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जलियांवाला बाग जैसा ही था मानगढ़ हत्याकाण्ड, इतिहास में नहीं पा सका सही जगह

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उदयपुर. भारतीय इतिहास संकलन समिति के अखिल भारतीय संगठन मंत्री बालमुकुंद पांडे ने कहा कि आजादी के आंदोलन में लाखों माताओं की गोद सूनी हुई, लाखों बहनों से भाई की कलाई छिनी, ऐसे कई बलिदानियों को इतिहास के पन्नों में जगह ही नहीं मिल पाई. आजादी के 75वें साल पर मनाए जा रहे अमृत महोत्सव में गांव-गांव के ऐसे बलिदानियों के परिवारों को ढूंढकर उनका अभिनंदन किया जाए ताकि उन परिवारों की और हमारी पीढ़ियां इस बात पर गर्व कर सकें कि उनके पुरखों ने देश के स्वाधीनता आंदोलन में योगदान किया था.

वे मंगलवार को उदयपुर में ‘मेवाड़-वागड़ में आजादी की गूंज (1818-1947)’ विषयक संगोष्ठी में संबोधित कर रहे थे. जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ, प्रताप गौरव केन्द्र और इतिहास संकलन समिति की उदयपुर इकाई के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित एक दिवसीय संगोष्ठी में मेवाड़-वागड़ के स्वाधीनता सेनानियों के योगदान पर चर्चा हुई, साथ ही दिवंगत सेनानियों का स्मरण करते हुए परिवारजनों का अभिनंदन किया गया.

मुख्य अतिथि बालमुकुंद पांडे ने कहा कि भारतवर्ष कभी पराधीन नहीं रहा, भारत का हर नागरिक हर वक्त संघर्षरत रहा, उसने कभी मन से गुलामी को स्वीकार ही नहीं किया. चाहे वनवासी हों, गिरिवासी हों, किसान हों, दलित हों, यहां तक कि संन्यासी हों, सभी ने अपने-अपने स्तर पर ‘स्व’ अर्थात स्वाभिमान के जागरण का अभियान जारी रखा. तभी हमारी संस्कृति भी संरक्षित रह सकी और आगे की पीढ़ियों तक संघर्ष की यह ऊर्जा स्थानांतरित होती रही. कई व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अपनी किशोरावस्था में सर्वस्व बलिदान कर दिया. यह संघर्ष के संस्कारों का ही परिणाम था कि स्वाभिमान के बीज लगातार पल्लवित रहे.

इतिहास लेखन में एकतरफा विचार पर कहा कि स्वाभिमान के बजाय अपमान की घटनाओं को लिखा गया. उन्होंने वास्को-डी-गामा का उदाहरण देते हुए कहा कि पुस्तकों में यह पढ़ाया जाता रहा कि उसने भारत को खोजा, इसका मतलब क्या भारत पहले नहीं था. जबकि, हकीकत यह है कि वास्को-डी-गामा खुद लिखता है कि वह एक गुजरात के व्यापारी के साथ पहली बार भारत पहुंचा. अंग्रेज भी व्यापार की नीति से नहीं, बल्कि अपनी कॉलोनी स्थापित करने और ईसाईयत के प्रचार के उद्देश्य से आए थे. लेकिन यहां सस्ते श्रम, ईमानदारी, समृद्धता देखकर उन्होंने अपने उद्देश्य को बदल लिया.

1857 के आंदोलन को आध्यात्मिक आंदोलन की संज्ञा देते हुए कहा कि यह ‘स्व’ के जागरण का आंदोलन था, उस आंदोलन में साढ़े तीन लाख लोग बलिदान हुए. इसके बाद 1911 तक का आंदोलन ‘स्व’ के जागरण का आंदोलन बना रहा, उसके बाद इसने राजनीतिक रूप लिया. इतिहासकारों ने भी न्याय नहीं किया और स्वाधीनता के कई परवानों को पन्नों पर नहीं उकेरा.

कार्यक्रम में दिवंगत स्वाधीनता सेनानियों गोविन्द गुरु, मोतीलाल तेजावत, रघुनाथ पालीवाल, तख्तसिंह भटनागर, सुजानमल जैन, मास्टर किशनलाल शर्मा, रामचंद्र बागोरा व शिवनारायण शर्मा का स्मरण करते हुए उनके परिवारजनों को अभिनंदन पत्र प्रदान किया गया.

