कृष्णमोहन झा
केंद्र सरकार द्वारा बनाए कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और अकाली दल के वयोवृद्ध नेता प्रकाश सिंह बादल ने पद्मविभूषण सम्मान लौटा कर आंदोलनरत किसानों के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया है. उनका यह फैसला पंजाब में अकाली दल को अपना खोया हुआ जनाधार पुनः वापस पाने में कितनी मदद करेगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा. परंतु पद्मविभूषण सम्मान लौटाने के उनके इस फैसले ने फिलहाल कुछ सवाल अवश्य खड़े कर दिए हैं. उनके इस फैसले से मुझे गत लोकसभा चुनावों का प्रसंग याद आ रहा है, जब वाराणसी लोकसभा क्षेत्र से दोबारा चुनाव लड़ने जा रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करने हेतु राजग के घटक दलों के वरिष्ठ नेता वाराणसी पहुंचे थे. स्वाभाविक रूप से उनमें अकाली दल की ओर से प्रकाश सिंह बादल भी शामिल थे. तब प्रधानमंत्री मोदी ने विशेष सम्मान व्यक्त करते हुए उनके सादर चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया था. प्रधानमंत्री मोदी की इस अद्भुत विनम्रता ने प्रकाश सिंह बादल को अभिभूत कर दिया था. शायद प्रकाश सिंह बादल ने भी उस स्थिति की कल्पना नहीं की थी, लेकिन मोदी तो वयोवृद्ध अकाली नेता के सामने सश्रद्धया विनयावनत होकर सारे देश वासियों से भूरि भूरि प्रशंसार्जन के अधिकारी बन चुके थे.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के वर्चस्व वाले जनता दल यूनाइटेड की भांति अकाली दल भी राजग में 90 के दशक से भाजपा का सहयोगी दल था, लेकिन कुछ माह पूर्व मोदी सरकार द्वारा संसद में पारित कृषि कानूनों से नाराज़ होकर उसने राजग से संबंध तोड़ लिए थे. अकाली दल के कोटे से केंद्र सरकार में मंत्री ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. यूं तो अकाली दल ने नए कृषि कानूनों को किसान विरोधी बताते हुए राजग और मोदी सरकार से नाता तोड़ा है, परन्तु इसके पीछे असली वजह यह मानी जा रही है कि अकाली दल का यह फैसला वास्तव में पंजाब के किसानों के बीच अपना खोया हुआ जनाधार पुनः वापस पाने की एक कोशिश है. बड़ा सवाल यह कि जब इसी साल जून में सरकार ने देश में नए कृषि सुधारों का मार्ग प्रशस्त करने हेतु अध्यादेश जारी किए थे, तब अकाली दल ने उनका विरोध क्यों नहीं किया. अकाली दल चाहता तो उसी समय सरकार पर दबाव बनाकर उक्त अध्यादेशों के उन प्रावधानों में बदलाव के लिए सरकार को राजी कर सकता था, जिन्हें वह आज किसान विरोधी बताकर उनका विरोध कर रहा है.
मेरा मानना यह है कि प्रकाश सिंह बादल के प्रति प्रधानमंत्री के मन में जो विशेष आदर भाव है, उसे ध्यान में रखते हुए अगर बादल जून में ही प्रधानमंत्री से कृषि सुधारों पर सकारात्मक विचार विमर्श करते तो उसी समय समस्या का संतोषजनक समाधान निकलने की संभावनाएं बलवती हो सकती थीं और आज प्रकाश सिंह बादल को देश का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान लौटाने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती. निश्चित रूप से प्रकाश सिंह बादल के अप्रत्याशित फैसले ने प्रधानमंत्री को असहज महसूस करने पर विवश कर दिया होगा. बादल से यह अपेक्षा अवश्य की जा सकती है कि वे पद्मविभूषण सम्मान के गौरव और गरिमा को ध्यान में रखते हुए अपने फैसले पर पुनर्विचार करें.
पूरी गंभीरता के साथ इस प्रश्न का उत्तर भी खोजना होगा कि पिछले कुछ समय में सरकार के किसी कदम का विरोध करने के लिए अथवा अपनी बात मनवाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने की मंशा से गौरवशाली नागरिक सम्मानों को लौटा देने का जो चलन शुरू हुआ है, उसका औचित्य आखिर कैसे सिद्ध किया जा सकता है. कुछ वर्ष पूर्व कथित असहिष्णुता के विरोध में देश के कुछ प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने भी उन्हें अतीत में दिए गए प्रतिष्ठित सम्मान लौटा दिए थे. सवाल यह उठता है कि क्या किसी भी मुद्दे पर अपना विरोध दर्ज कराने के लिए प्रतिष्ठित सम्मानों को लौटाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं हो सकता. विख्यात गीतकार स्व. नीरज ने भी पुरस्कार वापसी को गलत ठहराया था. दरअसल किसी भी प्रतिष्ठित सम्मान की वापसी उस सम्मान की गरिमा को कम करने जैसा ही है और विरोध की अभिव्यक्ति के नाम पर सम्मान लौटाने से इन प्रतिष्ठित सम्मानों की उपादेयता पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं. अब यह सिलसिला यहीं थम जाए, तभी हम इन प्रतिष्ठित सम्मानों की गरिमा और गौरव के अक्षुण्ण बने रहने के प्रति निश्चिंत हो सकते हैं. इसलिए आंदोलनरत किसानों के प्रति अपना समर्थन और सरकार के प्रति विरोध जताने के लिए पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और खेल जगत की दिग्गज हस्तियों ने अतीत में उन्हें मिले सम्मान लौटाने की जो घोषणा की है, उस पर उन्हें गंभीरता से पुनर्विचार करना चाहिए. सम्मानों की वापसी किसी समस्या के समाधान का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकती.