अहा! कितना सुखद है ये! ये झाबुआ की हाथीपावा की पहाड़ी का चित्र है, आज एक समाचार पत्र में छपा है. ये झाबुआ के सामान्य जनों के श्रम का सुफल है.
झाबुआ के बारे में एक धारणा बन गई थी कि वहां जल नहीं है, सुविधाएं नहीं हैं. और मिशनरियों ने इस अभाव का कितना लाभ लिया, ये जानना हो तो झाबुआ के किसी भी दो मंजिला घर पर खड़े होकर आंखें घुमाइये. क्रॉस के निशान, प्रायोजित चर्चों का आंकड़ा बता देंगे.
झाबुआ और आलीराजपुर के जल संकट को दूर करने के उद्देश्य से कितने ही सेमिनार /गोष्ठियां हुईं, लेकिन जल नहीं बरसा. जल के अभाव में प्रतिवर्ष झाबुआ से होने वाला हजारों परिवारों का पलायन भी कभी नहीं रुका.
क्योंकि हल किसी भाषण से नहीं निकलना था, हल किसी पश्चिम देश की विधि को झाबुआ में लागू करने से नहीं निकलना था और न ही सरकारों के जलशक्ति मंत्रालय से. हल तो झाबुआ के पास पहले ही था, इस जनजातीय बहुल जिले में भील समाज पर्याप्त संख्या में है और भीलों की महान परम्परा है “हलमा”.
हलमा, अर्थात पुरुषार्थ की भावना से सबका साथ आकर एक ही कार्य को संपादित करना. झाबुआ में हलमा बुलाया गया, हलमा के अंतर्गत चरणबद्ध रूप से गांवों के निवासियों को आना है और हाथीपावा की पहाड़ी पर पौधारोपण करना है और जल संरचना बनाना है. उत्साह के लिए कितनी ही गेती यात्राएं निकलीं, कितनी ही सभाओं का आयोजन किया गया. गांव के गांव आए और अपने स्वेद से हाथीपावा की पहाड़ी को हरी -भरी और लाखों जल संरचनाओं से युक्त बना दिया.
परम्परा जीवित हुई तो और कई लाभ हुए, एक गांव, दूसरे गांव को अपने यहां हलमा के लिए आमंत्रित करता, दोनों गांवों के ग्रामीण गांव में तालाब और जल संरचना बनाते, आज झाबुआ के कई गांव तालाबयुक्त हो गए हैं.
आज झाबुआ, जलयुक्त हो रहा है. मानगढ़ की पहाड़ी यदि भीलों के महान शौर्य का प्रतीक है तो हाथीपावा उनके महान श्रम का प्रतीक है.
जब भारत, भारत होकर सोचता है तो सभी समस्याओं के हल निकलते ही हैं. भारत को न बहिर्मुखी होना है, न अधोमुखी, भारत को तो अंतर्मुखी होना है, इसी में विश्व का कल्याण है.
अमन व्यास