प्रशांत पोळ
दानवों के निर्दलन तथा लंकाधिपति रावण की टोह लेते हुए श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण का दंडकारण्य में प्रवास चल रहा है.
ऐसे ही प्रवास करते – करते श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण के साथ महर्षि अगस्त्य के आश्रम में पहुंचे. अगस्त्य ऋषि, मुनि वशिष्ठ के ज्येष्ठ भ्राता हैं. राजा दशरथ इन्हें अपना राजगुरू मानते हैं. दक्षिण आर्यावर्त में निवास करते हुए, ज्ञान – साधना, जप – तप, अनुष्ठान करने वाले ऋषि मुनियों को बल प्रदान करने के लिये, अगस्त्य ऋषि, काशी से दक्षिण आर्यावर्त के दंडकारण्य में आकर बसे हैं.
अगस्त्य ऋषि को श्रीराम – जानकी – लक्ष्मण के वनवास की जानकारी है. वो तो पिछले कुछ वर्षों से श्रीराम – जानकी – लक्ष्मण के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं. इसलिये, जैसे ही उनको सूचना मिलती है कि श्री राम अपनी पत्नी और भ्राता के साथ आश्रम में आये हैं, तो उन्हें अतीव आनंद होता है. वे इन तीनों का आदर, सत्कार, सम्मान करते हैं.
श्री राम जब उनसे पूछते हैं कि ‘अब उनका निवास कहां होना चाहिये? क्या वे इसी आश्रम में रहें, या कहीं और निवास करना उचित रहेगा?’
इस पर महर्षि अगस्त्य कहते हैं, “मैं जानता हूं, तुम्हारा ध्येय दानवों का विनाश करना है. तुमने ऐसी प्रतिज्ञा भी ली है. इसलिये यह स्थान उपयुक्त नहीं होगा. यहां दानवों का, राक्षसों का आना जाना, इन दिनों नहीं होता है.
तपसश्च प्रभावेण स्नेहाद्दशरथस्य च।
हृदयस्थश्च ते छन्दो विज्ञातस्तपसा मया ॥१८॥
इहावासं प्रतिज्ञाय मया सह तपोवने।
अतश्च त्वामहं ब्रूमि गच्छ पञ्चवटीमिति ॥१९॥ (अरण्यकांड / तेरहवां सर्ग)
अगस्त्य ऋषि श्रीराम को, पंचवटी जाकर, वहां रहने का परामर्श देते हैं. उनका कहना है कि ‘पंचवटी के अरण्य में प्रकृति की शोभा अनुपम है तथा जनक नंदिनी सीता को वह स्थान अवश्य पसंद आएगा.’
मुनिवर ने दिये हुए संकेत के अनुसार श्रीराम, भ्राता लक्ष्मण और जानकी के साथ पंचवटी जाने की योजना बनाते हैं. उनके प्रस्थान से पहले, अगस्त्य ऋषि श्रीराम को अनेक अस्त्र – शस्त्र की बारीकीयों का ज्ञान देते हैं. साथ ही एक अमूल्य धनुष देते हैं, जो स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने बनाया है.
अगस्त्य ऋषि कहते हैं, “श्रीराम, आप यह धनुष, दोनों तरकश, ये बाण तथा ये तलवार ग्रहण कीजिए. इन शस्त्रों से दानवों पर विजय प्राप्त कीजिए. ठीक उसी तरह, जैसे वज्रधारी इंद्र, वज्र धारण करते हैं.”
अनेन धनुषा राम हत्वा संख्ये महासुरान्।
आजहार श्रियं दीप्तां पुरा विष्णुर्दिवौकसाम् ॥३५॥
तद्धनुस्तौ च तूणीरौ शरं खङ्गं च मानद।
जयाय प्रतिगृह्णीष्व वज्रं वज्रधरो यथा ॥३६॥ (अरण्य कांड / बारहवां सर्ग)
श्रीराम, जानकी और भ्राता लक्ष्मण का पंचवटी के लिए प्रवास प्रारंभ होता है.
मार्ग में उन्हें एक विशालकाय पक्षीराज जटायू मिलता है. उसे देखकर श्रीराम – लक्ष्मण पूछते हैं, “आप कौन?” वह पक्षी अत्यंत मधुर और कोमल स्वर में कहता है, “बेटा, मुझे अपना मित्र समझो. मैं जटायू. आपके पिता का मित्र.”
अपने पिता के मित्र से मिलने पर श्रीराम – लक्ष्मण आनंदित होते हैं. जब जटायू को जानकारी मिलती है कि ये तीनों पंचवटी में निवास करने वाले हैं, तो जटायू कहता है कि वह पूरी शक्ति से देवी सीता की रक्षा करेगा, जब श्रीराम – लक्ष्मण वन में जाएंगे.
चलते – चलते तीनों पंचवटी पहुंचते हैं. यह अत्यंत रमणीय स्थान है. प्रकृति ने अपनी अनुपम शोभा चहुंओर बिखेरी है. ऐसे निसर्गरम्य स्थान पर, श्रीराम की आज्ञा से, लक्ष्मण पर्णशाला बनाते हैं. यही पर्णशाला अब इन तीनों का निवास है.
श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण ने शरद ऋतु के प्रारंभ में, पंचवटी की इस पर्णशाला में निवास करना प्रारंभ किया था. अब हेमंत ऋतु चल रहा है.
श्रीराम इन दिनों विचार कर रहे हैं कि आतंक की जड़, दानवी शक्ति के सूत्रधार, लंकाधिपति रावण से उनका सामना कैसे होगा? उनके चौदह वर्षों के वनवास का कालखंड भी समाप्त होने को आ रहा है. वनवास का अंतिम वर्ष प्रारंभ हो रहा है. आर्यावर्त से असुरी शक्तियों के निर्दलन के लिए, रावण का समाप्त होना आवश्यक है.
और श्रीराम के मनोरथ पूर्ण होने का संयोग सामने आता है…!
ऐसे ही एक दिन, इस रमणीय स्थान पर, अपनी पर्णकुटी में श्रीराम, भ्राता लक्ष्मण के साथ बातचीत कर रहे हैं. तभी एक रमणीय युवती, श्रीराम के सामने आकर खड़ी होती है. वह श्रीराम से पूछती है, “आप लोग कौन हो? और दानवों के इस क्षेत्र में रहने के लिए क्यों आये हो?”
श्रीराम सहज रूप से अपना, लक्ष्मण का और जानकी का परिचय देते हैं.
यह सुनकर वह युवती श्रीराम से कहती है, “मैं महापराक्रमी, राजाधिराज रावण की बहन शूर्पणखा हूँ. मैं आप पर मोहित हो गई हूं. मुझे आपसे विवाह करना है…”
श्रीराम शूर्पणखा की बातें सुनकर चौंक जाते हैं. आनंदित भी होते हैं. ‘रावण की बहन’ यह शब्द उनका ध्यान खींच लेते हैं. तेरह वर्ष की प्रतीक्षा फलिभूत होते हुए सामने दिखती है.
श्रीराम शूर्पणखा से कहते हैं, “देवी, मैं तो विवाहित हूं. किंतु मेरा भ्राता लक्ष्मण अभी अविवाहित है. उसे पूछो. वह तुमसे विवाह कर सकता है.”
इधर लक्ष्मण, श्रीराम का संकेत समझ जाते है. वे शूर्पणखा को उलझा देते हैं. वह फिर श्रीराम के पास आती है. काम मोहित शूर्पणखा, श्रीराम को, विवाह करने के लिए धमकी देने लगती है. सीता पर आक्रमण करती है. श्रीराम तुरंत निर्णय लेते हैं. लक्ष्मण को कहते है, “इस राक्षसी के नाक और कान काट डालो”. स्त्रियों को आदर से देखने वाले, मातृशक्ति का अत्याधिक सम्मान करने वाले श्रीराम, बड़े कठोर होकर यह निर्णय ले रहे हैं. वनवास के अंतिम दिनों में, रावण को ललकारने का यही एक रास्ता उन्हें दिख रहा है.
लक्ष्मण द्वारा नाक – कान काटने के पश्चात शूर्पणखा, अपने मूल राक्षसी स्वरूप में आ गई और चिंघाड़ते हुए, दहाड़ते हुए, जनस्थान की और भागती गई.
जनस्थान..
आर्यावर्त में दानवराज रावण का सबसे बड़ा केंद्र. खर – दूषण जैसे दानव, यहां के अधिपति हैं. यह दानवों का ही क्षेत्र है. शूर्पणखा, खर – दूषण की बहन है.
भयंकर चीखते- चिल्लाते, शूर्पणखा, जनस्थान में खर के पास गई और जबरदस्त दहाड़ कर जमीन पर गिर गई. इसके गिरते ही, मानो जनस्थान में भूचाल आया. खर अत्यंत क्रोधित हुआ. अपनी बहन की यह हालत देखकर वह दुखी हुआ और भयंकर गुस्से से कांपने लगा.
जब उसे पता चला कि अयोध्या के दो युवराज, एक स्त्री के साथ पंचवटी में आकर रुके हैं और उन्होंने ही शूर्पणखा को ऐसा विद्रूप किया है, तो उसने तत्काल अपने सबसे वीरवान और बलशाली, चौदह प्रमुख राक्षस, उन दो युवराजों को समाप्त करने के लिए भेजे.
श्रीराम ने अपने तीरों की वर्षा से उन सबको समाप्त कर दिया. शूर्पणखा से उन चौदह प्रमुख राक्षसों के मारे जाने का समाचार सूनकर, खर, क्रोध से लाल-पिला हुआ. अपने चौदह सहस्त्र राक्षसों के साथ, खर और दूषण, पंचवटी की ओर, श्रीराम – लक्ष्मण को समाप्त करने निकल पड़े.
गर्जन-तर्जन के साथ, राक्षसों की सेना को आते देख, श्रीराम ने लक्ष्मण को, सीता को लेकर, पर्वत की उस गुफा में जाने के लिए कहा, जो वृक्ष से आच्छादित हैं. भयंकर युद्ध की आशंका से, विदेहकुमारी सीता को सुरक्षित रखने के लिए, लक्ष्मण धनुष बाण लेकर, सीता के साथ, पर्वत की गुफा में चले गए.
इधर, भयंकर दिखने वाले असुरों का आक्रमण होते ही श्रीराम ने तीरों की वर्षा कर दी. श्रीराम के तीर चलाने की गति इतनी जबरदस्त थी कि बाणों से पीड़ित असुर, यह देख ही नहीं पा रहे थे कि श्रीराम कब भयंकर बाण हाथ में लेते हैं और प्रत्यंचा पर लगाकर कब उन्हें छोड़ते है. वे तो केवल धनुष को खींचते देख रहे थे.
नाददानं शरान्घोरान्नमुञ्चन्तं शिलीमुखान्।
विकर्षमाणं पश्यन्ति राक्षसास्ते शरार्दिताः ॥३९॥ (अरण्यकांड / पच्चीसवां सर्ग)
अकेले श्रीराम ने, वायुगति से चलाए अपने सहस्त्रों बाणों से, दूषण सहित चौदह सहस्त्र राक्षसों का वध किया. यह अद्भुत था. आज तक असुरों को इस प्रकार का प्रतिकार कभी नहीं सहना पड़ा था.
असुरों की उस समूची सेना में केवल महारथी खर और सेनापती त्रिशिरा, यही दो राक्षस बचे. त्रिशिरा ने खर से कहा, “मुझे आज्ञा दीजिये, मैं राम को युद्ध में मार गिराता हूं. खर की अनुमति से वह श्रीराम से लड़ने आया. किंतु कुछ ही समय मे श्रीराम ने त्रिशिरा को भी मार गिराया.
अब बचा केवल एक असुर – खर.
खर ने अपनी पूरी शक्ति का उपयोग करते हुए अपने सभी अस्त्र – शस्त्रों के साथ, श्रीराम पर आक्रमण किया. कुछ देर घनघोर युद्ध हुआ. परंतु धनुर्धारी श्रीराम ने खर को भी मार गिराया.
जनस्थान का अंतिम दानव, खर भी मृत्युलोक में चला गया. पंचवटी के आसपास रहने वाले सभी ऋषि – मुनि, तपस्वी, नागरिक, श्रीराम द्वारा इन दहशतवादी असुरों को नष्ट करने से अत्यधिक प्रसन्न हुए. उन्होंने श्रीराम का जयघोष किया.
