जयराम शुक्ल
संविधान के प्रावधानों से इतर लोकमानस में चौथे स्तंभ के तौर पर स्थापित प्रेस आज भी अन्य स्तंभों से ज्यादा विश्वसनीय, सहज और सुलभ है. समस्याओं से घिरा आम आदमी सबसे पहले अखबार के दफ्तर में जाकर फरियाद करता है. थाने, दफ्तरों और भी सरकरी गैर सरकारी जगहों में जब वह दुरदुराया जाता है तो उसका आखिरी ठिकाना भी प्रेस का ही दफ्तर होता है. यह छपे हुए शब्दों की ताकत है जो प्रेस को तमाम लानतों मलानतों के बावजूद प्रभावी बनाए हुए है.
बहुत सी धारणाओं की स्थापना लोकमानस के जरिये होती है. जैसे प्रेस का मतलब आज भी अखबार और पत्रिकाएं हैं न कि टीवी चैनल और वेब पोर्टल. इसलिए प्रेस के समानांतर ‘मीडिया’ के नाम को चलाने के जतन शुरू हुए, लेकिन प्रेस शब्द का रसूख कायम है. इस शब्द को अभी भी ऐसा उच्च सम्मान प्राप्त है कि अपराधी भी प्रायः इसे ढाल की तरह इस्तेमाल करने लगते हैं. कमाल की बात है कि जिस .प्रेस. शब्द को भारतीय संविधान ने अपने पन्नों में भी जगह नहीं दी, उसे लोकमानस ने आगे बढ़कर शिरोधार्य किया.
अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में जब टेलीविजन आया तो लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि अखबारों के दिन गए. प्रेस के भविष्य पर गंभीर चर्चाएं शुरू हुईं. लेकिन टीवी का आना फायदे का ही साबित हुआ. अखबार ज्यादा सतर्क हुए. रंगीन होने का दौर शुरू हुआ. ले-आउट्स और प्रोडक्शन की दृष्टि से क्रांतिकारी परिवर्तन हुए. बड़े घरानों से लेकर मध्यम दर्जे तक के अखबार प्रतिष्ठानों में आरएंडडी (रिसर्च एन्ड डवलपमेंट) के विभाग खुले.
अस्सी के दशक को आप प्रेस का सुनहरा दौर कह सकते हैं. खुफिया कैमरे, और बटन रिकॉर्डर नहीं थे. फिर भी एक के बाद एक सनसनीखेज खोजी रिपोर्ट्स आईं, जिनकी नजीर आज भी दी जाती है. अंतुले सीमेंट घोटाला कांड का पर्दाफाश हुआ, इसके बाद खोजी खबरों की झड़ी सी लग गई. सबसे बड़ा धमाका 86-87 में बोफोर्स का हुआ.
रविवार, दिनमान, माया, इलुस्ट्रेटेड वीकली, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं दैनिक अखबारों से लोहा लेने लगीं. अखबार और पत्रिकाओं में आगे निकलने की कड़ी स्पर्धा शुरू हुई. इस दशक में रिकॉर्ड तोड़ पाठक बढ़े और उसी हिसाब से नए अखबार और जमे-जमाए अखबारों के संस्करण. दूरदर्शन काला-सफेद से रंगीन हुआ. दर्शक जीवंत खबरें देखने लगे. टीवी अखबारों के लिए कैटलिस्ट साबित हुआ. पढ़ने की भूख जगी. यह प्रेस पर पाठकों की कृपा है, ये इज्जत, शोहरत, ताकत लोक की वजह से है सरकार की वजह से नहीं, यह बात अच्छे से समझ लेना चाहिए.