इससे पूर्व डॉ. कुलशेखर व्यास के मंगलाचरण से शुरू हुए उद्घाटन सत्र में इतिहास संकलन समिति के प्रो. जीवनसिंह खरकवाल ने स्वागत किया. क्षेत्र संगठन मंत्री छगनलाल बोहरा ने संगोष्ठी की उपादेयता और उद्देश्य की जानकारी दी. विशिष्ट अतिथि भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के निदेशक ओम उपाध्याय ने कहा कि सिर्फ कार्यक्रम के लिए नहीं, बल्कि किसी कार्य के लिए कार्यक्रम किया जाना चाहिए. इस कार्यक्रम का उदद्देश्य भी स्वाधीनता आंदोलन के मर्म को समझना है. स्वाधीनता आंदोलन राजनीतिक सत्ता के हस्तांतरण के लिए नहीं था, बल्कि ‘स्व’ यानि भारत के स्वाभिमान की पुनः स्थापना के लिए था. मानगढ़ जहां जलियांवाला बाग की तरह अंग्रेजों ने नृशंस हत्याकाण्ड किया, उसे इतिहास में उचित जगह ही नहीं मिली. इतिहासकारों ने आजादी के आंदोलन की एकधारा तय कर दी, जबकि आजादी के लिए देश के कोने-कोने में दर्जनों धाराएं थीं. इन्हें इतिहास के पन्नों में स्थान देने के लिए पुनर्लेखन जरूरी है.

कार्यक्रम के अध्यक्ष राजस्थान विद्यापीठ के कुलपति प्रो. एसएस सारंगदेवोत ने कहा कि सत्य को आगे लाए बिना शिक्षा अधूरी है. उन्होंने राजस्थान विद्यापीठ के संस्थापक जनूभाई के स्वाधीनता आंदोलन और शिक्षा की अलख जगाने के लिए किए कार्यों को बताया. कार्यक्रम का संचालन डॉ. मनीष श्रीमाली ने किया और धन्यवाद ज्ञापन चौनशंकर दशोरा ने किया.

‘स्वराज-स्वदेशी-स्वधर्म की त्रिवेणी है हमारी आजादी’

संगोष्ठी का समापन शाम को हुआ. समापन कार्यक्रम के मुख्य अतिथि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चित्तौड़ प्रांत प्रचारक मुरलीधर ने वागड़ के आजादी के लोक गीत ‘नी मानूं नी मानूं भूरेटिया नी मानूं’ की पंक्तियां दोहराते हुए कहा कि भारत ने मोहम्मद बिन कासिम सहित अन्य मुगल शासकों तक किसी को स्वीकार नहीं किया. उन्होंने कहा कि स्वराज-स्वदेशी-स्वधर्म की त्रिवेणी है हमारी आजादी. लेकिन, आज भी हम मानसिक गुलाम हैं. ‘मैं अकेला क्या कर सकता हूं’ इसे मन से निकालना पड़ेगा, हम प्रचण्ड शक्ति हैं, जातिवाद की मानसिकता के चलते हम करोड़ों से लाखों में सिमट आते हैं, उन्हें पुनः करोड़ों में ले जाना है.

‘शोधपत्रों को पुस्तकालयों से रेफरेंस बुक्स तक लाएं’

मुख्य वक्ता गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय नोएडा के पूर्व कुलपति प्रो. भगवती प्रसाद शर्मा ने कहा कि आजादी का अमृत महोत्सव इतिहास के आत्मावलोकन का भी है. जो भी कमियां रह गई हैं, कुछ छूट गया है उस पर मंथन कर आगे का मार्ग तय करना होगा. शोधपत्रों में भारत के इतिहास के गौरवशाली तथ्य हैं, लेकिन वे शोधपत्र पुस्तकालयों तक ही सीमित हैं. जब तक वे रेफरेंस व टेक्स्टबुक के रूप में नहीं आएंगे, तब तक भारतीय संस्कृति का गौरवशाली इतिहास सामने नहीं आ पाएगा.

समापन सत्र की अध्यक्षता महाराणा प्रताप संग्रहालय हल्दीघाटी के संस्थापक डॉ. मोहनलाल श्रीमाली ने की. विशिष्ट अतिथि भारतीय इतिहास संकलन समिति चित्तौड़ प्रांत के प्रांत अध्यक्ष डॉ. मोहनलाल साहू, वरिष्ठ इतिहासविद जीएल मेनारिया,, प्रताप गौरव केन्द्र के निदेशक अनुराग सक्सेना थे. अंत में डॉ. महेश आमेटा ने राष्ट्रमंत्र का उच्चारण कर संकल्पपूर्ति की कामना की. कार्यक्रम का समापन राष्ट्रगान से हुआ.

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