भारत में सब ओर विविधता दिखाई देती है. शहर से लेकर गाँव, पर्वत, वनों तक में लोग निवास करते हैं. मध्य प्रदेश और गुजरात की सीमा पर बड़ी संख्या में भील जनजाति के लोग बसे हैं. ब्रिटिशर्स के साथ ही उक्त क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों का आगमन हुआ जो सिद्धांत में सेवा और व्यवहार में धर्मांतरण में लिप्त रहे. इन मिशनरियों ने परोक्ष रूप से भील संस्कृति को नष्ट करने और सनातन धर्म की मूल शाखा से काटने के अनेकों प्रयास किए. जब देश में स्वाधीनता संग्राम चल रहा था तो युवा मामा बालेश्वर के सामने दो विकल्प थे. एक तो वह भी प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन करते या दूसरा, षड्यंत्रों के अंतर्गत धर्मांतरित किए जा रहे जनजातीय समुदाय के ‘स्व’ का जागरण और संरक्षण करें.
मामा बालेश्वर ने दूसरा मार्ग अपनाते हुए मिशनरियों के षड्यंत्रों के प्रति सजग हो कर जनजातीय समुदाय के प्रति संवेदनशीलता के चलते 1937 में झाबुआ जिले में बामनिया आश्रम की नींव रखी.और लाखों जनजातीय बन्धु-भगिनियों के जीवन में कल्याणकारी कार्य किए, उन्हें मिशनरियों के कुटिल षड्यंत्रों से भी बचाया और उनकी संस्कृति, धर्म ओर जीवन मूल्यों के स्व का जागरण व संरक्षण किया.
हालांकि मामाजी का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ, किंतु जनजातीय समाज के प्रति संवेदनशीलता उन्हें मध्यप्रदेश ले आयी और फिर जीवन भर भील जनजाति के बीच काम करते रहे. 1937 में उन्होंने झाबुआ जिले में ‘बामनिया आश्रम’ की नींव रखी तथा भीलों में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने में जुट गए. उनके कार्यों का व्यापक प्रभाव होने लगा, शीघ्र ही भील समुदाय में उनकी स्वीकार्यता बढ़ती गई. जिससे भीलों का शोषण करने वाले कुछ दुष्ट जमींदार, ब्याजखोर महाजन, धर्मांतरण में लगे मिशनरी उनसे क्षुब्ध हो गए. एक षड्यंत्र के तहत मामा बालेश्वर को गिफ्तार कर जेल भेज दिया गया और अनेक प्रकार से प्रताड़नाएं दी गई. हालांकि, इन प्रताड़नाओं से विचलित होने की बजाय वह अपने संकल्प के प्रति दृढ़ हो गए.
सात्विक प्रयासों को शीघ्र मिला जनसमर्थन
कुछ समय बाद एक सेठ ने उनसे प्रभावित होकर ‘थान्दला’ में अपने मकान की ऊपरी मंजिल बिना किराये के प्रदान की. वह शिक्षा का महत्व जानते थे, अतः उन्होंने यहाँ छात्रावास बना कर जनजाति समाज के विद्यार्थियों के शैक्षणिक विकास की योजना तैयार की. धीरे-धीरे स्थानीय लोगों में उनके प्रति विश्वास बढ़ने लगा. अन्य स्थानीय सक्षम व स्थापित लोग भी मामाजी से प्रभावित हो कर कार्य में हाथ बटाने लगे. 1937 के भीषण अकाल के बाद ईसाई मिशनरी ने राहत कार्य के नाम पर बड़ी संख्या में जनजातीय समुदाय के धर्मान्तरण की योजना बनाई थी, उसमें सफल भी होने लगे.
यह देखकर मामाजी ने पुरी के शंकराचार्य की लिखित सहमति से भीलों को क्रॉस के बदले जनेऊ दिलवाने का अभियान चलाया. कुछ रूढ़िवादी संस्थाओं ने प्रारंभ में इसका विरोध किया. पर मामाजी उस क्षेत्र की वास्तविक स्थिति को अच्छी तरह जानते थे, अतः वे इस कार्य में लगे रहे. निषादराज के समय से भीलों के आराध्य रहे भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर बनवाने हेतु मामाजी ने सेठ जुगल किशोर बिड़ला से आग्रह किया तो उन्होंने सहज ही बामनिया स्टेशन के पास पहाड़ी पर एक भव्य राम मन्दिर बनवाया. आज भी बिड़ला परिवार उक्त मंदिर के रखरखाव की व्यवस्था करता है. उनके कार्यों से पूरे क्षेत्र में जनजातियों के धर्मान्तरण पर व्यापक रोक लगी और जनजातीय संस्कृति का संवर्धन हो सका.
मामा जी का जन्म 05 सितम्बर, 1906 को ग्राम नेवाड़ी (जिला इटावा, उ.प्र.) के एक संपन्न परिवार में हुआ था. उनका देहान्त 26 दिसम्बर, 1998 को आश्रम में ही हुआ. मामा जी के देहान्त के बाद आश्रम में ही उनकी समाधि बनाकर प्रतिमा स्थापित की गयी. मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के जनजाति बंधुओं के घरों में आज भी मामा जी की तस्वीर है और वे उन्हें भगवान के रूप में पूजते हैं. हर नया कार्य करने के पूर्व मामा जी की समाधी स्थल पर नारियल फोड़ते हैं. नया अनाज पकने के बाद अन्न ग्रहण करने से पहले मामा जी की समाधि पर चढ़ाते हैं, फिर नया अनाज ग्रहण करते है. राजस्थान में आज भी मामाजी के नाम से विद्यालय और महाविद्यालय है.
मामाजी के बामनिया आश्रम की स्वीकार्यता
प्रतिवर्ष तीन बार सम्मेलन होता है, जहाँ हजारों लोग एकत्र होकर मामा जी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं. आज भी जनजातीय समुदाय के लोग साल की पहली फसल का हिस्सा आश्रम को भेंट करते हैं. बामनिया आश्रम से पढ़े अनेक छात्र आज बड़े-बड़े प्रशासनिक पदों पर पहुंच गए हैं. आक्रांता विधर्मी अकबर के विरुद्ध महाराणा प्रताप के नेतृत्व में धर्मयुद्ध लड़ने वाले वीर सैनिकों के भील वशंजों के बीच बालेश्वर दयाल उपाख्य मामाजी की प्रतिष्ठा देवताओं के समान है. स्थानीय भील समुदाय के मध्य सेवा, समर्पण एवं त्यागमय जीवन से श्री बालेश्वर दयाल इतने लोकप्रिय हो गए कि पूरा समाज उन्हें देवता के समान सम्मान देता है. उनकी सादगी, सदाचार, सहज जीवनचर्या के कारण भील समाज से इतने एकाकार हो गए कि क्षेत्र के मध्य लोग उन्हें प्यार से “मामा” पुकारने लगे.
लेखक – निलेश कटारा, माध्यमिक शिक्षक जनजाति कार्य विभाग झाबुआ