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6 मई, 1532 – 700 क्षत्राणियों ने अपने बच्चों के साथ किया था अग्नि में प्रवेश

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सल्तनत काल के इतिहास में भारत का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, जहाँ हमलावरों से अपने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिये भारतीय नारियों ने अग्नि में प्रवेश न किया हो. और कुछ ऐसे जौहर हैं, जिनकी गाथा से आज भी रोंगटे खड़े होते हैं. ऐसा ही एक जौहर रायसेन के किले में 6 मई, 1532 को हुआ, जिसमें सात सौ से अधिक महिलाओं ने अपने छोटे बच्चों के साथ अग्नि में प्रवेश किया था.

यह जौहर महारानी दुर्गावती की अगुवाई में हुआ. महारानी दुर्गावती मेवाड़ के इतिहास प्रसिद्ध यौद्धा राणा संग्राम सिंह की पुत्री थीं. इतिहास की कुछ पुस्तकों में उनकी बहन भी लिखा है. वे चित्तौड़ के सिसोदिया वंश की पुत्री थीं. स्वाभिमान और स्वत्व रक्षा उनके रक्त की प्रत्येक बूँद में था. शस्त्र चलाना भी जानती थी. चित्तौड़ में उन्होंने वीरांगनाओं की टोली गठित की थी. उनका विवाह रायसेन के शासक के साथ हुआ था. शीलादित्य ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर के भाई थे. शीलादित्य ने खानवा के युद्ध में राणा संग्राम सिंह के साथ बाबर का मुकाबला किया था. खानवा के युद्ध में भारतीय शासकों का भारी नुकसान हुआ था. खानवा युद्ध के बाद बाबर ने कालिंजर पर धावा बोला और गुजरात के सुल्तानों ने मालवा और रायसेन पर.

गुजरात के हमलावर रायसेन के किले को जीत तो न सके, पर सैन्य शक्ति बहुत कमजोर हो गई. कमजोर शक्ति के बाद भी रायसेन में शीलादित्य की सत्ता बनी रही. तब रायसेन जीतने और लूटने के लिये गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने कुटिल योजना बनाई. वह धार आया, नालछा में कैंप किया और अनेक भेंट रायसेन भेजीं. महाराजा शीलादित्य को मित्रता संदेश भेजकर धार आमंत्रित किया और धोखे से कैद कर लिया. उन दिनों रायसेन की सीमा उज्जैन तक लगती थी. उज्जैन में शीलादित्य के भाई लक्ष्मण सिंह किलेदार थे. उन्हें समाचार मिला तो वे अपनी सेना लेकर रायसेन की रक्षा के लिये चल दिये. यह समाचार बहादुरशाह को मिला. वह बंदी शीलादित्य को साथ लेकर उज्जैन आया और बंदी शालादित्य को आगे करके उज्जैन पर धावा बोल दिया. यह घटना दिसम्बर 1531 की है. उज्जैन के रक्षकों ने शीलादित्य को बंदी देखा तो बिना संघर्ष के समर्पण कर दिया.  उज्जैन में भारी लूट हुई और स्त्रियों का हरण भी.

उज्जैन पर अधिकार करने के बाद उसने यही तरकीब सारंगपुर, आष्टा आदि स्थानों पर अपनाई.  अंत में रायसेन पहुंचा. उसने रायसेन किले पर घेरा डाला और बंदी शीलादित्य को यातनाएं देकर किला समर्पित करने का आदेश दिया. बहादुरशाह ने महारानी दुर्गावती को संदेश भेजा कि वे अपने पूरे रनिवास के साथ समर्पण कर दें. समर्पण की अंतिम बातचीत 4 मई, 1532 को हुई. प्रस्ताव लेकर बहादुरशाह ने अपने एक सिपहसालार मलिक शेर को भेजा. उसके प्रस्ताव को महारानी दुर्गावती एवं किले में मौजूद शीलादित्य के भाई लक्ष्मण सिंह ने नकार दिया. और महारानी ने जौहर करने एवं लक्ष्मण सिंह ने साका करने का निर्णय लिया. 5 मई से जौहर तैयारी आरंभ हुई और 6 मई, 1532 को सूर्योदय के साथ अग्नि की लपटें धधक उठीं. अग्नि की लपटें आसमान छूने लगीं. जौहर की यह अग्नि दिनभर प्रज्ज्वलित रही. स्वाभिमानी क्षत्राणियों और उनकी सहयोगी सभी स्त्रियों ने समर्पण करने की बजाय बलिदान होने को प्राथमिकता दी. यह रायसेन के इतिहास में पहला जौहर हुआ. इसके बाद दो अन्य जौहर का उल्लेख मिलता है

अगले दिन प्रातः लक्ष्मण सिंह के नेतृत्व में निर्णायक युद्ध हुआ और अपनी रक्षा सैन्य टुकड़ी सहित बलिदान हुए. अंत में दस मई को बहादुरशाह का रायसेन के किले पर आधिपत्य हो गया.

इतिहास की कुछ पुस्तकों में शीलादित्य का नाम सलहदी और लक्ष्मण सिंह का नाम लक्ष्मण सेन लिखा है. कुछ ने यह भी लिखा है कि बहादुरशाह ने शीलादित्य को बंदी बनाकर धर्मान्तरण करके नाम सलाहुद्दीन कर दिया था, पर बात तथ्यात्मक नहीं लगती. क्योंकि यदि शीलादित्य धर्मान्तरण कर लेते तो जौहर क्यों होता, साका क्यों होता? रायसेन के किले में इस जौहर का शिलालेख है, स्थानीय नागरिक आज भी उस स्थल पर जाकर शीश नवाते हैं.

रमेश शर्मा

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