छपे हुए शब्द आज भी सबसे ज्यादा विश्वसनीय और खरे हैं. हाल ही की एक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि पाठकों का भरोसा मुद्रित माध्यमों के प्रति और बढा है. सन् 1990 के बाद निजी क्षेत्र के चैनल आए. खबरों की बड़ी स्पर्धा शुरू हुई. विदेशी चैनलों के लिए भी दरवाजे खोल दिए गए. एक बार फिर इस जनसंचार क्रांति से ऐसा लगा कि अखबार और पत्रिकाओं का भट्ठा बैठ जाएगा. कुछ शुरुआती असर दिखा भी, लेकिन लोकमानस में चैनल्स खबरों को लेकर अपनी छाप नहीं छोड़ पाए, जबकि ये ऐसे माध्यम हैं कि खबरें जीवंत दिखती हैं.
सर्वे ये बताते हैं कि चैनल्स अखबारों के हित में ही रहे. खबरों की भूख बढ़ाने का काम किया अखबार और भी गंभीरता से पढ़े जाने लगे. प्रसार के हर साल जारी होने वाले आंकड़े बताते हैं कि अखबारों के प्रसार का दायरा दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है.
अब आते हैं प्रेस की स्थिति पर. प्रेस की इस महत्ता ने हर क्षेत्र के व्यवसाइयों को अपनी ओर खींचा है. बिल्डर, चिटफंडिये, खदानों और शराब का ठेका चलाने वाले, राजनीति में रसूख जमाने की लालसा रखने वाले नवकुबेर, प्रेस ने सभी को लुभाया.
एक बड़े व्यापारी ने सच्चा किस्सा बताया – मैं एक हजार करोड़ के टर्न ओवर वाला व्यापारी किसी काम से बल्लभ भवन गया पीएस से मिलने. चार घंटे बैठे रहने के बाद भी मेरा नंबर नहीं आया, जबकि विधिवत् अपॉइंटमेंट ले रखा था. कुछ लोग आते सीधे चैम्बर में घुस जाते. मैंने पूछा ये कौन लोग हैं? चपरासी ने बताया कि ये प्रेस वाले हैं. तभी मेरे दिमाग में आया कि क्यों न हम भी प्रेस शुरू कर दें. उक्त व्यवसायी ने अखबार शुरू कर दिया. अच्छे पत्रकारों को नौकरी में रख लिया, फिर हुआ यह कि जो कभी चार घंटे पीएस का इंतजार करते बैठा करता था. उसके ही दफ्तर उस पीएस के मंत्री और यहां तक कि मुख्यमंत्री भी आने लगे.
ऐसे लोगों के लिए अखबार व्यवसाय का कवच और विजिटिंग कार्ड बन गया. यहीं से एक मुगालता और शुरू हुआ कि ऐसे व्यवसायी जो अखबार के मालिक बन गए, ने सोचा क्यों न अखबार के दम पर उल्टी सीधी फाइलें ओके करवा ली जाएं. यानि कि अखबार को कट्टे की तरह इस्तेमाल करने की कोशिशें हुईं. प्रेस को जब आप प्रांस बनाएंगे तो प्रेस की आत्मा वहीं शरीर छोड़कर भाग जाएगी. एक मित्र गिनती लगाकर बता रहे थे कि कोई दो दर्जन से ज्यादा ऐसे अखबार और चैनलों के मालिक हैं जो जेल की हवा खा रहे हैं. कईयों के यहां ऐसे छापे पड़े कि वे अब तक संभल नहीं पा रहे हैं.
कहने का आशय यह कि प्रेस को पेशेवराना अंदाज से ही चलाया जा सकता है. इसलिये मीडिया के पुराने घराने ही इस मैंदान में कायम हैं. वे वो हर तिकड़म जानते हैं कि कैसे उनका रसूख भी कायम रहे और मीडिया का धंधा भी चलता रहे. सन् 1966 में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के गठन के बाद अखबारों में काम करने वालों के हित में कई वेज बोर्ड बने.
प्रेस काउंसिल को 1966 में प्रेस के हितों की रक्षा व उन्हें मर्यादित करने के लिए गठित किया गया था. चूंकि 16 नवंबर से उसने काम करना शुरू किया था. इसलिए इस दिन को राष्ट्रीय प्रेस दिवस घोषित कर दिया. इसके अध्यक्ष अमूमन सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज होते हैं. इस संस्था को प्रेस का वॉचडॉग.. कहा जाता है.