करंट टॉपिक्स

कारगिल का शेर परमवीर कैप्टन विक्रम बत्रा

Spread the love

कारगिल युद्ध के हीरो परमवीर कैप्टन विक्रम बत्रा की बहादुरी के कारण ही उन्हें भारतीय सेना ने शेरशाह तो पाकिस्तानी सेना ने शेरखान नाम दिया था. मात्र 24 साल की उम्र में देश के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले जांबाज की बहादुरी के किस्से आज भी याद किए जाते हैं. उनकी वीरता को देखते हुए ही कै. विक्रम बत्रा को भारत सरकार ने परमवीर चक्र से अलंकृत किया था. उन्हें ‘कारगिल का शेर’ भी कहा जाता है.

कैप्टन विक्रम बत्रा के नेतृत्व में सेना ने दुश्मन की नाक के नीचे से प्वाइंट 5140 छीन ली थी. उन्होंने अकेले ही 3 घुसपैठियों को मार गिराया था. उनके साहस ने यूनिट के जवानों में जोश भर दिया था और प्वाइंट 5140 पर भारत का झंडा लहरा दिया. उनके साथ रहे जवान ही उनकी बहादुरी के किस्से सुनाते हैं. माना भी जाता है कि यदि कमांडर बेहतर तरीके से टुकड़ी का नेतृत्व करता है तो साथियों के हौसले बुलंद रहते हैं.

ठुकरा दी थी मर्चेंट नेवी की नौकरी

1997 में विक्रम बत्रा को मर्चेंट नेवी से नौकरी का ऑफर आया, लेकिन उन्होंने लेफ्टिनेंट की नौकरी को चुना. 1996 में इंडियन मिलिट्री अकादमी में मानेक शॉ बटालियन में उनका चयन हुआ. उन्हें जम्मू कश्मीर राइफल यूनिट, श्योपुर में बतौर लेफ्टिनेंट नियुक्त किया गया. कुछ समय बाद कैप्टन रैंक दिया गया. उन्हीं के नेतृत्व में टुकड़ी ने 5140 पर कब्जा किया था.

..…यह दिल मांगे मोर

पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया. हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया. इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया. बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून, 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया था.

शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध विक्रम बत्रा ने जब चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में यह शब्द गूंजने लगा था. इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई. अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा.

इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू किया. इसकी बागडोर भी विक्रम को सौंपी गई. उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा. अंतिम मिशन लगभग पूरा हो चुका था, जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टिनेंट नवीन को बचाने के लिए लपके.

लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टिनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गए थे. जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए उनको पीछे घसीट रहे थे, उसी समय उनके सीने पर गोली लगी और वे ‘जय माता दी’ कहते हुए वीरगति को प्राप्त हुए. अदम्य साहस और पराक्रम के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को 15 अगस्त, 1999 को परमवीर चक्र के सम्मान से नवाजा गया जो उनके पिता जीएल बत्रा ने प्राप्त किया.

दो वर्ष पूर्व एक समाचार पत्र से बातचीत में कैप्टन विक्रम बत्रा के पिता गिरधारी लाल बत्रा ने कहा कि वह उस फोन कॉल को कभी नहीं भूल सकते, जो उनके बेटे ने बंकर पर कब्जा करने के बाद की थी. कारगिल युद्ध के जांबाज योद्धाओं की यादों को ताजा रखने के लिए उनके बारे में पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया जाना चाहिए. हमने भी पूर्व योद्धाओं के बारे में पुस्तकों में पढ़ा है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *