पटना.
छपरा जिला में मलखाचक गंगा किनारे बसा एक गांव है. कभी इस गांव का नाम सुनकर अंग्रेजों के होश उड़ जाते थे. अंग्रेजी फौज यहां आने के नाम से कतराती थी. अंग्रेज समझ नहीं पाते थे कि यह बिहार के अहिंसात्मक आंदोलन का केंद्र है या फिर क्रांतिकारियों का केंद्र. खादी के उत्पादन में गांव को लगातार 7 वर्ष तक देश में प्रथम पुरस्कार मिला. महात्मा गांधी स्वयं इस गांव में तीन बार आए थे. यहां गंगा नदी के बलुआही कछार पर भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद पिस्तौल चलाने का अभ्यास करते थे. वर्तमान बिहार के पहले सपूत रामदेनी सिंह थे, जिन्हें अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ाया था. समय के साथ इतिहास के सुनहरे पन्नों को संजोए यह गांव विस्मृत हो गया था.
27 नवंबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत जी गांव में आए. यहां उन्होंने बलिदानी श्रीनारायण सिंह की प्रतिमा का अनावरण किया. साथ ही बिहार के 350 स्वतंत्रता सेनानियों के परिजनों को सम्मानित किया. स्वतंत्रता आंदोलन पर वरिष्ठ पत्रकार रवींद्र कुमार की पुस्तक ‘स्वतंत्रता आंदोलन की बिखरी कड़ियां’ का विमोचन भी किया. उन्होंने मलखाचक पर बनी 7 मिनट की डॉक्यूमेंट्री भी देखी.
यह गांव इतिहास के कई पन्नों को अपने में समेटे हुए है. आल्हा-ऊदल के समकालीन मलखा कुंवर राजस्थान से चलकर आरा होते हुए दानापुर पहुंचे थे. फिर तैरकर गंगा जी को पार किया और इस गांव में पहुंचे. उस समय यह क्षेत्र कसमर के नाम से जाना जाता था. मलखा कुंवर ने कसमर के नवाब को लड़ाई में परास्त कर इस क्षेत्र पर अपना झंडा गाड़ा. 8 गांवों में अपने 8 भाइयों को बसाया और स्वयं जिस गांव में बसे उसी का नाम मलखाचक हुआ.
एक वीर बांकुरे की शौर्य गाथा से सिंचित यह गांव शौर्य परंपरा का साक्षी है. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में वीर कुंवर सिंह के विश्वसनीय सलाहकार रहे राम गोविंद सिंह उर्फ चचवा इसी गांव के थे. 1856 में सोनपुर मेले में ही वीर कुंवर सिंह ने स्वतंत्रता संग्राम की योजना बनाई थी और यहां के राम गोविंद सिंह, जालिम सिंह, जुझार सिंह और झुम्मन तुरहा ने स्वयं को आंदोलन में झोंक दिया था. अंग्रेजों की कुटिलता के खिलाफ यहां के लोगों ने लगातार लड़ाई लड़ी.
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में यह अनूठा ग्राम होगा. जहां महात्मा गांधी के अहिंसात्मक एवं रचनात्मक आंदोलन तथा क्रांतिकारियों की गतिविधियां एक साथ चलती थीं. महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में रामानंद सिंह ने भी सहयोग किया था. वे दारोगा थे. अपना इस्तीफा देकर आजादी के संघर्ष में स्वयं को न्योछावर कर दिया. ऐसा करने वाले वे देश के पहले दारोगा थे. वे स्वतंत्रता के लिए सतत सक्रिय रहे, लोगों को जागरूक करते रहे. सक्रियता के कारण कई बार जेल भी गए. इन्हें अंग्रेजों ने चरम यातनाएं दीं, लेकिन दृढ़ संकल्प के धनी रामानंद सिंह न झुके, न टूटे. इनकी मृत्यु के समय शरीर पर घाव के 180 निशान थे. सविनय अवज्ञा आंदोलन हो, नमक आंदोलन या फिर भारत छोड़ो आंदोलन- इस गांव के सपूतों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. यहां बड़े पैमाने पर नमक का उत्पादन होता था. 26 जनवरी, 1930 को झंडा फहराने के कारण कई लोग गिरफ्तार हुए थे. ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन में इस गांव के श्रीनारायण सिंह एवं हरिनंदन प्रसाद ने अपना बलिदान दिया था. 20 अगस्त, 1942 को मलखाचक स्थित राम विनोद सिंह एवं रामानंद सिंह के मकान एवं पुस्तकालय को अंग्रेजों ने जला दिया था.
जब गांधी जी का असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो इस गांव के बसंत लाल साह ने अपनी दुकान से हजारों रूपये के विदेशी कपड़े निकालकर उसकी होली जलाई थी. इन पर मुकदमा चला और जेल गए. 1930 के नमक सत्याग्रह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने में 1 वर्ष के सश्रम कारावास की सजा मिली. जेल जाना, छूटना और फिर सक्रिय होना, इनकी नियति बन गई थी. स्वतंत्रता आंदोलन में ये इस क्षेत्र के भामाशाह थे.
महात्मा गांधी और कांग्रेस के सभी बड़े नेता मलखाचक को पवित्र कर चुके हैं. महात्मा गांधी 1924, 1925 एवं 1936 में यहां आए. इस गांव में जब प्रख्यात लेखक मनोरंजन प्रसाद सिंह ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘फिरंगिआ’ सुनाई तो महात्मा गांधी द्रवित हो उठे. उन्होंने मनोरंजन बाबू को गले लगा लिया. 1924 में जब पहली बार महात्मा गांधी इस गांव में आए तो डॉ. सत्यनारायण ने उन्हें फूल की माला पहनाई. बापू ने उलाहना देते हुए कहा कि उन्हें फूल की नहीं खादी की माला पहननी है. 1925 में उन्हें खादी की माला पहनाई गई. यहां चल रहे रचनात्मक आंदोलन से वे अत्यंत प्रभावित थे. उन्होंने इसका उल्लेख ‘यंग इंडिया’ में भी किया. 1921 से 1926 तक खादी के लिए मलखाचक खादी ग्रामोद्योग को पहला पुरस्कार मिलता रहा. यहां की महिलाएं 7000 चरखा एवं 500 करघा पर काम करती थीं. काम के बदले सबको उचित पारिश्रमिक मिलता था. यह केंद्र मलखाचक के अतिरिक्त मधुबनी, कपसिया, सकरी, मधेपुर और पुपरी स्थित सूत कताई एवं खद्दर उत्पादन केंद्रों के संचालन में अपनी सेवाएं देता था.
मलखाचक स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांतिकारी गतिविधियों का भी एक प्रमुख केंद्र था. 1918 में राम विनोद सिंह ने अत्यंत साहस के साथ गांधी जी को क्रांतिकारी दल में सम्मिलित होने का आग्रह किया था. गांव के दक्षिण गंगा नदी के बलुआही कछार पर देश के कई प्रमुख क्रांतिकारी अपना निशाना पक्का करते थे. इस केंद्र पर बटुकेश्वर दत्त, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह जैसे कई क्रांति नायक आ चुके हैं.
खुदीराम बोस के बाद मुजफ्फरपुर कारा में जिस प्रथम बिहारी क्रांतिकारी को अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया, वे इसी मलखाचक गांव के रामदेनी सिंह थे. रामदेनी सिंह क्रांतिकारी संस्था ‘आजाद दस्ता’ के संचालक थे. राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को गद्दार फणींद्र घोष की गवाही के कारण फांसी की सजा हुई. क्रांतिकारियों ने कहा, “बिहार यह कलंक धोयेगा या ढोएगा.” बिहार के सपूतों ने फणींद्र घोष की हत्या की योजना बनाई. गांधी चबूतरे पर बैकुंठ शुक्ल और चंद्रमा सिंह के नाम की पर्ची निकली और इन दोनों ने फणींद्र घोष की हत्या कर बिहार के कलंक को धो दिया. इस घटना के बाद बैकुंठ शुक्ल काफी दिनों तक मलखाचक में छिपे रहे. मलखाचक से अपने घर वैशाली जाने के क्रम में सोनपुर के गंडक पुल पर उनकी गिरफ्तारी हुई थी.
क्रूर सांडर्स की हत्या के बाद क्रांतिकारियों के समक्ष दो प्रमुख समस्याएं थीं – एक अभियुक्तों को छिपाना और दूसरा अभियुक्तों की पैरवी के लिए न्यायालय का खर्च जुटाना. खर्च जुटाने के लिए बिहार में कई घटनाएं की गईं. इसी के तहत चंपारण जिले में मौलनिया डकैती और ढेलुवाहा डकैती हुई. इसी प्रकार दरभंगा के झझरा और वाजितपुर (वर्तमान का विद्यापति नगर) में भी डकैतियां डाली गईं. इन घटनाओं को लेकर चंपारण और दरभंगा में कइयों पर मुकदमे हुए. इसके अभियुक्तों को छुड़ाने के लिए सारण के फुलवरिया मठ और हाजीपुर स्टेशन में मनी एक्शन हुआ. हाजीपुर स्टेशन डकैती के कारण ही रामदेनी सिंह को फांसी हुई थी. इसके अलावा दर्जनों राजनैतिक मनी एक्शन बिहार में हुए. इन सभी मनी एक्शन की योजना मलखाचक में ही बनी और यहीं से कार्य का निष्पादन किया जाता था. सीआइडी के सब इंस्पेक्टर वेदानंद झा की हत्या मधुबनी में हुई. इस हत्या की योजना सूरज नारायण सिंह ने मलखाचक में ही बनाई थी.
मलखाचक में सशक्त क्रांति की भी तैयारी हुई थी. यहां हथियार बनते थे. प्रख्यात कवि महेन्द्र मिसिर इस कार्य के लिए धन प्रदान करते थे और हथियार बनाने का काम दिघवारा के रामपुकार मिस्त्री करते थे.
गांव की मातृशक्ति ने भी स्वतंत्रता की बलि वेदी पर स्वयं को न्योछावर कर दिया था. 14 वर्ष की शारदा देवी और 11 वर्ष की सरस्वती देवी के नेतृत्व में ही दिघवारा थाने पर तिरंगा झंडा फहराया गया था. सिर्फ थाने पर झंडा फहराने के जुर्म में ही उन्हें क्रमशः 14 और 11 वर्ष की लंबी जेल की सजा सुनाई गई थी.