जनस्थान में एक राक्षस था, जो खर – दूषण के साथ, श्रीराम से युद्ध करने नहीं गया था. अकंपन नाम के इस असुर ने, खर – दूषण के मृत्यु का समाचार मिलते ही, लंका के लिए दौड़ लगा दी. रावण को जनस्थान की दुर्दशा की परिस्थिति बताई. रावण अत्यंत क्रोधित हुआ.
वह मारीच के पास गया. राम से युद्ध करने को, रावण ने मारीच से सहायता मांगी. किंतु मारीच ने रावण की मांग पूर्णतः ठुकरा दी.
रावण ने पुनश्च कहा, “मारीच, जनस्थान में कल्पना से परे, मेरी पूरी सेना मारी गई. राम नाम के किसी राजकुमार ने, मेरे राज्य की सीमा के रक्षक, खर, दूषण और उनकी सारी सेना को मार डाला है. जनस्थान, जो अभी तक अजेय समझा जाता था, वहां के सारे असुरों को मार गिराया है.”
आरक्षो मे हतस्तात रामेणाक्लिष्टकर्मणा।
जनस्थानमवध्य तत्सर्वं युधि निपातितम् ॥४०॥ (अरण्यकांड/ इकतीसवां सर्ग)
किंतु मारीच ने उसे समझाया. ‘श्रीराम यह मनुष्य रूपी सिंह है. श्रीराम से उलझने के बजाय, लंका वापस जाना ही रावण के हित में है’ यह भी बताया.
मारीच के कहने पर, मन मसोस कर, रावण लंका में लौटा और अपने सुंदर तथा विलासी महल में चला गया.
किंतु खर – दूषण- त्रिशिरा की मृत्यु, यह शूर्पणखा के लिए गहरा आघात था. वह बौखलाकर सीधे अपने भ्राता रावण की सभा में पहुंच गई. दहाड़े मारकर रोते हुए उसने रावण को राम – लक्ष्मण द्वारा उसे विद्रूप करने का, तथा खर – दूषण के मृत्यु का समाचार दिया. ‘जनस्थान की सारी राक्षस सेना को समाप्त करने के बावजुद भी तुम चुपचाप कैसे हो?’ ऐसा प्रश्न रोते-रोते किया.
यह सुनकर रावण बौखला गया. ऊपर से शूर्पणखा ने रावण को उकसाया की ‘राम – लक्ष्मण के साथ एक अत्यंत सौंदर्यवती युवती है, जो मानो तुम्हारे लिए ही बनी है.’
क्रोध से आग बबूला हुए रावण के लिए, वह युवती माने एक जबरदस्त आकर्षण था.
वह पुनश्च मारीच के पास गया. रावण ने मारीच से कहा, “जनस्थान में, पंचवटी परिसर में, दंडकारण्य में, सभी असुर मेरी आज्ञा से वहां घर बनाकर रहते थे और उस विशाल वन में, धर्माचरण करने वाले मुनियों को सताते थे.
वसत्नि मन्नियोगेन नित्यवासं च राक्षसाः।
बाधमाना महारण्ये मुनीन्वै धर्मचारिणः ॥४॥ (अरण्यकांड / छत्तीसवां सर्ग)
मारीच ने रावण को खूब समझाया. ‘विश्वमित्र ऋषि के अनुष्ठान को भंग करने, रावण के कहने पर जब वह सिद्धाश्रम पर हमला करने गया था, तब श्रीराम के एक बाण से, वह सौ योजन दूर जाकर गिरा था’, यह भी बताया.
पराई स्त्री का संसर्ग कितना घातक है, और यह विचार याने कितना बड़ा पाप है, यह भी समझाने का प्रयास किया. किंतु सीता की अभिलाषा से पागल, रावण, कुछ भी सुनने की परिस्थिति में नहीं था. अंत में जाकर, रावण की धमकी के आगे विवश होकर मारीच, सीता हरण करने के लिए स्वर्ण मृग का स्वरूप लेने तैयार हो जाता है.
और स्वर्ण मृग के रूप में, मारीच, श्रीराम की पर्णकुटी के सामने से दौड़ता हुआ निकलता है..!
(क्रमशः)