वामपंथी आतंकियों के शहरी पैरोकार उन्हें जनजातीय क्षेत्रों में जल, जंगल और जमीन की रक्षा करने वाला समूह बताते नहीं थकते. पत्र-पत्रिकाओं में लेख, व सेमीनारों के माध्यम से माओवादी हिंसा को जनजातीय समर्थन के दावे किए जाते हैं.
लेकिन, वास्तविकता यह है कि माओवादी संगठनों में अधिकांश माओवादी बंदूक के जोर पर बचपन में ही संगठन में शामिल कर लिए जाते हैं. घने जंगलों के बीच सुदूर पिछड़े क्षेत्रों के जनजातीय समूहों के बच्चों से वामपंथी आतंकियों द्वारा ना सिर्फ इनका बचपन छीन लिया जाता है, बल्कि इतनी छोटी उम्र में ही इन्हें मां-बाप से दूर करके उनके हाथों में लाल आतंक के पर्चे और बंदूकें थमा दी जाती हैं.
विडंबना तो यह है कि इन मासूम बच्चों से उनका बचपन छीनने वाले माओवादी मां-बाप की मृत्यु हो जाने पर भी इन लोगों को अंत्येष्टि में शामिल होने से भी वंचित रखते हैं.
यह वातानुकूलित कमरों के भीतर बैठकर स्वघोषित सामाजिक समानता के प्रणेता बने बुद्धिजीवियों द्वारा कागज पर बनाई गई एक विशेष विचारधारा को पोषित करने वाले रणनीति का हिस्सा नहीं, अपितु उन लोगों की आपबीती है. जिनसे इस बर्बर संगठन के आतंकियों ने इनका बचपन छीन लिया. यह वास्तविकता बस्तर पुलिस द्वारा किए गए सर्वे में पिछले 5-7 वर्षों में आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों की ज़ुबान से निकल कर सामने आया है. माओवादी संगठनों के बर्बर चेहरे को बेनक़ाब करता यह सर्वे उन माओवादियों पर किया गया था, जिन पर सरकार ने 5 लाख या उससे ज्यादा का इनाम घोषित कर रखा था.
सर्वे में यह बात सामने आई है कि माओवादी अपनी संगठन की शक्ति को बढ़ाने के लिए भोले-भाले जनजातीय समूहों में से 15 वर्ष के बच्चों को भी जबरन बंदूक की नोक पर उठा लेते हैं. इन बच्चों में जनजातीय समूहों की लड़कियां भी शामिल होती हैं. बच्चों का अपहरण करके माओवादी उन्हें अपने साथ जंगलों में रहने को ना सिर्फ मजबूर करते हैं, बल्कि इतनी छोटी उम्र में ही इनका मानसिक और शारीरिक शोषण भी किया जाता है. साथ ही कम उम्र से ही इनके दिमाग को लाल आतंक की दिग्भ्रमित विचारधारा से पोषित किया जाता है.
बंदूक के जोर पर संगठन में शामिल किए इन बच्चों को अपनी मर्जी से कहीं भी आने-जाने की अनुमति नहीं होती. इन्हें स्वयं को जिंदा रखने की चुनौती के साथ-साथ शीर्ष माओवादी कैडर की जरूरतों का भी ध्यान रखना पड़ता है. करीबन 2 वर्ष के कड़े प्रशिक्षण के बाद इनके हाथों में बंदूकें थमा दी जाती है और जब तक इनकी उम्र 20 वर्ष की होती है. तब तक यह स्वचालित हथियारों को चलाने में भी माहिर हो चुके होते हैं.
जनजातीय क्षेत्रों के इन युवक युवतियों के साथ तथाकथित लाल क्रांति लाने के नाम पर यह अमानवीय प्रयोग उस माओवादी नेतृत्व को बड़ा ही सहज लगता है जो अमूमन स्वयं को इससे अलग रखता है. सामाजिक समानता की दुहाई देने वाले इन वामपंथी आतंकियों के शीर्ष नेतृत्व ने लाल गलियारे के अंतर्गत सदैव ही तेलुगू वर्चस्व को बढ़ावा दिया है.
तथाकथित क्रांति का जबरन हिस्सा बनाए गए छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, बंगाल और महाराष्ट्र के जनजातीय समूहों के लोगों को संगठन स्तर पर हमेशा ही भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
झारखंड से लेकर छत्तीसगढ़ और उड़ीसा तक आत्मसमर्पण करने वाले न जाने कितने ही माओवादी इस संदर्भ में मुखर होकर माओवादी शीर्ष नेतृत्व की आलोचना कर चुके हैं. इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, अगर यह कहा जाए कि अपने विदेशी आकाओं से मिलने वाली वित्तीय सहायता और हथियारों के दम पर जबरन स्थानीय जनजातीय समूहों के छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में बंदूकें थमा कर इनके शहरी पैरोकार जिस लाल क्रांति का सपना वर्षों से देख रहे हैं, वह कभी भी साकार होने नहीं जा रहा है.
रिपोर्ट्स के अनुसार दंतेवाड़ा के एसपी अभिषेक पल्लव का कहना है कि – “सर्वेक्षण के परिणामों का उपयोग दंतेवाड़ा जिले के ‘भर्ती हॉटस्पॉट’ गांवों में स्थानीय लोगों के बीच जागरूकता फैलाने के लिए किया जाएगा ताकि वे माओवादियों में शामिल न हों. पुलिस ग्रामीणों को बताएगी कि माओवादी क्रांतिकारी नहीं हैं.