्तित्व हैं. स्वामी जी का जन्म ग्राम शादी खुर्द (जौनपुर, उत्तर प्रदेश) में 14 जनवरी, 1950 को पं. राजदेव मिश्र एवं शचीदेवी के घर में हुआ था. जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि यह बालक अति प्रतिभावान होगा, पर दो माह की अवस्था में इनके नेत्रों में रोहु रोग हो गया. नीम हकीम के इलाज से इनकी नेत्र ज्योति सदा के लिए चली गयी. पूरे घर में शोक छा गया, पर इन्होंने अपने मन में कभी निराशा के अंधकार को स्थान नहीं दिया.
चार वर्ष की अवस्था में ये कविता करने लगे. 15 दिन में गीता और श्रीरामचरित मानस तो सुनने से ही याद हो गये. इसके बाद सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से नव्य व्याकरणाचार्य, विद्या वारिधि (पीएचडी) व विद्या वाचस्पति (डीलिट) जैसी उपाधियां प्राप्त कीं. छात्र जीवन में पढ़े एवं सुने गये सैकड़ों ग्रन्थ उन्हें कण्ठस्थ हैं. हिन्दी, संस्कृत व अंग्रेजी सहित 14 भाषाओं के ज्ञाता हैं. अध्ययन के साथ-साथ मौलिक लेखन के क्षेत्र में भी स्वामी जी का काम अद्भुत है. इन्होंने 80 ग्रन्थों की रचना की है. इन ग्रन्थों में जहां उत्कृष्ट दर्शन और गहन अध्यात्मिक चिन्तन के दर्शन होते हैं, वहीं करगिल विजय पर लिखा नाटक ‘उत्साह’ इन्हें समकालीन जगत से जोड़ता है. सभी प्रमुख उपनिषदों का आपने भाष्य किया है. ‘प्रस्थानत्रयी’ के इनके द्वारा किये गये भाष्य का विमोचन अटल बिहारी वाजपेयी जी ने किया था.
बचपन से ही स्वामी जी को चौपाल पर बैठकर रामकथा सुनाने का शौक था. आगे चलकर वे भागवत, महाभारत आदि ग्रन्थों की भी व्याख्या करने लगे. जब समाजसेवा के लिए घर बाधा बनने लगा, तो इन्होंने वर्ष 1983 में घर ही नहीं, अपना नाम गिरिधर मिश्र भी छोड़ दिया. स्वामी जी ने अब चित्रकूट में डेरा लगाया और श्री रामभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हो गये. वर्ष 1987 में इन्होंने यहां तुलसी पीठ की स्थापना की. वर्ष 1998 के कुम्भ में स्वामी जी को जगद्गुरु तुलसी पीठाधीश्वर घोषित किया गया.
तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा के आग्रह पर स्वामी जी ने इंडोनेशिया में आयोजित अंतरराष्ट्रीय रामायण सम्मेलन में भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व किया. इसके बाद वे मॉरीशस, सिंगापुर, ब्रिटेन तथा अन्य अनेक देशों के प्रवास पर गये. स्वयं नेत्रहीन होने के कारण स्वामी जी को नेत्रहीनों एवं विकलांगों के कष्टों का पता है. इसलिए उन्होंने चित्रकूट में विश्व का पहला आवासीय दिव्यांग विश्विविद्यालय स्थापित किया. इसमें सभी प्रकार के दिव्यांग शिक्षा अर्जन करते हैं. इसके अतिरिक्त दिव्यांगों के लिए गौशाला व अन्न क्षेत्र भी है. राजकोट (गुजरात) में महाराज जी के प्रयास से सौ बिस्तरों का जयनाथ अस्पताल, बालमन्दिर, ब्लड बैंक आदि का संचालन हो रहा है. विनम्रता एवं ज्ञान की प्रतिमूर्ति स्वामी रामभद्राचार्य जी अपने जीवन दर्शन को निम्न पंक्तियों में व्यक्त करते हैं.
मानवता है मेरा मन्दिर, मैं हूँ उसका एक पुजारी
हैं विकलांग महेश्वर मेरे, मैं हूँ उनका एक पुजारी.